लंबे समय तक अब्बू की राह तकती अम्मी ने अपनी शामें बैठक में अकेले काटीं। अब्बू अपनी शामें ब्रिज क्लब पर बिताते। वहाँ से कहीं और निकल जाते, फिर इतनी देर से लौटते कि तब तक इंतज़ार करती अम्मी थककर सोने जा चुकी होतीं। रात के खाने को मेरे और अम्मी के आमने-सामने बैठ चुकने के बाद (तब तक अब्बू का फोन आ चुका होता। ‘मैं कहीं फँसा हुआ हूँ,’ उनका जवाब होता, ‘लौटने में देरी होगी, तुम लोग खाना-वाना कर लो’) अम्मी टेबल पर अपने पत्ते सजातीं और अपना भविष्य पढतीं। एक वक्त में एक, महत्व के अनुरुप आजू-बाजू लगाते हुए उन बावन पत्तों के हर पत्ते को जिस तरह वह फेरतीं, उसमें पत्तों के पीछे छिपे राज़ को खोलने की उसकी कोई भारी इच्छा न दिखती और न ही पत्तों के एक खास संयोजन के उस खेल में उसे कोई मज़ा मिलता, जिसमें लोग भविष्य की अपनी लुभावनी तस्वीरें निकाला करते थे। उसके लिये तो यह बस एक खेल था। बैठक में पहुँचने के बाद जब मैं उससे सवाल करता कि आज अपनी किस्मत पढ ली या नहीं तो उसका हमेशा यही जवाब होता:
‘मैं यह अपनी किस्मत पढने के लिये नहीं कर रही हूँ डार्लिंग। ये सब वक्त काटने के लिये है। क्या टाइम हुआ..... एक बार और आजमाती हूँ, फिर सोने जाऊँगी।’
इतना कहकर वह हमारे काले-सफेद टेलीविजन (तुर्की में उन दिनों वह एक नई चीज़ था) पर चल रही पुरानी फिल्म या गुजरे ज़माने में रमजान कैसे मनता था, का कोई चैट शो (तब सरकारी नज़रिया बताने वाला बस एक चैनल हुआ करता था) पर एक नज़र मारतीं और कहतीं, ‘मैं ये सब नहीं देख रही, चाहो तो बंद कर दो।’ पर्दे पर जो कुछ भी चल रहा होता - कोई फुटबॉल मैच, या अपने बचपन की गलियों की काली-सफेद तस्वीरें - उसे देखता मैं कुछ वक्त गुजारता। शो से ज्यादा मेरी अपने कमरे और अपनी अंदरूनी उथल-पुथल से छुटकारा पाने में दिलचस्पी होती और बैठक में बने रहने के दरमियान वही करता, जो रोज़ रात का नियम था, अम्मी से बातें करता कुछ समय बिताता।
ऐसी कुछ बतकहियाँ कड़वी बहसों में बदल जातीं। मैं भागा-भागा अपने कमरे में लौटता और दरवाज़ा बंद करके किताबों और अपराध-बोध में सुबह तक डूबा रहता। कई दफा अम्मी से जिरह के बाद मैं इस्तांबुल की ठंडी रातों में बाहर निकल जाता और तकसिम और बेयोलू के गिर्द, भीतर की अँधेरी और झमेलों से भरी गलियों में सिगरेट-पर-सिगरेट धूँकता तब तक भटकता रहता, जब तक कि सर्द हवायें मेरी हड्डियाँ न कँपाने लगतीं, और फिर अम्मी समेत शहर के हर शख्स के सोने जा चुकने के बाद ही मैं घर लौटता। सुबह के चार बजे सोने को जाना और दोपहर तक सोये रहने की मेरी कुछ आदत-सी बन गई। आगे के बीस वर्षों तक मैं यही आदत जीता रहा।
उन दिनों कभी खुलकर तो कभी बिना नाम लिये अम्मी और मेरे बीच जिस चीज़ पर अक्सरहाँ जिरह हुआ करती- वह था मेरा अनिश्चित भविष्य, क्योंकि 1972 की सर्दियों में, आर्किटेक्चर फैकल्टी के अपने दूसरे साल के दरमियान मैंने अपनी क्लासें अटेंड करना लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया था। क्लास रजिस्टर में मेरी अनुपस्थिति मेरे कॉलेज से निष्कासन का सबब न बने, से ज्यादा मैं शायद ही कभी तसकिसला आर्किटेक्चर फैकल्टी में कदम रखता।
