राजयोग का नाम सुनते ही लोगों के में मस्तिष्क में किसी बड़े पद का ख़्याल आ जाता है। वे सोचने लगते हैं कि राजयोग यदि जन्मपत्रिका में है तो वे निश्चित ही कोई बड़े राजनेता, उद्योगपति या नौकरशाह बनेंगे। उन्हें अकूत धन-सम्पदा और सामाजिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी। लेकिन वास्तव में यह ज्योतिषीय राजयोग के मानक नहीं है। मेरी ज्योतिषीय राजयोग परिकल्पना में राजयोग का अर्थ है वह जीवन जिसमें किसी भी प्रकार की असंतुष्टि ना हो, वह व्यक्ति जो अपने आप में पूर्ण संतुष्ट व आनन्दित हो जैसे बुद्ध, महावीर।
ऐसा राजयोग बहुत कम फ़लित होता है। बुद्ध और महावीर राजपुत्र थे। बुद्ध की जन्मपत्रिका में राजयोग था लेकिन बुद्ध का राजयोग बड़े दूसरे प्रकार से फ़लित हुआ। सांसारिक अर्थों में तो बुद्ध भिक्षु थे लेकिन ऐसे अप्रतिम भिक्षु जिनके आगे सम्राट अपने मस्तक झुकाते थे। सामान्य जनमानस की राजयोग की परिभाषा अलग होती है लेकिन ज्योतिषीय राजयोग की बिल्कुल अलग।
किसी राजयोग का फ़लित कहने से पूर्व एक ज्योतिषी के लिए जातक की जन्मपत्रिका के अन्य बुरे व अशुभ योगों का आनुपातिक अध्ययन करना आवश्यक है। केवल एक राजयोग का जन्मपत्रिका में सृजन हो जाने मात्र से जीवन सानन्द व्यतीत होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता जब तक कि जन्मपत्रिका के अन्य विविध योगों का अध्ययन ना कर लिया जाए। ज्योतिष शास्त्र में कई प्रकार के राजयोगों का वर्णन हैं। आइए कुछ प्रमुख राजयोगों के बारे में जानते हैं-
विपरीत राजयोग-
"रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो,रिपुपतौ रन्ध्रव्यये वा स्थिते।
जब छठे,आठवें,बारहवें घरों के स्वामी छठे,आठवे,बारहवें भाव में हो अथवा इन भावों में अपनी राशि में स्थित हों और ये ग्रह केवल परस्पर ही युत व दृष्ट हो, किसी शुभ ग्रह व शुभ भावों के स्वामी से युत अथवा दृष्ट ना हों तो 'विपरीत राजयोग' का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,यशस्वी व उच्च पदाधिकारी होता है।
नीचभंग राजयोग-
जन्म कुण्डली में जो ग्रह नीच राशि में स्थित है उस नीच राशि का स्वामी अथवा उस राशि का स्वामी जिसमें वह नीच ग्रह उच्च का होता है, यदि लग्न से अथवा चन्द्र से केन्द्र में स्थित हो तो 'नीचभंग राजयोग' का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य राजाधिपति व धनवान होता है।
अन्य राजयोग-
1- जब तीन या तीन से अधिक ग्रह अपनी उच्च राशि या स्वराशि में होते हुए केन्द्र में स्थित हों।
2- जब कोई ग्रह नीच राशि में स्थित होकर वक्री और शुभ स्थान में स्थित हो।
3- तीन या चार ग्रहों को दिग्बल प्राप्त हो।
4- चन्द्र केन्द्र में स्थित हो और गुरु की उस पर दृष्टि हो।