बीआर चौपड़ा की महाभारत के 10 मई 2020 के सुबह और शाम के 87 और 88वें एपिसोड में बताया जाता है कि संजय से धृतराष्ट्र कहते हैं कि दुर्योधन ने बड़ी ही मूर्खता का प्रदर्शन किया है। उसने देवेंद्र की अचूक शक्ति को घटोत्कच पर चलवा दी। उसका प्रयोग तो वासुदेव या अर्जुन वध के लिए होना चाहिए था। संजय बताता है कि घटोत्कच के सामने स्वयं आचार्य द्रोण भी विवश थे।
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उधर, युद्ध में आचार्य द्रोण पांडव सेना का संहार करने लगते हैं। यह देखकर विराट नरेश द्रोणाचार्य की ओर अपना रथ बढ़ाते हैं। यह देखकर आचार्य द्रोण दिव्यास्त्र का आह्वान करते हैं। तब इंद्र वहां प्रकट होकर कहते हैं कि दिव्यास्त्र का प्रयोग आपको शोभा नहीं देता।
तब द्रोण कहते हैं क्यों? क्या इसलिए मैं अर्जुन की सेना के विरोध में युद्ध कर रहा हूं? फिर द्रोण इंद्र को खरी-खोटी सुनाते हैं। तब इंद्र कहते हैं कि मैं सभी देवता और ऋषि मुनियों का प्रतिनिधि बनकर आया हूं। दिव्यास्त्र केवल धर्म की रक्षा के लिए होते हैं। तब द्रोणाचार्य कहते हैं कि आपने ये कैसे जान लिया कि मैं धर्म के मार्ग पर नहीं हूं? हे देवेंद्र मैं धर्म के मार्ग पर हूं और जिनसे युद्ध कर रहा हूं वे अपने धर्म के मार्ग पर हैं।
द्रोण नहीं मानते हैं तो स्वयं ब्रह्मा प्रकट होकर कहते हैं कि आप तो ब्राह्मण हैं। दिव्यास्त्र का प्रयोग न करें। इससे ब्राह्मण मर्यादा का उल्लंघन होगा। तुम्हारा मार्ग विद्यादान का मार्ग है और तुम छत्रियों की भांति इस रक्त की नदी में कहां स्नान करने आ गए?
तब द्रोणाचार्य कहते हैं कि मेरे गुरु परशुराम ने 21 बार रक्त की नदी में स्नान किया था। जिसके हाथ में वेद है वही ब्राह्मण कहलाता है किंतु जो पोथी रखकर शस्त्र उठा ले वो क्षत्रिय कहलाता है। कौरव सेना का प्रधान सेनापति होने के नाते इस समय कौरव सेना और हस्तिनापुर की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। मुझे कर्तव्य पालन करने से न रोकें। तब ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि तुम भलीभांति जानते हो कि धृष्टद्युम्न ने जन्म क्यों लिया है। तब द्रोणाचार्य द्रुपद की कायरता, धोखे और अपनी गरीबी के बारे में बताते हैं। फिर वे पांडवों की विजय के बारे में बताते हैं। यह सुनकर ब्रह्मा वहां से चले जाते हैं।
तब विराट नरेश से द्रोणाचार्य का युद्ध होता है और विराट नरेश का वध हो जाता है। विराट वध के बाद द्रुपद नरेश द्रोण से टकराते हैं तो द्रोण उसका भी वध कर देते हैं। उधर, संजय से यह घटना सुनकर धृतराष्ट्र प्रसन्न हो जाते हैं।
