चीन के मुकाबले कहां कहां कमजोर पड़ता है भारत

Webdunia
बुधवार, 3 जून 2020 (09:49 IST)
रिपोर्ट राहुल मिश्र
 
भारत और चीन की सीमा पर फिर तनातनी है। चीन एक उभरती हुई महाशक्ति है, तो भारत की सैन्य और राजनीतिक ताकत बढ़ रही है। लेकिन कुछ चीजों में भारत खासा कमजोर दिखाई पड़ता है। दोनों देशों सेनाओं के बीच कहासुनी और झड़प के समाचारों के बीच ऐसी खबरें भी आई हैं कि चीन भारत की सीमा में अतिक्रमण कर चुका है। हालांकि भारतीय सेना की और ज्यादा टुकड़ियों को सीमा पर तैनात किया जा रहा है लेकिन चीन को वापस वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर धकेलना फिलहाल बहुत कठिन लग रहा है।
 
रिपोर्टों के अनुसार भारत और चीन के बीच इस झड़प की शुरुआत भारतीय सेना के एलएसी के अपने हिस्से में रोड बनाने को लेकर हुई थी। इसके बाद विभिन्न जगहों पर हुए छोटे-छोटे विवादों ने पिछले कुछ हफ्तों में एक गंभीर रूप धारण कर लिया।
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भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की सबसे बड़ी वजह यह है कि चीन मैकमहोन रेखा को मान्यता नहीं देता। उसका मानना है कि अंग्रेजों द्वारा निर्धारित यह सीमा रेखा सही नहीं है। लेकिन म्यांमार के साथ इसी रेखा को मानने में चीन को कोई परहेज नहीं है। भारत और चीन के बीच सीमा को 3 सेक्टरों में बांटा गया है- पश्चिमी, मध्य और पूर्व। ऐसा भौगोलिक कारणों के अलावा सीमा विवाद सुलझाने में सहजता के लिए भी किया गया है।
 
अगर हम विवाद के मुख्य स्थानों को देखें तो मध्य सेक्टर कमोबेश शांत रहता है। लेकिन पश्चिमी और पूर्वी दोनों ही सेक्टरों में सीमा पर अतिक्रमण और गश्त को लेकर भारत और चीन की सेनाओं के बीच विवाद होते रहते हैं। मीडिया और आम जनता तक इनमें से कुछ बड़े मुद्दे ही पहुंचते हैं।
भारत की कमजोरी
 
1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत को पश्चिमी सेक्टर में काफी नुकसान उठाना पड़ा और अक्साई चिन का हिस्सा चीन के कब्जे में चला गया। पश्चिमी सेक्टर भारत के लिए सामरिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस क्षेत्र में भारत को चीन और पाकिस्तान- दोनों मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना होता है। पाकिस्तान के साथ कश्मीर विवाद के अलावा भारत के लिए चिंता की एक बड़ी वजह है चीन की लद्दाख पर नजर।
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दूसरी ओर पूर्वी सेक्टर में सीमा विवाद तिब्बत, तवांग और दलाई लामा के मुद्दे से जुड़ा हुआ है। चीन, भारत के अरुणाचल प्रदेश पर दावा करता है और इसे 'दक्षिणी तिब्बत' की संज्ञा देता है। अरुणाचल प्रदेश के निवासियों को स्टेपल्ड वीसा जारी करने के अलावा चीन केंद्र सरकार के मंत्रियों के अरुणाचल दौरों का भी विरोध करता रहा है।
 
रणनीतिक तौर पर भारत पश्चिमी सेक्टर में 1962 के बाद से ही कमजोर स्थिति में है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सेना ने अपने सैनिकों और रसद के निर्बाध आवागमन के लिए रोड बनाने की कोशिशें की हैं। चीन ऐसा नहीं होने देना चाहता है और जब भी भारत रोड और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण की कोशिशें करता है तो चीन परेशान हो जाता है और इसी वजह से दोनों सेनाओं में झड़प की नौबत आ जाती है।
 
पूर्वी लद्दाख का हिस्सा भारत और चीन के बीच विवादित है, क्योंकि वहां सीमा रेखा पर दोनों देशों में सहमति नहीं बन पाई है। यही वजह है कि हाल के दिनों में एलएसी पर विचारों की भिन्नता को विवाद की वजह माना गया। भारत चाहता है कि चीन अतिक्रमण से पहले की स्थिति पर वापस जाए और इसके लिए कूटनीतिक प्रयास जारी है। हालांकि यह सब होना इतना आसान नहीं है।
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भारत के जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटाने के बाद से ही चीन परेशान हो गया है, क्योंकि उसे पता है कि जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार का नियंत्रण भारत-चीन सीमा पर भी भारत को मजबूत करेगा। इसकी एक वजह यह भी है कि भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद में चीन का भी निहित स्वार्थ है। 1963 में पाकिस्तान और चीन के बीच हुए समझौते के तहत पाकिस्तान ने गैरकानूनी ढंग से विवादित हिस्से का लगभग 5,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग चीन को दे दिया था।
 
जब भी भारत और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को सुलझाने की कोशिश करेंगे तो चीन के कब्जे का मुद्दा भी सामने आएगा। चीन सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस हिस्से को कभी छोड़ना नहीं चाहेगा। चीन की ओर से धारा 370 मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाने के पीछे भी यह एक बड़ी वजह थी।
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भारत क्या करेगा?
 
