मुसीबत बन रहे हैं आपके पुराने स्मार्टफोन, लैपटॉप और कम्प्यूटर

DW

शनिवार, 13 मार्च 2021 (10:17 IST)
रिपोर्ट : शिवप्रसाद जोशी
 
भारत में हर साल करीब 10 लाख टन ई-कचरा निकलता है। कबाड़ बन चुके इलेक्ट्रॉनिक गैजेट हवा, पानी और मिट्टी को दूषित तो करते ही हैं, वे जलवायु परिवर्तन को भी उकसा रहे हैं।
 
ई-वेस्ट से आशय पुराने, उम्र पूरी कर चुके, फेंक दिए गए बिजली चालित तमाम उपकरणों से हैं। इसमें कम्प्यूटर, फोन, फ्रिज, एसी से लेकर टीवी, बल्ब, खिलौने और इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसे गैजेट तक शामिल हैं। ई-कबाड़ में लेड, कैडमियम, बेरिलियम या ब्रोमिनेटड फ्लेम जैसे घातक तत्व पाए जाते हैं। ताजा रिपोर्टें और अध्ययन बताते हैं कि भारत में ई-कचरे को न सही ढंग से इकट्ठा किया जाता है और न ही वैज्ञानिक तरीके उसका निस्तारण हो पाता है। इसके चलते हवा पानी मिट्टी जहरीली और दूषित होती जा रही है और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा हो रहा है।
 
ई-वेस्ट प्रबंधन और परिचालन नियम 2011 के बदले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई-वेस्ट प्रबंधन नियम 2016 को अधिसूचित किया था। 2018 में इसमें उत्पादकों से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर संशोधन भी किए गए थे। विषैले और खतरनाक पदार्थों के अपशिष्ट (कचरे) के निपटान के लक्ष्य निर्धारित करने के अलावा विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (एक्सटेन्डेड प्रोड्युसर रिस्पॉन्सिबिलिटी- ईपीआर) योजना बनाई गई है। सरकारी आदेश की भाषा में कहें तो ई-अपशिष्ट संग्रहण लक्ष्यों के मुताबिक 2019-20 में ईपीआर के तहत अपशिष्ट उत्पादन की मात्रा का वजन के हिसाब से 40 प्रतिशत संग्रहण का लक्ष्य रखा गया था। 2021-22 के लिए ये 50 प्रतिशत, 2022-23 के लिए 60 प्रतिशत और उससे आगे के लिए 70 प्रतिशत है। संशोधित नियमों में कहा गया है कि 'ई-अपशिष्ट का संग्रहण, भंडारण, परिवहन, नवीकरण, भंजन, पुनर्चक्रण और निपटान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडेन्स के अनुसार होगा।'
 
लेकिन सीपीसीबी की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे देश में लाखों टन ई-कचरे का महज 3 से 10 फीसदी ही इकट्ठा किया जाता है। एनजीटी में पिछले साल दिसंबर में पेश इस रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में ई-कचरा कलेक्शन का लक्ष्य था 35,422 टन लेकिन वास्तविक कलेक्शन हुआ 25,325 टन। इसी तरह 2018-19 में लक्ष्य था 1,54,242 टन लेकिन जमा हुआ 78,281 टन। और अगले ही साल यानी 2019-20 का हाल देखिए कि लक्ष्य पर पहुंचना तो दूर भारत में 10,14,961 टन ई-कचरा पैदा कर दिया गया! यानी 10 लाख टन से अधिक! करीब 1,630 इलेक्ट्रॉनिक गैजेट निर्माताओं को ईपीआर मिली हुई है जिनके पास बताते हैं कि 7 लाख टन से ज्यादा की ई-वेस्ट प्रोसेसिंग की क्षमता है यानी दायित्व के निर्वाह में वे पीछे हैं और ऐसा सीपीसीबी की चेतावनी के बावजूद है।
 
गंभीर स्थिति
 
ई-कचरे से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्धस्तर की कार्ययोजना की जरूरत है। सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं, स्वयंसेवी समूहों और सरकारों के स्तर पर जागरूकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत है। ई-कचरे के संग्रहण लक्ष्य और वास्तविक संग्रहण के अंतर को कम किया जाना चाहिए। डिसमैंटल क्षमता को बढ़ाने की जरूरत भी है। पर्यावरणीय लिहाज से जुर्माने या मुआवजा जैसी व्यवस्थाएं रखनी चाहिए, और ई-कचरे को लेकर सतत निगरानी और निरीक्षण की जरूरत भी है।
 