द्रोण के पास दुर्योधन आकर कहते हैं कि मैं विराट नरेश और राजा द्रुपद के वध से संतुष्ट नहीं, मुझे पांडवों का वध चाहिए। द्रोण कहते हैं कि उनका वध सहज नहीं है दुर्योधन। तब दुर्योधन कहता है कि यदि यह सहज होता तो मैं आपसे कहता ही क्यों गुरुदेव? आपके पास तो दिव्यास्त्र हैं। आपसे तो देवलोक वाले भी युद्ध नहीं कर सकते। यदि उनका वध आपसे जागते हुए संभव नहीं तो उन्हें सोते हुए मार डालिए। यह सुनकर द्रोण कहते हैं कि मैं कपट संग्राम नहीं कर सकता दुर्योधन। यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि मेरे 98 भाई वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं और वे पांच पांडव अब तक जीवित हैं। आप तो उन्हें मारना ही नहीं चाहते गुरुदेव। तब द्रोण कहते हैं मैं योद्धा हूं दुर्योधन, यमराज नहीं। यह कहकर द्रोण वहां से चले जाते हैं।
द्रोणाचार्य युद्ध में कोहराम मचा देते हैं। वे पांडवों के सैनिकों का फिर से संहार करने लग जाते हैं। यह देखकर अर्जुन और श्रीकृष्ण चिंतित नजर आते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध के सारे नियमों का पालन करते हुए आज के युद्ध में आचार्य द्रोण को कोई पराजित नहीं कर सकता। अर्जुन कहते हैं कि ये आप क्या कह रहे हैं? तब श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जो धर्म का विरोध कर रहा है उसे किसी भी तरह से मार्ग से हटाना ही धर्म है। धर्म की विजय के लिए आचार्य की पराजय जरूरी है।
अर्जुन कहते हैं तो अब क्या कराना चाहते हो केशव? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक ही उपाय है पार्थ कि आचार्य द्रोण को ये विश्वास दिलाना पड़ेगा कि अश्वत्थामा वीरगति को प्राप्त हो गया है। यह शोक उनसे सहन नहीं हो पाएगा और वे धनुष रख देंगे। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि इस तरह से युद्ध नहीं जीतना चाहता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध जीतने या न जीतने वाले तुम कौन होते हो? अधर्म के विरुद्ध युद्ध करना तुम्हारा धर्म है तो तुम केवल अपना कर्म करो। अर्जुन कहता है, किंतु में असत्य का वाण नहीं चलाना जानता केशव। तब श्रीकृष्ण युधिष्ठिर की ओर देखकर कहते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर क्या आप भी धर्म का पक्ष नहीं लेंगे?
फिर श्रीकृष्ण भीम की ओर देखकर कहते हैं कि इस हाथी का नाम जानते हो भीम? भीम कहता है हां इसका नाम अश्वत्थामा है। भीम समझ जाते हैं और उस हाथी का वध करके युद्धभूमि में चीखते हैं कि मैंने अश्वत्थामा का वध कर दिया। वे हर्ष से सभी को बताते हैं कि मैंने अश्वत्थामा का वध कर दिया।
धर्मराज युधिष्ठिर से श्रीकृष्ण कहते हैं संभलकर रहियेगा बड़े भैया आचार्य द्रोण आपसे सत्य की पुष्टि करने आएंगे।
यह खबर आग की तरह फैल जाती है। भीम द्रोणाचार्य के पास जाकर हंसते हुए अपनी छाती ठोंककर कहते हैं कि मैंने अश्वत्थामा का वध कर दिया गुरुदेव मैंने। मैंने अश्वत्थामा का वध कर दिया। यह सुनकर द्रोणाचार्य कहते हैं सारथी से कि रथ युधिष्ठिर की ओर ले चलो।
द्रोणाचार्य अपना रथ लेकर युधिष्ठिर के सामने पहुंचकर जाते हैं। युधिष्ठिर उन्हें प्रणाम करते हैं। तब द्रोणाचार्य कहते हैं कि मुझे तुम्हारा प्रणाम नहीं चाहिए धर्मराज युधिष्ठिर, मुझे तुम्हारा सत्य चाहिए। तब द्रोणाचार्य आंखों में आंसू भरकर पूछते हैं कि क्या ये सत्य है कि मेरे पुत्र अश्वत्थामा का वध हो गया।
