देखो जी, जिगर में तो अब आग रही नहीं। लगता है उसने जगह छोड़ दी और उठकर ऊपर जुबाँ में आकर बैठ गई है। आखिर आग भी एक ही जगह कितने दिन रहती भला। वह तो वैसे भी फैलने वाली चीज है। पीछे राख छोड़ती जाती है और आगे बढ़ती जाती है। जिगर में भी अब राख तो मिल सकती है, आग नहीं। पर हम आपको ज्यादा निराश भी नहीं करना चाहते, इसलिए उम्मीद रखिए कि राख के ढेर में हो सकता है, कोई चिंगारी दबी पड़ी हो।
वैसे साहब, पहले जिगर में बड़ी आग होती थी। आजादी के लिए लड़ने वालों के जिगर में, देश भक्तों के जिगर में आग रहती थी। फिर जुल्मो-सितम से लड़ने वालों और भूख, गरीबी तथा बेकारी के खिलाफ लड़ने वालों के जिगर में भी खूब आग रहती थी। राजनीतिक-सामाजिक हर तरह के कार्यकर्ताओं के जिगर में आग हुआ करती थी।
कवियों के जिगर में भी खूब आग होती जिसकी लपटें कविताओं के जरिए अक्सर बाहर देखने को मिल जाती थी। और तो और शिक्षकों, डॉक्टरों और इंजीनियरों तक के जिगर में बड़ी आग हुआ करती थी। न होती तो डॉक्टर कोटनीस चीन के लड़ाकों की सेवा करने वहाँ क्यों पहुँच जाते? यहीं अपना नर्सिंग होम खोलकर बैठ जाते और जमकर पैसा पीटते।
पर अब जिगर में आग कहाँ रही। वो क्या कहते हैं, राख के ढेर में शोला है, न चिंगारी है। हालाँकि पिछले दिनों गुलजार साहब ने बताया कि जिगर में बड़ी आग है। इतनी कि बीड़ी भी जलाई जा सकती है। ऐसा नहीं है कि आग है ही नहीं। आग है तो सही। इसीलिए तो अक्सर धुँआ उठता रहता है। पर अब जिगर में नहीं, जुबाँ पर आ गई है। क्योंकि अब जुबाँ पर सचाई तो रहती नहीं।
पहले लोग गाते रहते थे कि होठों पर सचाई रहती है। अब तो बस आग ही रहती है। खुद लोग उगाही करते रहते हैं- कहीं सचाई मेरी जुबाँ पर न आ जाए। उधर दुनिया वाले भी कहते रहते हैं- सचाई को जुबाँ पर लाने की कोशिश मत करना। लेने के देने पड़ जाएँगे। सच से डरने वाले तो अक्सर धमकियाँ दिया करते हैं। सच को जुबाँ पर लाने की कोशिश भी मत करना। वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा। हारकर सचाई भी अपनी जगह छोड़ गई होगी। पर सचाई गई कहाँ, यह पता नहीं चल पाया।
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वैसे सचाई की तरह ही जुबाँ पर कभी मिठास भी बहुत रहती थी। कइयों की जुबाँ से तो बाकायदा रस टपकता था। उसमें बड़ी कर्णप्रियता होती थी। लोग सुनते रहते थे, फिर भी मन नहीं भरता था। कुछ लोगों के मुँह से फूल झरने के किस्से तो आपने सुने ही होंगे। वो फूल भी जुबाँ से ही झरते रहे होंगे। पर फूलों की जगह अब मनहूसियत ने और मिठास की जगह कड़वाहटने ले ली है। भैया, जब चीनी जैसी मीठी चीज में ही मिठास नहीं रही तो जुबाँ में कहाँ रह जाएगी । कड़वाहट के चलते अब वहाँ सिर्फ गालियाँ बची हैं।
खैर, जुबाँ पर अब आग चली आई है, यह करीब-करीब तय है। वैसे जब से सचाई जुबाँ छोड़कर गई है तब से जुबाँ पर और कई चीजों ने बस्ती बसा ली है। जैसे झूठ। वह और कहीं नहीं रहता, सिर्फ जुबाँ पर ही रहता है। जैसे चापलूसी, खुशामद, चमचागिरी वगैरह। क्योंकि ये सब चीजें दिल में नहीं रह सकती,इसलिए ये सभी जुबाँ पर ही रहती हैं।
कुछ लोगों की जुबान काफी लंबी होती है, इसलिए डींग वगैरह भी वहीं रहने लगती हैं। इधर आग भी जुबाँ पर रहने लगी है। अब आग तो जहाँ भी रहेगी, उसे जलाएगी ही न । सो उसने जुबाँ को भी जलाकर काला कर दिया है।
पौराणिक और पुराकालिक किस्सों में ऐसे राक्षसों का जिक्र आता है जिनके मुँह से आग निकला करती थी। जैसे एक ड्रैगन होता था। बाद में तो वह बस चीन का ही होकर रह गया। वैसे जुबाँ की आग जुबाँ पर ही रहती और ज्यादा से ज्यादा उसे जलाकर काला कर देती तो भी कोई बात नहीं थी। पर जुबाँ की आग अब सब तरफ फैलने लगी है। राजनीति में इसे खासतौर से देखा जा सकता है, जहाँ जुबाँ की आग एकता, भाईचारा, सद्भाव वगैरह सब जलाकर राख कर देती है।