कभी घबराहट में मैं खुद को तसल्ली देता कि, ‘आर्किटेक्ट न भी बना, तो कम-से-कम यूनिवर्सिटी का एक डिप्लोमा तो मेरे पास होगा।’ जिन चंद लोगों का मुझ पर थोड़ा असर था, उनमें मेरे अब्बू और उनके कुछ दोस्त भी यह बात काफी दुहराते। यह सब सुनकर अम्मी की नज़रों में मेरी कहानी और संदेहास्पद होती। मैंने पेंटिंग से अपनी मुहब्बत को मरते देखा था। उससे जन्मे तक़लीफदेह खालीपन को जिया था। इसलिये भी मन के गहरे इस बात को बखूबी जान रहा था कि आर्किटेक्ट होना मेरे बूते की बात नहीं। साथ ही यह भी समझता था कि सुबह तक किताबें और उपन्यास पढते हुए और तकसिम, बेयोलू और बेसितास की गलियों में रात-रात भर भटकता मैं पूरी जिंदगी नहीं गुजार सकता। कभी मैं दहशतज़दा एकदम से टेबल से उठ खडा होता कि अम्मी को अपनी हकीक़त से रु-ब-रु करवा दूँ। चूँकि मुझे इसका अंदाज़ न लगता कि मैं यह क्यों कर रहा था और इसका तो और भी कम कि मैं उसके आगे क्या कबुलवाना चाहता था, कई मर्तबा लगता जैसे आँखों पर पट्टी चढाये हम एक-दूसरे से भिड़े हुए हैं।
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‘मैं भी जब छोटी थी, तुम्हारी ही तरह थी,’ अम्मी कहती। (मैं बाद में तय करता कि वह यह सब मुझे चिढाने के लिये किया करती)। ‘तुम्हारी तरह मैं भी जिंदगी से भागती फिरती थी, जबकि तुम्हारी चाची-मौसियाँ सब यूनिवर्सिटी में दाखिल थीं, इंटेलेक्चुअल्स के बीच उठा-बैठा करतीं, मौज-मजा और नाच पार्टियों में जातीं और मैं तुम्हारी तरह घर में मुँह छिपाये पडी रहती और घंटों उजबकों की मानिंद, वह रिसाला जो तुम्हारे दादू जान को इतना पसंद था, इलस्ट्रेशन- उसे उलटा-पुलटा करती। मैं संकोची थी, जिंदगी से खौफ़ होता था मुझे।’
उसके मुँह से यह सुनकर मैं समझ जाता उसका मतलब है- ‘तुम्हारी तरह’, और मेरे भीतर गुस्सा उबलना शुरू हो जाता। मैं यह सोचकर खुद को शांत करने की कोशिश करता कि वह यह सब ‘मेरे भले के लिये’ कर रही हैं। मगर अम्मी वही ज़ाहिर करती होती, जो तुर्की में गहरे धँसी, बडे पैमाने पर समर्थित एक सामाजिक धारणा थी। और मेरी खुद की अम्मी भी वैसा ही सोचती हैं, सोचकर मेरा दिल तार-तार हो जाता।
इसे मैंने अपनी अम्मी से नहीं, जो यूँ भी कभी खुले तौर पर इसका इज़हार नहीं करती थीं, बल्कि इस्तांबुल के आलसी बुर्जुआजी और वैसी ही सोच रखने वाले अखबारी स्तंभकारों से जाना था, जो अपने पिटे, महानिराशावाद के क्षणों में यह नतीजा निकालते थकते नहीं थे कि, ‘इस तरह की जगह से कुछ भी अच्छा नहीं निकल सकता।’
ऐसी सोच ने लंबे अर्से से इस शहर की इच्छाशक्ति को तोड़कर रखा हुआ है। वही अवसाद इस निराशावाद के खाद का काम करती है। मगर यह अवसाद अगर बरबादी और गरीबी की देन है तो फिर शहर के अमीरों ने आखिर इसे गले क्यों लगा रखा है? शायद इसीलिए कि उनका अमीर होना भी महज एक संयोग है। फिर शायद इसलिए भी कि जिस पश्चिमी सभ्यता की नकल का वह सपना देखते हैं, उसके मुकाबले खड़ी होने लायक एक भी शानदार चीज़ उन्होंने पैदा नहीं की है।