युधिष्ठिर श्रीकृष्ण की ओर देखते हैं। तब द्रोणाचार्य दुखी होकर कहते हैं, मेरे प्रश्न का उत्तर दो धर्मराज। मेरे प्रश्न का उत्तर दो।
तब युधिष्ठिर कहते हैं- अश्वत्थामा हतः इति नरो वा कुंजरो वा।
द्रोण ठीक सुन तो लेते हैं लेकिन ठीक से नहीं समझकर यह समझते हैं कि अश्वत्थामा मारा गया। यह सुनकर द्रोण दुखी हो जाते हैं तभी भीम कहते हैं। ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना होता है गुरुदेव। आप क्षत्रियों के क्षेत्र में कहा आ गए? भीम की यह बात सुनकर द्रोणाचार्य अपना धनुष रख देते हैं। तरकश के तीर निकालकर फेंक देते हैं और भीम से कहते हैं ये तुम्हारे गुरु के शस्त्र हैं कुंतीनंदन। कुचल डालो इन्हें रथ के पहिये से। किंतु मुझे अब भी विश्वास नहीं होता कि मेरा पुत्र तुम से पराजित हो गया होगा? परंतु धर्मराज युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलते हैं। इसलिए मैं अपने शस्त्रों को त्याग रहा हूं। और शिष्य भी पुत्र के समान होता है यदि तुम मेरे शिष्य नहीं रहे होते भीम, तो इस समय तुम्हारा शव मेरे सामने पड़ा होता। फिर वे ऐसा कहकर रथ से नीचे उतरकर भूमि पर आंख बंद करके बैठ जाते हैं।
सभी उन्हें देखते हैं। धृष्टद्युम्न भी देखता है। तब वह अपनी तलवार निकालकर हाथ में तलवार लेकर तेज कदमों से द्रोणाचार्य की ओर बढ़ता है और यह देखकर सभी स्तब्ध रह जाते हैं। वह द्रोणाचार्य के पास पहुंचकर उनकी गर्दन काट देता है। यह दृष्य देखकर अर्जुन चीखता है। नहीं, नहीं वासुदेव। ऐसा कहते हुए वह रथ से उतरकर द्रोणाचार्य की ओर भागता है। नकुल और सहदेव उन्हें रोक देते हैं। श्रीकृष्ण भी आकर अर्जुन को पकड़ लेते हैं। अर्जुन चीखते और रोते हुए कहते हैं मैं तुम्हारी इस कायरता के लिए तुम्हें क्षमा नहीं करूंगा धृष्टद्युम्न। तुम्हें क्षमा नहीं करूंगा। नहीं, वासुदेव इसने मेरे निहत्थे गुरु का वध किया है। धृष्टद्युम्न तुम कायर हो। कायर हो तुम। यह देख सुनकर युधिष्ठिर की नजरें भी झुक जाती हैं।
रात्रि में शिविर में अर्जुन तलवार उठाकर कहता हैं कि मैं धृष्टदुम्न को जीवित नहीं छोडूंगा वासुदेव। तभी वहां पांचाली अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ आ जाती है। पांचाली कहती है कि धृष्टद्युम्न ने कौनसा अपराध किया है वीर धनन्जय? मैं वही द्रौपदी हूं जिसका चीरहरण हुआ था और पांचों कौंतेय वीर पुत्र देखते रह गए थे। उस सभा में द्रोणाचार्य भी थे। वे ही द्रोणाचार्य तब भी चुप थे जब मेरा निहत्था और घायल पुत्र अभिमन्यु मारा गया।
दूसरी ओर, युद्ध भूमि में अश्वत्थामा अपने पिता का अंतिम संस्कार करते हैं। वहां पांचों पांडव पहुंचते हैं तो वह उन्हें क्रोध की दृष्टि से देखता है। उसके मस्तक पर मणि चमक रही होती है। वह पांचों पांडवों को रोककर कहता है कि कोई कायर मेरे पिता को अंतिम प्रणाम नहीं कर सकता। धर्मराज युधिष्ठिर तुमने जिसकी मृत्यु का समाचार मेरे पिता को दिया था। वो मैं हूं मैं। कायर कुंती पुत्रों मुझे ध्यान से देखो। मैं तुम्हें इस कायरता के लिए कभी क्षमा नहीं करूंगा। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम सब कायरों को मेरे पिता की हत्या का मूल्य चुकाना होगा। ऐसा कहकर वह चिता में आग लगा देता है। सभी पांडव वहां से चले जाते हैं।
