पतंग और तिल-गुड़ का पर्व

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सूर्य के उत्तरायण होने के उत्सव को मकर संक्रांति के तौर पर मनाया जाता है। पतंग और गिल्ली-डंडा के साथ आनंद और तिल-गुड़ के साथ मौसम का उल्लास होता है... आसमान में रंगों का इन्द्रधनुष फैल जाता है, जब अलग-अलग रंगों, डिजाइनों और आकारों की पतंग उसे सजाती है तो यूँ लगता है जैसे आसमान के विस्तार पर रंगों का मेला सजा है।

जनवरी का सुहाना मौसम और उस पर हल्की गुनगुनी धूप में आसमान पर एक पतली-सी डोर के सहारे रंग उड़ाना कितना मजा देता है ये सिर्फ वही जानता है, जो करता है।

खासतौर पर बच्चों को पतंग उड़ाना बड़ा मजेदार लगता है। स्कूल के छात्र मुदित जैन ने बताया कि वे तो मकर संक्रांति के 12-15 दिन पहले से ही पतंग उड़ाना शुरू कर देते हैं। संक्रांति के दिन यदि स्कूल की छुट्टी न हो तो सारे दोस्त छुट्टी मनाते हैं। सब चार-पाँच दिन पहले से ही स्कूल से आते ही छत पर पहुँच जाते हैं और फिर अँधेरा होने पर ही उतरते हैं। तीन दिन पहले माँजा सूतते हैं, तैयार माँजे में वो बात नहीं होती है। संक्रांति तक तो उँगलियों पर कई सारे कट हो जाते हैं।

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संक्रांति वाले दिन सभी उँगलियों पर पट्टी चिपका कर पतंग उड़ा पाते हैं। कट लगने से खाना खाने में दिक्कत तो होती है, लेकिन ये दिक्कत पतंग उड़ाने में आने वाले मजे से बहुत कम है। अपने बचपन को याद करते हुए अमित टकसाली बताते हैं कि उस अहसास को शब्दों में बयान करना संभव नहीं है। उन दिनों रेडीमेड डोर नहीं खरीदते थे, धागा, सरेस और काँच लेकर दोस्तों के साथ लगातार दो-दिन तक डोर सूतना, देर रात को जागकर-जागकर एक-एक दोस्त की एक-एक और किसी-किसी की दो-दो रील सूतना...उस दौरान अंताक्षरी खेलना और सेंव-परमल खाना, दोस्तों के साथ लड़ना-झगड़ना....फिर संक्रांति की एक रात पहले से पतंगों को खरीदकर तैयार करना...रात को ही जोते बाँधकर रखना ताकि सुबह तेज ठंड में सूरज की पहली किरण के निकलने से पहले ही आधे अँधेरे और आधी रोशनी के बीच अपने पसंद के रंग को आसमान पर पहुँचा देना बहुत याद आता है।

इस बीच भावुक होकर वे यह भी बताते हैं कि मकर संक्रांति की एक रात पहले ठीक से नींद नहीं आती थी... लगता था कि पता नहीं कब सुबह हो जाए और हम लेट हो जाएँ, इसलिए टुकड़ों-टुकड़ों में नींद लेते और पूरी रात घड़ी ही देखते रहते। सुबह साढ़े चार बजे से दोस्तों के फोन घनघनाने लगते और पाँच बजते-न-बजते पहुँच जाते छत पर...और फिर दिनभर चलता पतंग को हवा में पहुँचाने का क्रम...किसी-किसी अड़ियल पतंग को छुट्टी दिलाकर भी उड़ाना पड़ता, फिर पेंच लड़ाना और काटना....चिल्लाना- काटा...है...बहुत मजा आता था।

जब कभी अपनी पतंग कटती तो बड़ा बुरा लगता था, लेकिन अब तो उसे भी याद करना भला लगता है। अब तो यदि कभी मकर संक्रांति की छुट्टी होती है तो बाजार से तैयार माँजा और 10-12 पतंग खरीदकर मकर संक्रांति मनाते हैं। यादों से नशा-सा आने लगता है। मजा तो अब भी आता है, बस वैसी इंटेसिटी महसूस नहीं होती है।

स्कूल शिक्षक नीलू गुप्ता कहती हैं कि मकर संक्रांति तो ठीक लेकिन पतंग उड़ाने को लेकर बचपन की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं। अपनी पतंग को दूर आकाश में सबसे ऊपर ले जाना और फिर पेंच लड़ाना...कभी-कभी अपनी पतंग के साथ काटी गई पतंग (जिसे लाड़ी लाना कहा जाता है) के आ जाने से यूँ लगता है कि लाइफ बन गई। पतंग को लूटने के दौरान अपने भाई-बहन या फिर खास दोस्त से भी झगड़ा हो जाता था, लूटी हुई पतंग उड़ाने का अपना मजा था, पतंग लूटना ऐसा लगता था जैसे किसी जंग में फतह हासिल हो गई हो। वे बताती हैं कि मुझे अपनी पतंग को सजाना खासतौर पर उसकी बहुत लंबी पूछ बनाकर उड़ाना बहुत अच्छा लगता है।