अम्मी के पास अलबत्ता उसके इन चेतावनियों भरी मध्यवर्गीय चख-चख का कुछ आधार था, जो वह ताजिंदगी दोहराती रहीं। शादी के ठीक बाद, मेरे व मेरे भाई की पैदाइश के पश्चात, अब्बू ने निर्ममता से उसका दिल तोड़ना शुरू किया। उनकी लंबी अनुपस्थियाँ और शादी के वक्त उसे जिसका दूर-दूर तक अंदाज़ न था- परिवार में धीमे-धीमे घर कर रही तंगी। मुझे हमेशा लगता कि इन बदकिस्मतियों ने उसे मजबूर कर दिया था कि लंबे समय तक समाज के आगे वह एक सुरक्षात्मक रूख बनाये रहती। हमारे बचपन के वर्षों में, जब कभी वह मुझे और मेरे भाई को लिये बेयोलू खरीदारी को जाया करती, और सिनेमा या पार्क जैसी जगहों में मर्दों को अपनी ओर देखने पर उसका ध्यान जाता, उसकी सतर्क मुद्रा से अंदाज़ होता कि परिवार से बाहर किसी भी मर्द के साथ वह किस हद तक सावधानी बरता करती थी। अगर मैं और मेरा भाई सड़क पर किसी बात को लेकर जिरह करने लगते तो मैं देखता, अपने गुस्से व तकलीफ़ के बावजूद, किस कदर वह हमारे बचाव को बेचैन हो जाया करती।
यह माँग बहुत हद तक पारंपरिक नैतिकता से जुडी थी- विनम्र होने का महत्व, जितना पास में है, उसे स्वीकारते हुए सुखी रहना, और सूफी वैराग्य का पालन, जिसका असर हमारे पूरे कल्चर पर छूटा पड़ा था। लेकिन इस नज़रिये से उसे यह बात किसी तरह समझ न आती कि कोई अचानक कॉलेज क्यों छोड़ना चाहता है। उसके ख्याल में अपने महत्व की खामख़याली में, अपनी नैतिक व बौद्धिक कामनाओं को इतनी गंभीरता से लेकर मैं गलती कर रहा था। ज्यादा अच्छा होता, यदि मैं अपना सारा जोश ईमानदारी, सदाचार, कर्तव्य-परायणता दूसरों जैसा बनने पर खर्च करता। अम्मी की बातों में ऐसे इशारे होते मानो आर्ट, पेंटिंग, क्रिएटिविटी- यह सब ऐसी चीज़ें थीं, जिन्हें संजीदगी से लेने का हक़ सिर्फ यूरोपियन लोगों को था। बीसवीं सदी के उर्तरार्द्ध में इस्तांबुल में रह रहे हमारे जैसे लोगों को नहीं, जो गर्दन तक गरीबी में धँसे हुए एक ऐसी कल्चर में जी रहे हैं, जिसने अपनी ताक़त, इच्छाशक्ति और अपनी भूख को खो दिया है।
उन शामों को जब अम्मी अब्बू का इंतज़ार करती होती, और मैं अपने कमरे से निकलकर उससे बहस करने आता, मैं जानता होता कि मेरी भूमिका इस्तांबुल के नाम पर पेश होने वाले बदहाल, मामूली, उदास जीवन के प्रति विरोध की होगी। ‘तुमने पहले भी क्लासों की गुल्टी मारी है,’ अपने पत्तों को जल्दी-जल्दी फेंटते हुए अम्मी कहती, ‘तुम कहते, मैं बीमार हूँ, मेरा पेट दुख रहा है- जब हम चिहाँगिर में थे, तब तुमने इसकी आदत-सी डाल ली थी। तो एक दिन जब तुमने कहा- मैं बीमार हूँ, मैं स्कूल नहीं जाऊँगा, तो मैं तुम पर चीखी थी, तुम्हें याद है? मैंने कहा था- तुम बीमार हो या नहीं, तुम अभी यहाँ से निकलोगे और सीधे स्कूल जाओगे। मैं तुम्हें घर के अंदर नहीं देखना चाहती। उस सुबह के बाद मैंने तुमसे फिर नहीं सुना कि- मैं बीमार हूँ, मैं स्कूल नहीं जा रहा।’
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तो मैं अभी कह रहा हूँ!’ मैं दुस्साहसी होकर जवाब देता, ‘आर्किटेक्चर फैकल्टी में मैं दुबारा पैर रखने वाला नहीं।’
‘फिर क्या करोगे? मेरी तरह घर में बैठोगे?’