फिर कर्ण के बाद पांचों पांडव भीष्म पितामह से मिलने जाते हैं। वहां अर्जुन कहता है ये सूतपुत्र कर्ण यहां क्यों आया था पितामह? इस पर श्रीकृष्ण भड़क जाते हैं और कहते हैं ये वीरों की भाषा नहीं है पार्थ। वे महान दानवीर कर्ण है। मैं उनकी माता को जानता हूं। नकुल पूछता है क्या आप उनकी माता को जानते हैं? तब श्रीकृष्ण बात बदल देते हैं।
फिर श्रीकृष्ण पितामह भीष्म को प्रणाम करते हैं और उन्हें उपदेश देते हैं और कहते हैं कि ये जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होगा उसके लिए खुद को उत्तरयादी न मानें। आपके मोक्ष पर आपका अधिकार है। तब पांचों पांडवों के झुके सिर को देखकर भीष्म पूछते हैं क्या बात हैं ये सिर क्यों झुके हैं?
तब युधिष्ठिर कहते हैं कि आज हमने घोर अपराध किया है। गुरुवर द्रोणाचार्य का वध मेरे एक झूठ ने किया है पितामह। यह सुनकर भीष्म दुखी हो जाते हैं। तब श्रीकृष्ण भीष्म को समझाते हैं कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। तब भीष्म कहते हैं कि हे वासुदेव तुम्हारे सामने कोई भीष्म या कोई द्रोण कब तक टिक सकता था? श्रीकृष्ण कहते हैं कि किंतु मैं तो वचनबद्ध हूं पितामह कि इस युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा।
उधर, कर्ण मिलने जाता है मद्र नरेश से और कहते हैं कि आज आप मेरे सारथी बनकर मुझे सम्मानित करने वाले हैं नरेश। तब नरेश कहते हैं कि अकेला सारथी क्या कर पाएगा। फिर मद्र नरेश कर्ण को बताते हैं कि अर्जुन कितना वीर है।
शाम के एपिसोड में अर्जुन के सामने कर्ण खड़ा होता है। सारथी शल्य कहते हैं कि अपने धनुष को कस के पकड़े रखना अंगराज कर्ण। ये अर्जुन के भय के कारण हाथों से छुटकर भाग भी सकता है। अर्जुन तो अर्जुन ही है ना अंगराज। महादेव की तो मैं कह नहीं सकता, किंतु और कोई अर्जुन के सामने टिक नहीं सकता। यह सुनकर कर्ण कहता है कि हे मद्र नरेश आप दुर्योधन के किए का दंड मुझे क्यों दे रहे हैं? मैंने तो आपसे कभी कोई छल नहीं किया। आप आज इस तरह की बात क्यों कर रहे हैं? तब शल्य कहते हैं कि सारथी का कर्तव्य है कि वह अपने रथी को अपने भले की समझाएं। अर्जुन के सारथी ने भी बीच रणभूमि में उसे समझाया था।
उधर, भीम और दु:शासन का युद्ध होता है। भीम को अपनी प्रतिज्ञा की याद आती है कि जब तक इस दुष्ट दु:शासन का वध करके इसकी छाती का लहू नहीं पी लूंगा अपने पूर्वजों को अपना मुंह नहीं दिखाऊंगा। भीम फिर दु:शासन से कहता है कि इतनी दूर खड़ा बाण क्या चला रहा है कायर। पास आकर लड़। यह सुनकर दु:शासन गदा लेकर उसके पास पहुंच जाता है। दोनों में गदा युद्ध होता है और अंतत: भीम दु:शासन का वध करके उसकी छाती फाड़ देता है।
