संक्रांति का उत्सव निःसर्ग का उत्सव है। पौष महीने में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इस उत्सव को मकर संक्रांति कहते हैं। इस दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने की दिशा बदलता है, थोड़ा उत्तर की ओर ढलता जाता है। इसलिए इस काल को उत्तरायण भी कहते हैं।
सूर्य के संक्रमण के साथ-साथ जीवन का भी संक्रमण जुड़ा हुआ है। इसलिए इस उत्सव का सांस्कृतिक दृष्टि से भी अनोखा महत्व है।
'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अंधकार में से प्रकाश की ओर प्रयाण करने की वैदिक ऋषियों की प्रार्थना इस दिन के संकल्पित प्रयत्नों की परंपरा से साकार होना संभव है। कर्मयोगी सूर्य अपने क्षणिक प्रमाद को झटककर अंधकार पर आक्रमण करने का इस दिन दृढ़ संकल्प करता है। इसी दिन से अंधकार धीरे-धीरे घटता जाता है।
अच्छे काम करने के शुभ दिनों का प्रारंभ होता है। धार्मिक हिन्दू कामना करते हैं कि मकर संक्रांति के बाद ही अपनी मृत्यु हो। यमराज (मृत्यु) को उत्तरायण का प्रारंभ होने तक रोकने वाले इच्छामरणी भीष्म पितामह इस बात का ज्वलंत उदाहरण हैं।
अग्नि, ज्योति और प्रकाश से युक्त गति अर्थात शुक्ल गति तथा कुहरा और अंधकार से युक्त गति अर्थात कृष्ण गति, इस दृष्टि से देखें तो उत्तरायण में मृत्यु की आकांक्षा यानी तेजस्वी और प्रकाशमय मृत्यु की आकांक्षा है। कुहरे जैसा काला और अंधकार जैसा डरावना जीवन मानव को निकृष्ट मृत्यु की ओर खींचकर ले जाता है।
मकर संक्रांति यानी प्रकाश की अंधकार पर विजय
मानव का जीवन भी प्रकाश और अंधकार से घिरा हुआ है। उसके जीवन का वस्त्र काले और सफेद तंतुओं से बुना हुआ है। मकर संक्रांति के दिन मानव को भी संक्रमण करने का शुभ संकल्प करना है। मानव जीवन में व्याप्त अज्ञान, संदेह, अंधश्रद्धा, जड़ता, कुसंस्कार आदि अंधकार के द्योतक हैं। मानव को अज्ञान को ज्ञान से, झूठे संदेह को विज्ञान से, अंधश्रद्धा को सम्यक् श्रद्धा से, जड़ता को चेतना से और कुसंस्कारों को संस्कार सर्जन द्वारा दूर हटाना है। यही उसके जीवन की सच्ची संक्रांति कहलाएगी।
संक्रांति यानी सम्यक् क्रांति
क्रांति में केवल परिस्थिति परिवर्तन की आकांक्षा होती है जबकि संक्रांति में सम्यक् परिस्थिति स्थापन करने की अभिलाषा होती है। इसके लिए केवल संदर्भ ही नहीं अपितु मानव मन के संकल्पों को भी बदलना होगा। यह कार्य विचार क्रांति से ही संभव है। क्रांति में हिंसा को महत्व होता है, परंतु संक्रांति में समझदारी का प्राधान्य होता है। अहिंसा का विधायक अर्थ 'प्रेम करना' है जो संक्रांति में तो क्षण-क्षण में तथा कण-कण में प्रवाहित होता हुआ दिखाई देता है। संक्रांति का अर्थ मस्तक काटना नहीं अपितु मस्तक में स्थित विचारों को बदलना है और यही सच्ची विजय है।
संक्रांति यानी संगक्रांति
इस दिन से मानव को संगमुक्त होने का संकल्प करना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि विकारों के परिणामों से अधिक से अधिक मुक्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए। संगमुक्ति से शनैः-शनैः हमें मुक्तसंग बनना चाहिए। अर्थात मुक्त जीवन के लोगों का संग करना चाहिए। ऐसे जीवनमुक्त लोग ही हमारी क्रांति को योग्य राह, दिशा तथा मार्गदर्शन दे सकते हैं।
किसी भी महान कार्य में संगठन की आवश्यकता होती है। 'संघे शक्ति कलौ युगै' संघ में विशिष्ट शक्ति निर्माण होती है। इस विशाल विश्व में कोई भी काम करने के लिए अकेला मनुष्य अपूर्ण है। उसकी शक्ति की मर्यादा होती है। संघ में विशिष्ट प्रकार की शक्तियाँ विपुल मात्रा में इकट्ठी होती हैं और वे किसी भी कार्य को सहज-संभव बना देती हैं। परंतु यह बात नहीं भूलना चाहिए कि इस संघनिष्ठा की नींव में अटूट, ज्वलंत प्रभुनिष्ठा होनी चाहिए।