धीमे कहीं मेरे अंदर यह जिद उठती कि इस जिरह को खींचकर इसकी हदों तक ले जाया जाये। फिर दरवाज़ा पीटकर किसी लंबी, तन्हा सैर को निकल जाएँ- बेयोलू के पिछवाड़े की गलियों में थोड़ा नशे में, थोड़ा वहशी बने सिगरेटें धूँकते रहें और हर किसी और हर चीज़ से नफ़रत करें। उन वर्षों मेरा टहलना घंटों चलता। और कभी ढेर सारी घुमाई कर चुकने के बाद- दुकानों के शीशे, रेस्तराँ, अध-रोशन कहवाघर, पुल, सिनेमाहॉल, विज्ञापन, लिखावटें, गंदगी, कीचड़, फुटपाथ पर इकट्ठा गाढे़ पानी के जमाव में बरसात की बूँदों का गिरना, नियॉन बत्तियाँ, कारों के हेडलाईट्स, कूड़ेदानी को ऊपर-नीचे खँगालते कुत्तों की टोली देखते हुए एक दूसरी इच्छा मेरे अंदर उमड़ती कि घर जाऊँ और इन सारी तस्वीरों को लफ्जों में भरूँ, सही शब्द खोजूँ जो इस गाढी रूह, इस थके, इस रहस्यमय जंजाल को ज़ाहिर कर सके। यह आग्रह कुछ वैसा ही दुर्दमनीय हुआ करता, जैसे पुराने दिनों की एकदम-से पेंट करने की बेचैनी, लेकिन तब मुझे मालूम न होता मैं इस इच्छा का क्या करूँ।‘ये क्या लिफ्ट की आवाज़ है?’ अम्मी ने कहा। हम दोनों सुनने के लिए ठहर गए, मगर ऐसा कुछ सुनाई न पड़ा। अब्बू ऊपर नहीं आ रहे थे। चार महीने पहले, एक लंबी खोज-पड़ताल के बाद अम्मी ने मेचिदियेकॉय में उस ठिकाने को खोज निकाला था, जहाँ अब्बू अपनी माशूका से मिला करते थे। केयर टेकर से होशियारी से चाभी लेकर वह खाली मकान के अंदर उस दृश्य का सामना करने गई, जिसका बाद में निर्ममता से वह मेरे आगे बयान करने वाली थी। अब्बू, जिसे घर में पहना करते थे, उन पजामों का एक जोड़ा इस दूसरे बेडरूम के एक तकिये पर सजा पड़ा था, और बिस्तर से लगी मेज़ पर ब्रिज-संबंधी किताबों की एक मीनार सजी थी, कुछ वैसी ही जैसी घर में बिस्तर के बाजू के अपने हिस्से में उन्होंने बना रखी थी।
अम्मी ने जो कुछ देखा था, काफी वक्त तक उसका किसी से जिक्र नहीं किया। यह तो महीनों बाद, ऐसी ही एक शाम जब वह अपने पेशेंस में मगन थी और मैं अपने कमरे से निकलकर उससे बात करने आया कि यकायक उसके मुँह से वह कहानी फूट पड़ी। हालाँकि मेरी परेशानी ताड़कर उसने अपना किस्सा छोटा कर लिया था। फिर भी, बाद में हर दफा जब मैं इसके बारे में सोचता- एक दूसरे मकान का ख़याल, जहाँ रोज़ मेरे अब्बू जाया करते थे- मेरे रोंगटे खड़े कर देता। इस भ्रांति ने ही मुझे यह अहसास दिया कि मेरा जीवन ही नहीं, मेरी आत्मा में भी कुछ है जो अपूर्ण है।
‘तुम्हें अपनी यूनिवर्सिटी की पढाई खत्म करने का आखिर कोई तो तरीका ढूँढना ही होगा,’ अम्मी ने अपने आगे नया खेल सजाते हुए कहा। ‘पेंटिंग के बूते तुम अपनी जिंदगी नहीं चला सकते। तुम्हें कोई नौकरी ढूँढनी होगी। वैसे भी हम लोग अब पहले की तरह अमीर नहीं रहे।’
’यह पेरिस नहीं है, यह समझ लो। यह इस्तांबुल है,’ अम्मी ने कहा, जैसे इस बात से उसे खुशी हो रही हो। ‘अगर तुम दुनिया के सबसे पहुँचे हुए कलाकार होते तो भी यहाँ कोई तुम्हारी रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। पूरी जिंदगी अकेले काटते। किसी के पल्ले कुछ न पड़ता कि पेंटिंग के पीछे तुमने इतना अच्छा भविष्य चौपट क्यों कर लिया। अगर हम भी समृद्ध समाज होते, जहाँ कला और पेंटिंग की इज्जत होती, तब मालूम नहीं, तब शायद और बात होती। मगर यूरोप में भी सब यही मानते हैं कि वैन गॉग और गोगें सनकी थे।’
यकीनन उसने अस्तित्ववादी साहित्य के बारे में वह सारी कहानियाँ सुन रखी थीं, जिसे पचास के दशक में मेरे अब्बू खूब दिलो-जाँ से पसंद करते थे। एक विश्वकोश जैसी डिक्शनरी हुआ करती थी, जिसके पन्ने अब पीले पड़ गए थे और जिल्द जीर्ण-शीर्ण हो चली थी। तथ्यों की जाँच के लिए वह मेरी अम्मी की सबसे बडी कुँजी थी। ज्ञान के उस खास रिवाज़ का जवाब मैंने इस व्यंग्यपूर्ण प्रत्युत्तर के साथ दिया: ‘तो तुम्हारी डिक्शनरी कहती है कि सारे कलाकार सनती होते हैं?’