संजय से यह खबर सुनकर धृतराष्ट्र अथाह शोक में डूब जाते हैं। दूसरी ओर भीम चीखता हुआ पांचाली के शिविर में पहुंचता है। पांचाली, पांचाली। यह पुकार सुनकर द्रौपदी अर्थात पांचाली अपने बिस्तर से उठरकर द्वार की ओर जाने लगती है तभी लहूलुहान भीम अंदर दाखिल होता है और उसके हाथ में दु:शासन का लहू होता है।
पांचाली भीम को आश्चर्य और हर्ष से देखती है। तब भीम कहते हैं कि लो पांचाली मैं तुम्हारे लिए दु:शासन की छाती का लहू लाया हूं। पांचाली भीम के हाथों से वह लहू लेकर अपने केश में लगाती है और प्रसन्न हो जाती है।
उधर, रणभूमि में दु:शासन के शव के पास कर्ण, दुर्योधन, शकुनि आदि एकत्रित होकर शोक मनाते हैं। तब क्रोधित होकर दुर्योधन कर्ण से कहता है, सेनापति मुझे पांडवों का शव चाहिए। आक्रमण करो। कर्ण में भी जोश आ जाता है। फिर कर्ण और अर्जुन का भयंकर युद्ध होता है। यह देखकर श्रीकृष्ण चिंतित हो जाते हैं कि कर्ण भयंकर अस्त्रों का प्रयोग कर रहा है। कर्ण अपने बाणों से अर्जुन को घायल कर देता हैं। अर्जुन का धनुष भी उसके हाथ से छूट जाता है। तभी कर्ण एक भयंकर बाण का संधान करता है लेकिन उसे आकाश में सूर्यास्त होते हुए नजर आता है और वह बाण चलाना रोक लेता है।
फिर शिविर में कुंती और गांधारी के बीच दु:ख का संवाद होता है। कुंती को ज्यादा चिंता होती है क्योंकि इस बार के युद्ध में उसके दोनों ही पुत्र आमने सामने लड़ रहे हैं। दूसरी ओर शिविर में अर्जुन कहते हैं श्रीकृष्ण से कि मैं अंगराज कर्ण के उपकार की छाया में नहीं जिना चाहता। वो मेरा वध कर सकता था। किंतु उसने मेरा वध नहीं किया।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध की उत्तेजना में तुम ये नहीं देख पाए पार्थ कि सूर्यास्त के पहले उसका वह बाण तुम्हारी छाती तक पहुंच नहीं पाता। उसने अपना बाण रोककर ये संदेश दिया कि अब तक युद्ध में जो हुआ उसके लिए वह उत्तरदायी नहीं है किंतु अब वो प्रधान सेनापति है और जब तक वह प्रधान सेनापति रहेगा तब तक उसकी सेना उन नियमों का पालन करेगी जो नियम भीष्म पितामह ने बनाए थे। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कल जब तुम्हारा सामना अंगराज कर्ण से हो पार्थ तो ध्यान रखना।
उधर, कर्ण से दुर्योधन कहते हैं कि आज विजय तुम्हारे हाथ में थी मित्र किंतु तुमने उसे निकल जाने दिया। तब कर्ण कहता हैं कि चिंता न करो मित्र। यदि विजय आज मेरे हाथ आ गई थी तो कल वो फिर मेरे हाथ आ जाएगी। तब शकुनि पूछा है कि किंतु आज तुमने अपने हाथ कैसे रोक लिए अंगराज?
तब कर्ण कहते हैं कि मेरे और अर्जुन के बीच स्वयं सूर्यदेव आ गए थे। मैं जानता था कि मेरा बाण सूर्यास्त के पहले अर्जुन की छाती नहीं भेद सकता था। इसलिए मैं वाण कैसे चला सकता था?... तब शकुनि कहता है कि इस युद्ध में कई नियम उन्होंने तोड़े हैं और हमने भी, तो टूट जाने देते ये नियम।
अंत में कर्ण बताते हैं कि मैं ऐसा नहीं कर सकता।
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