जैसे बेलबॉटम, पेंट और कान पर बालों का चलन फिर आ जाए, जैसे कोई गुमनाम पुराना सुपरस्टार फिर हिट दे दे, जैसे कोई स्लमडॉग वास्तव में करो़ड़पति बन जाए, जैसे किसी अर्द्ध सेलिब्रिटी की माँ को बिग बॉस का बुलावा आ जाए, कुछ वैसा ही हो रहा है सच्ची-मुच्ची में।
वैसे कहा भी गया है कि घुरे के भी दिन बारह साल के बाद फिरते हैं। इन दिनों सादगी अचानक सुर्खियों में है। सादगी की टीआरपी उच्चतम स्तर पर जा पहुँची है। कल तक की अछूत सादगी की खासी पूछ-परख हो रही है। कल तक जिससे कन्नी काटते थे जिसके नाम से ही नाक-भौं सिको़ड़ते थे, आज वही सादगी ब़ड़े लोगों में उठ-बैठ रही है, उनकी आँख का तारा बन गई है। लगता है कि कोई अफवाह फैल गई है कि सादगी वोट दिलवा सकती है। वोट दिलवाने की कूबत अभी बाकी है सादगी में। जाने कहाँ से फैली है यह अफवाह, पर फैली अवश्य है। हिन्दुस्तान में हर वो चीज खास की श्रेणी में पहुँच जाती है, जो वोट दिलवा सके। कुछ ऐसा ही हुआ है बेचारी सादगी के साथ। अब सब पिल प़ड़े हैं सादगी पर। गले लगा रहे हैं, पुचकार रहे हैं... शायद कुछ वोट झर जाएँ उनकी झोली में!
सादगी करने की एक अजीब-सी हो़ड़ मची है इन दिनों। हर खास आदमी सादगी करना चाहता है। सादगी करने के लिए टूट पड़े रहे हैं दिग्गज। दिल में बस एक यही हसरत है कि कैसे भी कर लें सादगी। नेतागण आपस में पूछ रहे हैं- 'क्या आपने कर ली सादगी?' कोई जवाब देता है, 'हाँ, मैंने कर ली सादगी' तो झट से उसका अनुभव पूछने लगते हैं, 'कोई तकलीफ तो नहीं आई ना सादगी करने में? हम भी कर पाएँगे न सादगी सकुशल? ऐसा तो नहीं होगा ना कि सादगी करते-करते हमारी हवा बीच में ही निकल जाए?'
डर भी लग रहा है और करना भी चाह रहे हैं। दिल में बस एक ही जज्बा कि कुछ भी हो, पर करना ही है सादगी। भले ही एक बार करें पर कर लें जिससे तसल्ली हो जाए। सच कहें तो जान छूटे। बतला सकें कि भैया, कर ली हमने भी। सीना ठोककर कह सकें कि हम भी गए थे इकोनॉमी क्लास में। जब हाईकमान खुद कर रहा है सादगी, तब तो झक मारकर सभी को करना पड़ेगी सादगी। क्या करें, मजबूरी है! बच नहीं सकते बेट्टा। हाईकमान के तोकू बहुत सारे हैं। किसी ने बतला दिया कि नहीं करी तो फिर सीआर (गोपनीय पत्रावली) खराब हो जाएगी। फिर जूते घिसते रहना नगर से राजधानी तक। बायोडाटा में कॉलम के आगे बस लिखा जाए कि हाँ, कर ली थी सादगी। तब जाकर चैन पड़े।
पर याद रखना कि अकेली भी नहीं करनी है सादगी। जंगल में मोर नाचा तो किसने देखा भला! वैसे भी असली मजा सबके साथ आता है। इसलिए सबसे जरूरी यह है कि ढिंढोरा पीटना शुरू कर दीजिए कि फलाँ दिन सादगी करेंगे। बेहतर होगा कि सादगी करने का मुहूर्त किसी प्रकांड पंडित से निकलवा लें। मीडिया को खबर कर दीजिए। पूरा विवरण बतला दीजिए कि सादगी में क्या-क्या करने वाले हैं। जितना प्रचार-प्रसार हो सके, उतना अच्छा। गुड़ जितना डालोगे, हलवा उतना मीठा बनेगा ना। पूरा कवरेज करवाइए।
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ब्रेकिंग न्यूज आ जाए तो सोने में सुहागा। वैसे सादगी करना कोई सरल कार्य नहीं है। बच्चों का खेल नहीं है यह। बहुत कष्ट होता है सादगी में। अरे, आपको तो होता ही है केटल क्लास में सादगी करने से, दूसरों को ज्यादा होता है जिन्हें आपके कारण केटल क्लास में भी जगह नहीं मिल पाई। हर आम आदमी नहीं मनाता सादगी को धूमधाम से। सादगी तो खास आदमी पर ही फबती है। शर्ट जिसमें से बदन झलके, अगर वह आम आदमी पहने तो गरीब कहलाता है। वही केटवॉक करती मॉडल पहने तो फैशन में तब्दील हो जाता है और कोई हृदय सम्राट पहने तो सादगी हो जाती है।
कुछ भाई लोग खासे नाराज भी हैं सादगी करने से। ऊपर से कुछ कह नहीं पा रहे हैं, पर अंदर ही अंदर खदबदा रहे हैं, तप रहे हैं। भाई की नाराजी स्वाभाविक भी है। क्या इसी दिन के लिए नेता बने थे? भाई तो वैसे ही केटल क्लास के हैं। नेता बने थे तो सोचा कि छुटकारा मिल जाएगा, पर अब यह तो गले प़ड़ रही है! वे चिल्लाए, 'हमें नहीं करनी सादगी।' इस पर छुटभैये ने समझाया कि भाई, कर लो एकआध बार सादगी। कौन-सी रोज-रोज करनी है? धीरे-धीरे सब भूल जाएँगे सादगी करना। लगता है छुटभैया ठीक ही कह रहा है। नेताजी के ज्ञानचक्षु भड़ाक से खुल जाते हैं और वे धूमधाम से सादगी करने के लिए कमर कसने लग जाते हैं।