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नीले आकाश में कविता-सी रचती...हवा के परों पर इधर-उधर डोलती, तरह-तरह की शक्ल-सूरतों वाली पतंगें कितना कुछ बयान कर जाती हैं। कलाकार शुभा वैद्य कहती हैं-' बचपन में पतंगों का खूब क्रेज हुआ करता था। आसमान में उड़ती रंग-बिरंगी पतंगें मन मोह लेती थीं। मेरा बचपन मुंबई में बीता और वहाँ जगह की कमी सबसे बड़ी कठिनाई थी लेकिन मकर संक्रांति के दिन हम पतंग उड़ाते थे।

खासतौर पर मेरे बड़े जीजाजी को पतंग उड़ाने का बहुत शौक था। वही हमारे लीडर होते थे। हम लोग एक सरकारी कॉलोनी के बड़े से मैदान में इकट्ठे होते और फिर पतंगबाजी का दौर चलता। हालाँकि मेरी भूमिका ज्यादातर सिर्फ चरखा पकड़े रहने तक सीमित रहती थी लेकिन कभी-कभी पतंग उड़ाने को भी मिल जाती थी। तब साधारण कागज से ही चौकोर पतंगें बनाई जाती थीं। आजकल तो कितनी खूबसूरत और क्रिएटिव पतंगें मिलती हैं बाजार में। हम कलाकारों को तो इनसे भी प्रेरणा मिल जाती है।'

सातवीं में पढ़ने वाले पराग खांडवे जब भी आसमान में उड़ती पतंगें देखते हैं तो उनके मन में भी इसे उड़ाने का लालच तो पैदा हो जाता है, लेकिन क्या करें, कमबख्त ये आर्ट फिलहाल उनके बस से बाहर का है। पिछले तीन-चार सालों से वे अपने आसपास दोस्तों को मकर संक्रांति पर या यूँ भी पतंग उड़ाते देख रहे हैं, खुद उनका ही नामधारी पराग फड़नीस (जिसे सब बड़ा पराग कहते हैं) पतंग उड़ाने में मास्टर है, लेकिन अब तक छोटे पराग इसे सीख नहीं पाए। इसलिए वे केवल पतंगबाजी देखने का मजा लेते हैं। हाँ..लेकिन जब वे इसे सीख लेंगे तो धड़ाधड़ वे भी पतंगें काटा करेंगे, ऐसा उनका कहना है।

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पटापट..पटापट गिल्ली के किनारों पर पड़ती डंडे की चोट... और वो मारा... एक ही शॉट में गिल्ली सीधी जा पहुँची पचास डंडे दूर। अब माँगो...कितने डंडे माँगते हो...? नहीं पुरे तो दाम हमारा...। गिल्ली-डंडा खेलने वालों के लिए ये शब्दावली नई भी नहीं होगी और आश्चर्यचकित करने वाली भी नहीं। हालाँकि गाँवों में तो यह एक राष्ट्रीय खेल ही ठहरा लेकिन मकर संक्रांति पर तो क्या गाँव के बड़े मैदान और क्या शहर की सड़कें, सभी गिल्ली-डंडे के शोर से भर जाती हैं।

फिर चाहिए भी क्या.. एक अदद लकड़ी की अदनी-सी गिल्ली और डंडा। बहुत हुआ या चाव चढ़ा तो शहरों और कस्बों में रंग-बिरंगे, जरा ढब के सजे-सजाए रेडीमेड गिल्ली-डंडे भी मिल जाएँगे और नहीं तो लकड़ी के किसी भी बेकार पड़े टुकड़े को घिसकर बनाई गिल्ली और पेड़ से तोड़ा गया अनगढ़-सा डंडा भी कम न होगा। कोई तामझाम नहीं और हाँ कोई सॉफेस्टिकेशन भी नहीं।

संक्रांति पर तिल-गुड़ मुँह में मिठास और दिलों में प्रेम घोलने का काम कर‍ते हैं। महाराष्ट्रीयन परिवारों में जब 'तिल-गुड़ घ्या आणि गोण-गोण बोला' अर्थात् तिल-गुण लो और मीठा-मीठा बोलो कहा जाता है तो इसके पीछे बहुत गहरी फिलॉसफी छुपी होती है। ठीक वैसे ही जैसे 'बुरा न मानो होली है' के असली अर्थ में छुपी हुई है। सरल शब्दों में कहें तो संक्रांति पर तिल-गुड़ खाओ और दिलों से वैमनस्य की कड़वाहट मिटाओ। तिल-गुड़ के अलावा इस दिन खिचड़ी बनाने का भी रिवाज है और खिचड़ी की कच्ची सामग्री दान देने का भी।

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