प्लास्टिक कचरा भारत में प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत बन गया है। लेकिन देश में सिंगल यूज प्लास्टिक के विकल्प की तलाश नहीं हो पा रही है और न ही कचरे के प्रबंधन के लिए कोई प्रभावी हल निकल पा रहा है। भारत में 3 महीने पहले सिंगल यूज प्लास्टिक (एसयूपी) के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन अभी भी इनका धड़ल्ले इस्तेमाल से हो रहा है।
प्लास्टिक कचरे और बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लग सके, इसलिए इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन देशभर में अभी भी प्लास्टिक का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। ये प्रतिबंध एसयूपी से बनी 21 चीजों पर लगाए गए थे जिनमें प्लेट्स, बर्तन, स्ट्रॉ, पैकेजिंग फिल्म और सिगरेट के पैकेट शामिल हैं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में पर्यावरण आधारित एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक के डायरेक्टर रवि अग्रवाल कहते हैं कि हालांकि ये प्रतिबंध केंद्र सरकार की ओर से जारी किए गए हैं, लेकिन इन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों और उनके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड्स की होती है। राज्य समुचित कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि प्रतिबंधों को पूरी तरह से लागू कराने के लिए राज्यों के पास कोई प्रभावी रणनीति नहीं है।
भारत ने प्रतिबंध तो लागू कर दिए हैं लेकिन एसयूपी को रोकने के लिए कोई एडवाइजरी नहीं जारी की है और न ही कोई जुर्माना लगाया गया है। इसीलिए एसयूपी के उत्पाद प्रतिबंधों के बावजूद देश भर में मिल रहे हैं। भारत हर साल करीब 14 मिलियन टन प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन तन्मय कुमार ने हाल ही में एक बातचीत में इस बात पर जोर डाला कि प्रतिबंध के बावजूद, एसयूपी से बनी वस्तुओं, खासकर थैलों का उपयोग छोटे दुकानदारों द्वारा बहुतायत से हो रहा है।
'सस्ते विकल्पों' की जरूरत
पिछले साल एक सरकारी समिति ने एसयूपी से बनी चीजों को उनकी उपयोगिता और उनके पर्यावरणीय प्रभाव के सूचकांक के आधार पर चिह्नित किया जिन्हें प्रतिबंधित किया जाना था। इस तरह के प्लास्टिक, भारत में निकलने वाले कुल प्लास्टिक कचरे का महज 2-3 फीसद ही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट किया था कि उनकी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में प्लास्टिक को खत्म करने की दिशा में सक्रियतापूर्वक कार्य करेगी। लेकिन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यह कोई आसान काम नहीं है क्योंकि भारत में हर रोज करीब 26 हजार टन कचरा निकलता है, जिसमें से करीब दस हजार टन कचरा इकट्ठा ही नहीं किया जा पाता।
टॉक्सिक्स लिंक से जुड़े अग्रवाल इस बात पर जोर देते हैं कि एसयूपी के विकल्पों की जरूरत है। वो कहते हैं कि इन प्रतिबंधित वस्तुओं की मांग को पूरा करने के लिए सस्ते विकल्पों की उपलब्धता बहुत बड़ी चुनौती है जिन पर नजर रखने की जरूरत है।
चिंतन एनवॉयरनमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप की संस्थापक और निदेशक भारती चतुर्वेदी कहती हैं कि इसके लिए पर्याप्त मात्रा में निवेश भी नहीं हुआ है। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं कि इस बदलाव के लिए प्रोत्साहन की जरूरत है। निर्माताओं को अनिश्चित शर्तों के बारे में बताना होगा। प्लास्टिक उद्योग के समर्थन से बन रहे प्लस्टिक को सुनामी की तरह जमकर मथने की जरूरत है।
छोटी और मझोली इकाइयां सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे
