जब मैं किसी की जन्म पत्रिका का अध्ययन करने के उपरांत उन्हें किसी ग्रह की शांति करने हेतु पूजा विधान या उपाय करने को कहता हूं तो उनमें से अधिकांश मित्रों का प्रश्न होता है कि इस उपाय या पूजा को करने से कितने दिन में लाभ हो जाएगा?
सांसारिक दृष्टि से उनका यह प्रश्न उचित भी प्रतीत होता है। ठीक वैसे ही, जैसे हम बाजार में कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो उसकी भली-भांति जांच-पड़ताल करते हैं कि वस्तु वह कार्य ठीक प्रकार से करेगी या नहीं जिस कार्य के लिए हम इसे क्रय कर रहे हैं। अथवा अस्वस्थ होने पर जब हम किसी चिकित्सक के पास जाते हैं, तब भी हमारे मन में यही प्रश्न होता है कि हम कितने समय में पुन: स्वस्थ हो जाएंगे। हम उसी चिकित्सक या औषधि को श्रेष्ठ मानते हैं, जो हमें तत्काल लाभ देती है।
व्यावसायिक व सांसारिक दोनों ही दृष्टिकोण से यह सर्वथा उचित मनोभाव हैं। किंतु जब विषय धर्म, ईश्वर, श्रद्धा और विश्वास संबंधी होता है तब ये बातें अनुचित होती हैं। हमें इन क्षेत्रों में व्यावसायिक व चिकित्सकीय दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए। हमें तो कृषक की भांति भावदशा रखनी चाहिए।
जिस प्रकार एक कृषक पहले भूमि तैयार करता है, फिर उसमें बीज डालता है, उस बीज की खाद-पानी डालकर देखभाल करता है किंतु यह सब करने मात्र से ही वह फल पाने का अधिकारी नहीं हो जाता। इन सबके अतिरिक्त वह एक महत्वपूर्ण कार्य करता है, जो उसके बीज अंकुरण का कारण बनता है, वह है पूर्ण श्रद्धा और धैर्य के साथ प्रार्थना व प्रतीक्षा। प्रतीक्षा कैसी, धैर्य कैसा! जो श्रद्धा और विश्वास से परिपूर्ण हो।
ईश्वर आपका दास नहीं है, जो आपके द्वारा की गई किसी विशेष पूजा या उपाय के अधीन होकर आपको आपका अभीष्ट देने के लिए बाध्य हो। ईश्वर तो सदा-सर्वदा बिना किसी कारण के कृपा करता है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में परमात्मा का नाम एक 'अहैतु' भी है। 'अहैतु' का अर्थ है बिना किसी हेतु के अर्थात अकारण जो कृपा करता है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब ईश्वर बिना किसी कारण के ही कृपा करता है तब इन पूजा-पाठ विधानों और उपायों से क्या प्रायोजन?
मेरे देखे नि:संदेह ईश्वर कृपा तो बिना किसी कारण के ही करता है किंतु उस कृपा को आप तक पहुंचाने के लिए उसे भी एक निमित्त की आवश्यकता होती है। क्या भगवान कृष्ण कौरवों की इच्छा-मृत्यु के वरदान प्राप्त योद्धाओं से सजी चतुरंगिणी सेना को अपनी भृकुटि-विलास मात्र से पराजित नहीं कर सकते थे? किंतु उन्होंने अपने इस कार्य के लिए अर्जुन को निमित्त बनाया। पूरी गीता का यही संदेश है- निमित्त हो जाना, साक्षी हो जाना,कर्ताभाव का त्याग कर देना।
केवल कुछ उपायों या पूजा-विधानों को कर लेने मात्र से आप शुभ फल प्राप्ति के अधिकारी नहीं हो जाते। शुभ फल की प्राप्ति के लिए तो सतत शुद्ध मन से प्रार्थना की आवश्यकता होती है। जब ये प्रार्थनाएं ईश्वर तक पहुंचती हैं, तो वे स्वयं आपकी सहायता करते हैं। अब इस सहायता को आप तक पहुंचाने के लिए वे किसी ज्योतिषी को अपना निमित्त बनाएं या फिर उस ज्योतिषी के बताए किसी पूजा-विधान या उपाय को, यह सब उनकी इच्छा पर निर्भर है। मैं अपने कुछ वर्षों के अनुभव के आधार पर इस अनुभूत सत्य को आपसे कहता हूं कि इन पूजा-विधानों व उपायों को पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करने पर सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते ही हैं।
नोट : इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है