‘मुझे कोई अंदाज़ नहीं, मेरे बच्चे। एक शख्स अगर बहुत प्रतिभाशाली, बहुत मेहनती है, और उसकी किस्मत भी अच्छी है, तब शायद यूरोप में वह मशहूर हो जाये। लेकिन तुर्की में तुम सिर्फ पागल हो सकते हो। प्लीज़, मेरी बातों को गलत मत समझो। ये सब मैं तुम्हें अभी इसलिए कह रही हूँ कि बाद में तुम्हें पछतावा न रहे।’
‘मैं नहीं चाहती कि लोग समझें कि तुम्हें साइकोलॉजिकल दिक्कतें हो रही हैं,’ अम्मी ने कहा। इसीलिए मैं अपने दोस्तों के बीच कहती नहीं फिरती कि तुम अपनी क्लासेस नहीं अटेंड कर रहे। वो ऐसे लोग नहीं, जो समझ सकें कि क्यों तुम्हारी हैसियत का लड़का पेंटिंग के पीछे यूनिवर्सिटी छोड़ रहा है। उन्हें लगेगा, तुम्हारा दिमाग़ चल गया है, पीठ पीछे तुम्हारा मज़ाक उडायेंगे।’
‘तुम्हें उनसे जो कहना है, कहो,’ मैंने कहा। ‘उनकी तरह नमूना न बनने की खातिर तो मैं कुछ भी छोड़ दूँ।’
‘तुम ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहे,’ अम्मी ने कहा। ‘आखिर में तुम वही करोगे, जो छुटपन में करते थे- अपना बस्ता उठाओगे और बड़बड़ाते हुए स्कूल जाओगे।’
’मैं आर्किटेक्ट बनना नहीं चाहता- मुझे पक्का मालूम है।’
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’दो साल और पढ़ लो मेरे बेटे, यूनिवर्सिटी का डिप्लोमा हासिल कर लो। फिर उसके बाद तय करते रहना कि तुम्हें आर्किटेक्ट बनना है या पेंटर।’
‘नहीं।’
’तुम बहुत अभिमानी हो, मेरे बच्चे,’ अम्मी ने कहा। लेकिन तुम्हारी यह चीज़ मुझे पसंद है। क्योंकि जिंदगी में जो ज़रूरी है, वह कला-फला की बकवास नहीं, स्वाभिमान है। यूरोप में बहुत लोग हैं, जो कलाकार बनते हैं क्योंकि वे अभिमानी और ईमानदार हैं। क्योंकि वहाँ कलाकार को बनिया और जेबकतरा नहीं समझा जाता। कलाकारों से लोग ऐसे पेश आते हैं, मानो वे खास हों। लेकिन तुम बताओ, इस तरह के मुल्क में तुम कलाकार बनोगे और तुम्हारा स्वाभिमान फिर भी अक्षुण्ण बना रहेगा? जिन्हें कला की कोई तमीज़ नहीं, ऐसे लोग तुम्हें मंजूरी दें, तुम्हारी कला खरीदें, इसके लिए तुम्हें हुकूमत, अमीरों और सबसे गए-गुज़रे, अधपढे ख़बरनवीसों के आगे नाक घिसनी होगी। तुम समझते हो तुमसे यह सब होगा?’ मेरे उन्माद ने मुझमें एक ऐसी मदहोश-सी करने वाली ऊर्जा भर दी कि मैं अपने आपे से बाहर निकल आया। मैंने एक अद्भुत महत्वाकांक्षा का अहसास किया, इतनी विराट कि खुद मुझको हैरानी हुई- कि घर छोड़ दूँ और बाहर गलियों में निकल भागूँ।
