उत्तर प्रदेश में गिद्धों के लिए पहला रेस्टोरेंट ललितपुर जिले में खोला गया है। प्रदेश के फोरेस्ट विभाग, स्थानीय ग्राम पंचायत और जिला प्रशासन के सहयोग से खुला ये रेस्टोरेंट धीरे धीरे सफल हो रहा है।
अंधाधुंध शहरीकरण ने बहुत से जीवों को खत्म होने के कगार पर पहुंचा दिया है। गिद्ध उनमे से एक है। भले ये आकर्षक न हो लेकिन गिद्ध पर्यावरण के लिए बहुत जरूरी हैं। खाने की कमी, उनके रहने की जगह का खत्म होना गिद्धों के गायब होने के मुख्य कारण हैं।
गिद्धों को बचाने के लिए उत्तर प्रदेश में पहली बार रेस्टोरेंट बुंदेलखंड के ललितपुर जिले में खोला गया है। इस प्रोजेक्ट के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में जूलॉजी विभाग की प्रोफेसर अमिता कन्नौजिया ने पहल की है। प्रोफेसर अमिता कन्नौजिया के अनुसार गिद्धों को खाना न मिलने की वजह से उनकी संख्या बहुत घट गयी है। पहले लाखों गिद्ध थे लेकिन अब इतने ही बचे हैं कि आप उन्हें आसानी से गिन सकते हैं। 2011 में की गई फोरेस्ट विभाग की गणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में केवल 2080 गिद्ध बचे हैं।
गिद्धरेस्टोरेंट :
वैसे दुनिया में पहली बार गिद्धों के लिए रेस्टोरेंट अफ्रीका में खोला गया था। भारत में गुजरात में भी एक ऐसा एक रेस्टोरेंट चल रहा है। उत्तर प्रदेश का पहला रेस्टोरेंट ललितपुर जिले में खोला गया है। इसमें जमीन के एक बड़े टुकड़े को चारदिवारी से घेर दिया गया है। दीवारें ऐसी बनाई गई हैं कि दूसरे जानवर अंदर ना जा सकें लेकिन बाहर से अन्दर की गतिविधियों पर नजर रखी जा सके।
अन्दर कई प्लेटफार्म बनाए गए हैं जहां गिद्ध खाना खाने के बाद आराम से बैठ सकें। ऐसा इसलिए क्योंकि गिद्ध खाना खाने के बाद एक दम से उड़ नहीं सकता है। अन्दर गिद्ध के लिए मरे हुए जानवर का मांस उपलब्ध कराया जाता है। ये मांस स्थानीय स्तर पर मरे हुए जानवर का होता है और प्रशासन की अनुमति से डाला जाता है। पशुओ के सेंटर, सड़क दुर्घटना में मारे गए पशु इत्यादि से भी गिद्ध को खाना मिल जाता है। ग्राम पंचायत इसमें अहम रोल निभाती है और गांव-गांव से मरे पशुओ के मांस यहां भेजे जाते हैं।
ललितपुर में गिद्धों की उपलब्धता अधिक होने की वजह से इस एरिया को वल्चर कॉलोनी भी कहा जाता है। इस रेस्टोरेंट के कई फायदे हैं। गिद्धों को आराम से खाना मिल जाता है। दूसरे मरे हुए जानवरों की मृत्य के बाद उसके शव के निपटारे की परेशानी खत्म हो जाती है। क्योंकि इधर उधर मरे हुए जानवर के पड़े होने से गन्दगी और बीमारी फैलने का खतरा रहता है।
स्थानीय लोग जागरूक रहते हैं कि गिद्ध को बचाना है और इसीलिए गिद्ध रेस्टोरेंट में उनका खाना पहुंचा देते हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सीख बन जाती है।
पर्याप्त और सुरक्षित स्थल पर खाना मिलने से गिद्ध आराम से खा लेते हैं। उनके प्रजनन करने के भी मौके बढ़ जाते हैं। एक फायदा ये भी है कि जब गिद्ध रेस्टोरेंट में खाना सरकारी चैनल्स के जरिए आता है तो हर मांस की जांच भी होती है। इससे पता चल जाता है कहीं किसी जानवर को कोई प्रतिबंधित दवाई तो नहीं दी गयी थी। उदाहरण के लिए साल 2004 से डिक्लोफेनाक दवा प्रतिबंधित हैं। आमतौर पर यह दवा मवेशी को दर्द में दी जाती थी। इसके अलावा इसको दूध देने वाले मवेशी को भी दिया जाता था। यह दवा खाने वाले मवेशियों के मरने के बाद अगर गिद्ध उनका मांस खाते थो तो उनकी मौत हो जाती थी क्योंकि ये दवा गिद्ध के लिए जहर जैसी है।
गिद्ध क्यों घट गए
प्रोफेसर अमिता कन्नौजिया के अनुसार लोगो में गिद्धों के प्रति जागरूकता नहीं है। वो इस पक्षी का महत्व नहीं समझते थे जबकि ये बहुत जरूरी है। शहरीकरण से गिद्धों के रहने की जगह भी खत्म हो रही है। बहुत भ्रांतियां भी हैं इसके अलावा अवैध शिकार भी होता है। मादा गिद्ध पूरे साल में केवल एक अंडा देती है। लोग उसे भी अंधविश्वास के कारण घोंसले से निकाल लाते हैं। प्रोफेसर अमिता के बताती हैं, "कई सारे किस्से कहानियां हैं। वास्वत में कुछ नहीं होता है। लोग तंत्र-मंत्र के चक्कर में गिद्ध का घोंसला नष्ट करके अंडा निकाल लेते हैं। हम लोगो को उसके रहने की जगह जहां घोंसला हो उसे सुरक्षित रखनी चाहिए।"
मांस के लिए खोले गए स्लॉटर हाउस भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। अब आमतौर पर कोई भी अपने बूढ़े और बीमार पशु की प्राकृतिक मृत्य का इंतजार नहीं करता बल्कि स्लॉटर हाउस में दे देता है जिससे उसको पैसे मिल जाते हैं। इस प्रकार गिद्ध के खाने का एक जरिया मिट जाता है। शायद गिद्ध ही एक ऐसी प्रजाति हैं जिसकी संख्या में 95% से ज्यादा की कमी रिकॉर्ड की गई है। इनको लुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में रखा गया है।
बड़े, घने और ऊंचे पेड़ अब कम ही दिखते हैं। मजबूत और विशाल होने के कारण ये गिद्ध के लिए घोसला बनाने के लिहाज से सबसे उपयुक्त होते हैं। ऐसे पेड़ अब काट दिए जाते हैं और कम जगह में उगने वाले पेड़ लगाये जाते हैं।
उत्तर प्रदेश में वैसे आठ तरह के गिद्ध देखे गए हैं जिसमे तीन माइग्रेटरी जो हिमालयन क्षेत्र, यूरेशिया और भारत के उत्तर पूर्व इलाके से आते हैं। हर साल सितंबर के पहले शनिवार को अंतर्राष्ट्रीय वल्चर डे मनाया जाता है जिससे लोगों की जागरूकता गिद्धों के प्रति बढ़े और इनका संवर्धन हो सके।