इस उत्सव के निमित्त स्नेहीजनों के पास जाना होता है, उनको तिल का लड्डू देकर पुराने मतभेदों को नष्ट करना होता है। मन के झगड़े-फसादों को दूर हटाकर स्नेह की पुनः प्रतिष्ठा करनी होती है।
महाराष्ट्र में तो यह उत्सव अति प्रचलित है। लोग एक-दूसरे को तिल-गुड़ देते हैं और देते समय कहते हैैं- 'तिळ गूळ घ्या आणि गोड-गोड बोला' अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। हमारे यहाँ आज भी ब्राह्मण के घर जाकर लड्डू देने की प्रथा है। इसके पीछे एक अनोखा भाव निहित है। हमारे और ब्राह्मण के संबंध स्नेहहीन न बनें, ये संबंध टूट न जाए इसलिए ब्राह्मण के यहाँ जाकर तिल के लड्डू द्वारा अपने मन की स्निग्धता और हमारे हृदय की मिठास देना, पुराना स्नेह फिर से पुनर्जीवित करना और हमारे कल्याण के लिए हमारे जीवन में उसका स्थान बनाए रखना, यह वह भाव है।
तिल के लड्डू में सुवर्ण रखकर देने की प्रथा थी, जो गुप्तदान की महिमा समझाती है। सांस्कृतिक कार्य करने वाले तेजस्वी ब्राह्मण का जीवन यापन समाज को गुप्त रीति से चलाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण बात इस प्रथा में निहित है। तिल के लड्डू में जो घी होता है वह पुष्टिदायक है। सांस्कृतिक कार्य का क्रांतिवीर पुष्ट मन, बुद्धि का होना चाहिए। प्रभु कार्य का व्रत असिधारा व्रत के समान कठिन व्रत है। उसमें दुर्बल, शिथिल मन तथा अस्थिर बुद्धि के लोगों का काम नहीं है। आज हम तिल के लड्डू के पीछे निहित इस भाव को भूलकर केवल छिलके की पूजा करते हैं।
इस उत्सव में तिल के लड्डू को महत्व प्राप्त हुआ है, इसका एक नैसर्गिक कारण भी है। प्रकृति ऋतु के अनुसार फल और वनस्पति देती है। जिस ऋतु में जिस प्रकार के रोग होने की संभावना होती है उस ऋतु में उसके अनुसार औषधि, वनस्पति, फल आदि का निर्माण प्रकृति करती है। जाड़े के मौसम में सख्त ठंड में शरीर के सभी अंग सिकुड़ जाते हैं, रक्त का अभिसरण मंद होने की संभावना होती है, रक्तवाहिनियाँ शीत के प्रभाव में आ जाती हैं, परिणाम स्वरूप शरीर रुक्ष बनता है। ऐसे समय शरीर को स्निग्धता की आवश्यकता होती है और तिल में यह स्निग्धता का गुण है।
आयुर्वेद की दृष्टि से तिल इस ऋतु में आदर्श-पौष्टिक खुराक की आवश्यकता को पूर्ण करता है। खेत में से ताजे तिल की फसल घर आई हो, तब रुक्ष बने इस शरीर के लिए इससे अधिक योग्य औषध दूसरी कौन-सी हो सकती है?
इस दिन पतंग उड़ाने की प्रथा का भी प्रारंभ हुआ जिसके पीछे विशिष्ट अर्थ निहित हैं। सामान्यतः पतंग उड़ाने के लिए खुले मैदान या किसी घर की छत पर जाना पड़ता है और शीत के दिनों में इस प्रकार सहज रूप से सूर्यस्नान होता है। तात्विक दृष्टि से देखें तो हमारे जीवन की पतंग भी इस विश्व के पीछे स्थित अदृश्य शक्ति किसी अज्ञात छत पर खड़ी होकर उड़ाती है।
संक्रांति के दिन जिस प्रकार आकाश में लाल, पीले, नीले रंग की पतंगें उड़ती हुई दिखाई देती हैं, उसी प्रकार इस विश्व के विशाल आकाश में सत्ताधीश, धनवान, विद्वान आदि अनेक प्रकार की पतंगें उड़ती हैं। पतंग की हस्ती और मस्ती तब तक बनी रहती है जब तक उसकी डोर उसके सूत्रधार के हाथ में होती है। सूत्रधार के हाथ से छूटी हुई पतंग वृक्ष की डाली पर, बिजली के तार पर या किसी टंकी पर फटी हुई और विकृत दशा में पड़ी हुई देखने को मिलती है। भगवान के हाथ से छूटी हुई मानव-पतंग भी अल्प ही दिनों में रंग उड़ी, फीकी व अवस्थ दिखाई देती है।
संक्षेप में, इस पर्व के निमित्त सूर्य का प्रकाश, तिल-गुड़ की स्निग्धता व मिठास और पतंग का उसके सूत्रधार के प्रति विश्वास हमारे जीवन में साकार हो तभी हमारे जीवन में योग्य संक्रमण हुआ है ऐसा माना जाएगा।