‘फ्लॉबेयर को देखो, सारी जिंदगी वह उसी मकान में रहा, जहाँ उसकी माँ रहती थी।’ अपने नये पत्तों को गौर से जाँचते हुए, थोड़ी दया व थोड़ी कातरता से अम्मी ने बात आगे बढ़ाई। ‘लेकिन मैं नहीं चाहती कि तुम अपना सारा जीवन इसी मकान में मेरे साथ पड़े-पड़े बिताओ। वह फ्राँस था। जब लोग कहते हैं कि देखो, महान कलाकार जा रहा है तो वहाँ पानी भी बहना बंद कर देता है। जबकि यहाँ कोई पेंटर स्कूल छोड़कर अगर अपनी माँ की संगत में जिंदगी काटे तो या तो वह दारूबाज हो जायेगा या फिर उसका अंत पागलखाने में होगा।’ और फिर एक नया तुरुप: ‘तुम्हारा अगर एक पेशा होता, तब यकीन मानो, तुम्हें अपनी पेंटिंग से सचमुच खुशी मिलती।’
‘अगर तुम आर्किटेक्ट न बने या कमाई का कोई और ज़रिया नहीं खोजा तो उन कंगाल, विक्षिप्त तुर्की कलाकारों जैसे हो जाओगे, जिनके पास अमीरों व ताक़तमंदों की दया पर आश्रित होने से अलग और कोई चारा नहीं बचता- भेजे में घुसती है बात? ज़रूर घुसेगी। इस मुल्क में महज़ पेंटिंग के बूते किसी का गुज़ारा नहीं चल सकता। तुम दयनीय हो जाओगे, लोग नीची नज़रों से देखेंगे। ग्रंथियाँ, बेचैनी और कुढ़न मरने के दिन तक तुम्हारा पीछा न छोड़ेंगी। तुम्हारे जैसा ज़हीन, इतना प्यारा और जिस तरह जिंदगी से तुम लबालब भरे रहते हो- वाक़ई तुम इस तरह की चीज़ करना चाहते हो?’
जिन लोगों को तुमने अभी-अभी चिडी दिमाग कहकर खारिज़ किया, एक दिन उन्हीं लोगों को तुम्हें अपनी तस्वीरें बेचनी होंगी। ऐसे गरीब मुल्क में, जहाँ हर तरफ कमज़ोर, हारे हुए और अधपढ़े लोग भरे पड़े हैं, वहाँ लोग आपको कुचलें नहीं और आपको ऊँचा जीवन मिले, आप इज्जत से अपना सिर उठाकर चल सकें, इसके लिए आपको अमीर बनना पड़ेगा। इसलिए आर्किटेक्चर मत छोड़ो, मेरे बेटे। ऐसा करके बाद में बहुत दुख उठाओगे। ले’काबुर्जिये को ही देखो। वह पेंटर होना चाहता था, लेकिन उसने आर्किटेक्चर की पढाई की।’
बेयोलू की सड़कें, उनके अँधेरे कोने, भाग निकलने की मेरी ख्वाहिश, मेरा अपराध- सब जलती-बुझती नियॉन बत्तियों की तरह मेरे माथे में झिलमिला रहे थे। मैं जानता था, आज की रात अम्मी और मेरे दरमियान झगड़ा नहीं होगा। कुछ मिनटों में मैं दरवाज़ा खोलूँगा और शहर की सुकूनदेह सड़कों पर भाग निकलूँगा। आधी रात तक भटकने के बाद घर लौटूँगा और अपनी मेज़ के आगे बैठूँगा और कागज़ पर उस पूरे गणित को कैद करूँगा।
‘मैं कलाकार नहीं होना चाहता,’ मैंने कहा। ‘मैं एक लेखक बनूँगा।’
(साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले तुर्की के लेखक ओरहान पामुक की संस्मरणात्मक आत्मकथा ‘इस्तांबुल’ के आखिरी अध्याय से साभार)