भारत में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 11 किलो ग्राम प्रति वर्ष है और यह दुनिया में अभी भी सबसे सबसे कम है। दुनिया भर में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 28 किलो है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020-21 में भारत में करीब 35 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ। ये आंकड़े देश के सभी 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के दिए आंकड़ों के आधार पर जुटाए गए थे।
भारत में सबसे ज्यादा प्लास्टिक का उत्पादन महाराष्ट्र में 13 फीसद और उसके बाद तमिलनाडु और पंजाब 12 फीसद प्लास्टिक का उत्पादन करते हैं। दूसरी ओर, भारत में प्लास्टिक को रीसाक्लिंग करने की क्षमता महज 15।6 लाख टन प्रति वर्ष है जो कि प्लास्टिक उत्पादन की तुलना में आधी है।
भारत में एक संगठित प्लास्टिक कचरा प्रबंधन तंत्र का अभाव है जिसकी वजह से ये इधर-उधर बिखरा मिलता है। प्लास्टिक्स को लोग नदियों, समुद्र और गड्ढों में फेंक देते हैं जिसकी वजह से वन्यजीवों के जीवन के लिए नुकसानदायक होता हैं।
इसके अलावा, प्रतिबंध का सबसे ज्यादा प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सबसे कमजोर तबके पर पड़ता है, खासकर प्लास्टिक उद्योग की छोटी और मध्यम औद्योगिक इकाइयों पर। इसका मतलब, सिर्फ प्रतिबंध के जरिए बड़ी संख्या में नौकरियों के जाने की भी अनदेखी की जा रही है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, हमने प्रतिबंधों को कड़ाई से लागू करने के लिए निर्देशित किया है। इसके तहत सड़क किनारे दुकानदारों, सब्जी विक्रेताओं और स्थानीय बाजारों के साथ-साथ सीमाओं पर भी निगरानी रखी जा रही है और प्लास्टिक से संबंधित उद्योगों की भी जांच की जा रही है।
प्रतिबंध लागू करने का राजनीतिक विरोध
एसयूपी पर प्रतिबंधों को सफल बनाने के लिए, औद्योगिक जगत के जानकार सरकार से आह्वान कर रहे हैं कि आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ-लागत विश्लेषण के साथ-साथ इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए एक योजना तैयार की जाए।
आल इंडिया प्लास्टिक मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (AIPMA) के महानिदेशक दीपक बलानी कहते हैं कि हम लोग एक स्वच्छ भारत चाहते हैं और बदलाव के लिए तैयार भी हैं। लेकिन हम समस्या की जड़ पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं- मतलब प्लास्टिक कचरा। हमें कचरे को अलग-अलग करने के तरीके में सुधार की जरूरत है। और कचरों को रीसाइक्लिंग करने संबंधी आधारभूत ढांचे को बढ़ाने की जरूरत है।
AIPMA प्लास्टिक उद्योग का प्रतिनिधित्व करने वाली सबसे बड़ी व्यावसायिक संस्थाओं में से एक है। संस्था ने सरकार से अपील की है कि कोविड महामारी से विनिर्माण इकाइयों को हुए आर्थिक नुकसान के मद्देनजर एसयूपी उत्पादों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की समय सीमा 1 साल यानी 2023 तक के लिए बढ़ा दी जाए। लेकिन प्रतिबंध को सफल बनाने में सभी संबंधित पक्षों को साथ आना होगा। मसलन, कच्चे माल का उत्पादन करने वाले, प्लास्टिक बनाने वाले, उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण करने वाले बड़े उद्योग और सरकारी तंत्र को भी।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के प्रोग्राम डायरेक्टर अतिन बिस्वास डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं कि कई चुनौतियां हैं। कुछ राज्यों में राजनीतिक प्रतिरोध है और प्रतिबंधों को लागू करने के लिए सरकारी स्तर पर कोई ऐसी योजना भी नहीं है।
इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी के सीईओ चंद्रा भूषण इस बात पर आशंका जताती हैं कि सिर्फ प्रतिबंधों की घोषणा से एसयूपी को खत्म नहीं किया जा सकता है। वो कहती हैं कि अच्छे परिणाम के लिए सस्ते विकल्पों के प्रसार के साथ-साथ कचरा प्रबंधन में सुधार की भी जरूरत है।