सच तो यह है कि कविता उनके खून में बसी हुई है। साधुरामजी के पिताजी बड़े सुधी श्रोता थे। शिवमंगलसिंह सुमन से लेकर देवराज दिनेश और ओमप्रकाश आदित्य से लेकर नीरज तक को रात-रातभर सुना करते थे। जैसा कि पहले हमारे यहाँ परंपरा रही है कि बचपन से ही पिता अपने बच्चों को संस्कारित भी करते थे, सो साधुरामजी को भी उनके पिताजी अपने साथ कवि सम्मेलनों में ले जाया करते थे। इसी तरह संस्कारों के डोज पीते-पीते उनमें काव्य-संस्कार भी आ गए।
स्कूल की गोष्ठियों में अपनी तुकबंदियाँ सुनाते-सुनाते कस्बे की समितियों में कविता की रसधार बरसाने लगे। आगे चलकर विवाह पत्रिकाओं से लेकर संचालक के रूप में भी उनकी प्रतिभा प्रदर्शित होने लगी।
पिछले दिनों जब वे हमारे घर आए तो ग्रीष्म ऋतु में जल संकट को लेकर काफी चिंतित नजर आए। वैसे भी वे ठहरे संवेदनशील कवि। रचनाओं में आम नागरिकों की परेशानी की अभिव्यक्ति होना स्वाभाविक है। कुछ रचनाएँ मुझे दिखाते हुए आशा व्यक्त की कि यदि कोई समाचार-पत्र या पत्रिका प्रतिदिन जल संकट पर उनकी कविताओं का प्रकाशन करे तो वे पूरी गर्मियों में अपनी कविताओं से पाठकों को तर करते रह सकते हैं। बहरहाल, कुछ का मुलाहिजा फरमाइए।
दफ्तरों में कामकाज करने वालों की व्यथा को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं-
'वे घर से जल्दी निकल जाते हैं और दफ्तर से कपड़े धोकर लाते हैं।'
ग्रीष्म ऋतु में दूध खरीद सकने वालों को लक्ष्य करते हुए वे अपनी कविता में लिखते हैं -
'इन दिनों भैया से अधिक दूध लाने को कह दिया है, इस तरह घर में जल संकट कुछ तो कम कर लिया है।'
जल समस्या से ग्रस्त एक शहर के नलघट के एक दृश्य का जीवंत चित्रण करते हुए साधुरामजी फरमाते हैं-
'जल समस्या से ग्रस्त एक शहर में बूँद-बूँद टपकते नल से एक घड़ा पानी भरा, तभी एक उचक्के ने पीतल के घड़े पर अपना ध्यान धरा, जैसे ही उसने पीतल के घड़े को झपटा घड़े के मालिक ने उसे डपटा, घड़ा भले ही ले जाना, पर पानी वापिस दे जाना।'
देश की प्रगति और भारतीय प्रतिभा को ध्यान में रखकर लिखी गई कविता में वे कुछ यूँ कहते हैं-
'पत्नी घर पर जल संकट से त्रस्त हैं प्रोफेसर प्रयोगशाला में व्यस्त हैं ऑक्सीजन-हाइड्रोजन मिला रहे हैं घर ले जाने के लिए ताजा पानी बना रहे हैं।'
काव्य-सृजन की इस पावन बेला में साधुरामजी ने अपने आँगन में एक कुइया खुदवाई, तो मैंने बधाई देते हुए कहा- ' जल संकट का ध्यान रखकर, कुइया खुदवाकर बड़ी दूरदृष्टि और सूझबूझ का परिचय दिया है आपने।'
लेकिन वे बजाए प्रसन्न होने के झुँझलाकर बोले, 'तुम्हें तो बस संकट ही नजर आता है। मैंने यह कुइया कोई पानी की कमी के कारण थोड़े ही खुदवाई है।'
'फिर भला क्यों खुदवाई है?'
मैंने अचरज से पूछा तो वे बोले- ' कुइया की जगत पर बैठकर काव्य-सृजन करने के लिए। साहित्य का श्रेष्ठ काव्य प्राचीनकाल से कुओं की जगत पर बैठकर ही लिखा गया है। देखो, कल ही मैंने यहाँ बैठकर यह कविता लिखी है।' और वे सुनाने लगे-
'हमने सीता को धरती में उतरते देखा है क्योंकि नगर पालिका का नल सतह से पाँच फुट नीचे ही चलता है।'
हमने देखा सचमुच साधुराइन पानी भरने के लिए किसी गड्ढे में उतर रही थीं और आँगन की कुइया में पानी की एक बूँद भी नहीं थी।
काव्य की मार्मिकता की वजह से मेरी आँखों से आँसू निकल पाए। मैंने तुरंत जेब से एक शीशी निकाली और उन्हें सहेज लिया। पता नहीं कब, चुल्लू भर पानी की आवश्यकता पड़ जाए।