नेपाल के साथ अचानक उठे सीमा विवाद के पीछे भी चीन का हाथ देखा जा रहा है। भारतीय सेना प्रमुख ने इस बात की परोक्ष रूप से पुष्टि भी की है। इस बात से साफ है कि भारत की चीन से जुड़ी चिंताओं के पीछे सीमा विवाद अकेली वजह नहीं है। इसमें दोराय नहीं है कि चीन, भारत को सीमा पर किसी भी तरह मजबूत नहीं होने देना चाहता लेकिन इस बार उठे सीमा विवाद को नेपाल और कोविड-19 को लेकर भारत की प्रतिक्रियाओं से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए।
 
हालांकि सीधे तौर पर भारत-चीन सीमा विवाद को विश्व स्वास्थ्य संगठन में ताईवान के समर्थन और भारत समेत कई देशों के चीन के विरोध से आधिकारिक तौर पर नहीं जोड़ा गया है, लेकिन चीन के ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और वियतनाम जैसे देशों के साथ बर्ताव से ऐसा लगता है कि सीमा पर इस फसाद के पीछे कहीं न कहीं कोविड-19 से ध्यान हटाना और भारत को परेशान करना भी है।
 
यहां सवाल यह उठता है कि भारत, चीन से निपटने के लिए क्या कर सकता है? क्या भारत भी चीन के किसी पड़ोसी को उकसा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि दक्षिण-चीन सागर में भारत ऐसी जवाबी कार्रवाही कर सकता है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि भारत फिलहाल ऐसी स्थिति में नहीं है कि अकेले दक्षिण-पूर्व एशिया में ऐसा कुछ कर पाए। ऐसा इसलिए भी है कि चीन के मुकाबले भारत की पकड़ कमजोर है। चीन के साथ दक्षिण चीन सागर विवाद में उलझे दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश देश चाहने के बावजूद भारत और अन्य देशों के साथ चीन विरोधी किसी काम में सीधे शामिल होने से कतराते रहे हैं।
 
अमेरिका किसके साथ है?
 
भारत के अमेरिका से दोस्ताना संबंध चीन के संदर्भ में सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। चीन, भारत और अमेरिका की बढ़ती दोस्ती से चिंतित है जिसकी झलक पिछले कई वर्षों में चीनी विदेश मंत्रालय के वक्तव्यों में देखने को मिली है। बीते दिनों भी जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत और चीन के बीच मध्यस्थता की इच्छा व्यक्त की तो चीनी सरकार तुरंत हरकत में आई और भारत से शांतिपूर्ण ढंग से विवाद सुलझाने की बातें भी कही गईं।
 
साफ है, भारत के लिए अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का साथ चीन के मुकाबले में एक सुरक्षा कवच की तरह काम आ सकता है। अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच बना क्वाड्रिलैटरल या क्वॉड चीन के आक्रामक रवैये से निपटने के लिए ही बना है लेकिन पिछले 10 से अधिक वर्षों में भारत ने इस पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया है।
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भारतीय सरकारें सोचती रही हैं कि चीन से संबंध बनाने के लिए अमेरिका और क्वॉड से ज्यादा सैन्य और सामरिक नजदीकी अच्छी नहीं होगी। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान और मामल्लपुरम में हुई बैठकों में भी यही गलत आकलन किया गया और नतीजा आज सबके सामने है। भारत के इस ढुलमुल रवैये के चलते दूसरे देश भी क्वॉड से दूर हटते जा रहे हैं। भारत को चीन से बातचीत के साथ-साथ क्वॉड पर न सिर्फ ध्यान देना चाहिए बल्कि इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए।
 
मीडिया की भूमिका
 
भारत-चीन संबंधों की एक बड़ी कमजोरी यह है कि या तो भारतीय मीडिया और अधिकांश नीति-निर्धारक चीन को लेकर अत्यधिक आशावान हो जाते हैं या फिर बहुत ही नकारात्मक। मानो हिन्दी-चीनी या तो भाई-भाई हैं या फिर चीन का सफाया किए बिना भारत का विकास संभव ही नहीं है। यह नीति सही और दूरदर्शी नहीं है।
 
विदेश नीति और उससे भी ज्यादा सैन्य-सामरिक नीति के निर्णय भावावेश में आकर नहीं लिए जा सकते। दोस्त या दुश्मन दोनों ही स्थितियों में चीन को गहराई से समझना जरूरी है और साथ ही जरूरी है अमेरिका और अन्य देशों के साथ सामरिक और रणनीतिक सहयोग ताकि चीन, भारत को अकेला जानकर आए दिन धौंस न दिखा सके।
 
चीन से निपटने के लिए पहले उसके समाज, विदेश नीति और सामरिक नीति के हर पहलू को गहराई से समझना पड़ेगा और साथ ही भारत को अपनी सीमा, सामरिक नीति और सुरक्षा के मूलभूत आयामों पर लगातार काम भी करना पड़ेगा।

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