कभी सोचा नहीं था कि जो देवराज इंद्र सदियों से स्वर्ग में बैठे पुरानी-धुरानी हो चुकी अप्सराओं रंभा, उर्वशी, मेनका का कुचीपुड़ी या भरतनाट्यम देखकर अपना 'टेम' पास या फेल करते रहते हैं, भारत की एकता साबित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे। हुआ यूँ कि भारत भूमि पर इस बार 'देवराज इन्दर दी मेहर' कुछ ज्यादा ही हो गई। मौसम विभाग की मानें तो बंगाल की खाड़ी में कम दबाव का क्षेत्र बना और अरब सागर में अधिक दबाव का चक्रवात उठा, लिहाजा कश्मीर से कन्याकुमारी तरबतर होने लगा।
ये भी संभावना है कि इंद्र महाराज टोटी चालू करके फिर डांस वगैरह में मसरूफ हो गए हों और उन्होंने अपने जल कल विभाग के किसी कारिंदे को कह दिया हो कि 'फलाँ टेम' पे टोटी बंद कर देना, अब यह 'फलाँ टेम' जब आया होगा तो उस बाबू को कुछ जरूरी काम जैसे पी.एफ. से पैसा निकलवाना, सिक लीव सेंक्शन कराना, मकान लोन का फारम भरना या इनकम टैक्स दाखिल करने जैसे जरूरी काम आ गए होंगे और यह देवभूमि बाढ़ में डूबने-उतराने लगी। लेकिन उस बाबू की इसी 'बिजीनेस' से यहाँ व्हाया बाढ़ एकता से एक से एक मिसालें बड़े पैमाने पर नमूदार हुईं और फिर सिद्ध हुआ कि बंद हो गई रोडवेज बसों में ठीक ही लिखा रहता था, कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है।
जब बाढ़ आती है तो पानी भरता है, पानी भरता है तो मेंढक टर्राना शुरू करते हैं। बाढ़ के साथ ही पहले राजधानियों में मेंढक टर्राते हैं, फिर संभाग में, फिर जिले में और आखिरकार तहसील लेवल तक यह टर्राहट जोर पकड़ लेती है। प्रदेश की राजधानियों के ए.सी. कमरों के बाहर लाल बत्तियों वाली गाड़ियाँ रुकती हैं। उसमें से सूट-टाई पहने मांस के टुकड़े बाहर निकलते हैं और कैबिनों में समा जाते हैं। फिर वहाँ शोर होता है, बाढ़-बाढ़-बाढ़। लगभग यही प्रक्रिया फिर संभागों और जिलों में दोहराई जाती है।
लाल बत्तियों में सवार अफसरों की कारों और डाक बंगलों में बाढ़ शब्द घुस जाता है जो कैबिनेट सचिव से लेकर पटवारी तक एक-सा गुंजायमान होता है। बाढ़ यानी राहत, राहत यानी कम्बल, दवाई, खाना। कम्बल, दवाई, खाना यानी कमीशन, कमीशन यानी मोटी मलाई, लिहाजा हर बाढ़ के बाढ़ कैबिनेट सचिव से लेकर बारास्ता कमिश्नर, कलेक्टर, एस.डी.एम., तहसीलदार और पटवारी तक बदन पर मोटी मलाई की परत चढ़ जाती है। अफसर चाहे श्रीनगर के लाल चौक पर तैनात हो या बस्तर के झुरमुटों में- बाढ़ पीड़ितों से एक-सा पेश आता है। एक से कम्बल, एक से टाइगर बिस्किट, एक-सी क्रोसिन की गोलियाँ और क्या खाक एकता की मिसाल चाहिए आपको।
फिर बारी आती है नेताओं की, जिन्हें पता चलता है कि बाढ़ आ गई है, वोटर मकान की छत पर बैठा, हेलिकॉप्टर से टपकने वाली राहत सामग्री यानी कम्बल, दवाई और खाने का इंतजार कर रहा है। उसके इलाके के अफसरों के बदन पर मलाईदार परत (ओ.बी.सी. वाली नहीं) चढ़ गई है और उसे उसका वाजिब हिस्सा नहीं मिला है। लिहाजा विधानसभाओं, लोकसभाओं में प्रश्न उछाले जाते हैं। ये उछालें तब ही ठंडी होती है जब नेताओं की कोई कमेटी बना दी जाती है जो बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का हेलिकॉप्टरी दौरा करेगी और उसे राहत बाँटने के पावर उन अफसरों से ज्यादा होंगे जिनके बदन पर ऐसी ही राहतों की वजह से मलाईदार परत चढ़ गई है।
नेता भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक से होते हैं मुस्कराते, हाथ जोड़ते, मुस्टंडे, कुर्ता-पजामा पहने। उनकी बीवियाँ भी एक-सी होती हैं मोटी, ठस, जेवरों से लदी, मुफ्त के हेलिकॉप्टर में बैठने को ललचाती, उनके बच्चे भी एक से होते हैं थुलथुल, मंदबुद्धि, चॉकलेट खाते और कीटनाशक पीते। चूँकि नेताजी को देश से प्यार है और उनके तमाम रिश्तेदार और परिवार देश में ही रहते हैं इसलिए उन्हें रिश्तेदारों और परिवार से प्यार है। लिहाजा उनके भतीजे को मिलता है कम्बल का टेंडर, उनके भानजे को मिलता है रोटी बाँटने का ठेका और उनके सालों को, जो दवाई कंपनियों के मालिक हैं, दवाई वितरित करने के आदेश।
अब आप खुद ही सोचिए अगर बाढ़ नहीं आती, भले ही वो इंद्र के जलकल विभाग के बाबू के ही जरिए आई हो तो क्या इस भारतवर्ष में ऐसी राष्ट्रीय एकता दिखाई देती। कहीं भी चले जाओ पुणे से पिल्ल्या तक एक से बाढ़ पीड़ित भूखे, नंगे, गरीब, रोते-झींकते, एक से अफसर लालची, बेरहम, कमीशनखोर, एक से नेता भ्रष्ट, नाटकबाज और परिवार को तिरा देने वाले।
चारों तरफ बाढ़-बाढ़-बाढ़ या अफसर-अफसर-अफसर या नेता-नेता-नेता ऐसा मौका कई दसियों वर्ष में पुण्य फल के रूप में मिलता है। सो थैंक्यू बाढ़।