यह भी जरूरी है कि गैरआधिकारिक और गैरकानूनी स्तर पर चल रही डिसमेन्टिल और रिसाइक्लिंग कारोबार को बंद किया जाना चाहिए, बेहतर होगा कि उन्हें सही दिशा में प्रशिक्षित और जागरूक कर वैध बनाया जाए। लेकिन ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि ऐसे ठिकाने आबादी और हरित क्षेत्र से दूर बनाए जाएं ताकि पर्यावरण पर कम से कम प्रभाव पड़े। एनजीटी का कहना है कि सीपीसीबी को कम से कम 6 महीने के एक निश्चित अंतराल पर ई-कचरे के निस्तारण से जुड़ा स्टेटस अपडेट करते रहना चाहिए।
 
जाहिर है यह काम सभी राज्यों के प्रदूषण बोर्डों के साथ समन्वय से ही संभव हो पाएगा और राज्यों में भी सभी उत्तरदायी एजेंसियों को इस बारे में न सिर्फ मुस्तैद रहना होगा बल्कि उन ठिकानों को चिन्हित भी करते रहना होगा, जो इस अवैध निस्तारण के चलते पर्यावरणीय लिहाज से नाजुक हो रहे हैं। फिर चाहे वो वहां का भूजल हो या वहां की हवा या वहां के लोगों की सेहत।
 
कैसे कम करें ई-कचरा?
 
इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट को सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ता हुआ कचरा स्रोत माना गया है। कड़े निर्देशों और कानूनों के अभाव में आज अधिकतर ई-वेस्ट सामान्य कचरा प्रवाह का हिस्सा बन जाता है। यहां तक विकसित देशों के रिसाइकिल होने वाले ई-कचरे का 80 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों में जाता है। कचरे का ये भूमंडलीकरण पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक है। ई-कचरे के प्रभावी निस्तारण में बहुत लंबा समय लगेगा, ये तय है लेकिन सबसे आदर्श स्थिति तो यही है कि इन इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों और उपकरणों में ऐसे रसायनों, पदार्थों, खनिजों या विधियों का इस्तेमाल न्यूनतम किया जाए, जो पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के लिहाज से ही नहीं, बल्कि अंतत: एक समूची अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खा जाने की आशंका के लिहाज से बेहद खतरनाक है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी इतनी तरक्की कर रहे हैं तो क्यों न उनकी रोशनी में ऐसी उपयोगी डिवाइसें और प्रोडक्ट बनाए जाएं, जो 100 प्रतिशत पर्यावरण-अनुकूल हों। लेकिन क्या ऐसा हो पाना संभव है? क्या बेइंतहां और बेकाबू हो चुके उपभोक्तावाद पर लगाम लगा पाना संभव है?
 
ई-कचरे की नीतिगत कमजोरियों, व्यवस्थागत उदासीनताओं, व्यापारगत अवहेलनाओं और उपभोक्तागत असवाधानियों के बीच केद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक ताजा अध्ययन भी चिंता में डालने वाला है। इसके मुताबिक भारत में जहरीले और नुकसानदायक पदार्थों से दूषित और प्रभावित सबसे ज्यादा ठिकाने ओडिशा में पाए गए हैं। देश के ऐसे 112 ठिकानों में सबसे ज्यादा 23 ओडिशा, 21 उत्तरप्रदेश और 11 दिल्ली में हैं। 168 ठिकानों को लेकर आशंका है। एनजीटी के आदेश के बाद 7 राज्यों के 14 दूषित ठिकानों की सफाई का अभियान शुरू कर दिया गया है। ये राज्य हैं- गुजरात, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश।
 
भारत में हरित विकास की अवधारणा अभी जोर नहीं पकड़ पाई है और ई-कचरा ही नहीं, प्लास्टिक कचरा, उद्योग फैक्टरी का रासायनिक कचरा भी पसरता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौतियों में ऐसी बहुत सी अलक्षित, साधारण सी दिखने वाली और लगभग अदृश्य चीजें भी हैं जिन पर सुचिंतित कार्ययोजना की जरूरत बनी हुई है। इस काम में देरी का अर्थ है वैश्विक तापमान में उत्तरोतर वृद्धि, जलवायु परिवर्तन के कारणों को अनचाहा उकसावा और हरित विकास के निर्धारित लक्ष्यों में और दूरी। (फोटो सौजन्य : डॉयचे वैले)

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