जब सिर्फ़ अच्छी ख़बर छपेगी, पत्रकार क्या कर लेगा?

- ब्रज मोहन सिं

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पिछले कुछ सालों में मीडिया की आज़ादी को जितनी बहस हुई है उतनी पहले कभी नहीं हुई। मीडिया ने इन सालों में अपनी आज़ादी से अगर समझौता किया तो उसके पीछे बहुत बार सरकारों या राजनीतिक दलों का दवाब था। तो कभी पैसे का प्रलोभन या दोनों का ही मिल-जुला असर। इस बार के लोक सभा चुनाव में भी मीडिया की वस्तुनिष्ठता पर खूब सवाल उठे, जो आधारहीन भी नहीं थे।

चाहे प्रिंट हो, या टेलीविज़न, दोनों ने जनता की नज़र में अपनी निष्पक्षता खोई। मीडिया के प्रति लोगों में अविश्वास बढ़ा रही-सही कसर पेड न्यूज़ ने पूरी कर दी। ऐसे में लोगों की आवाज़ बना, न्यू ऐज मीडिया। जिस पर न सरकार का अंकुश चला, न ही मीडिया घरानों का दवाब काम आया। न्यू ऐज मीडिया के पीछे वैसा युवा वर्ग था, जो व्यवस्था से नाखुश था और बेहतर ज़िन्दगी चाहता था।

इस बार के लोकसभा चुनाव अभियान के शुरुआती दौर में मीडिया का जिस तरह दोहन हुआ, ऐसा पहले नहीं देखा गया। पारंपरिक मीडिया, जैसे अख़बारों या टेलीविज़न पर पार्टीगत नीतियों और उनके प्रोपगंडा का जिस स्तर पर व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ, वह भी अपने आप में हैरान करने वाला था।

एक तरफ नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने जहाँ अपने मीडिया बल पर करोड़ों लोगों तक पहुँच बनाई वहीँ, न्यू-ऐज मीडिया के आने से कई नए रिकॉर्ड भी बने। फेसबुक, ट्‍विटर, यू टयूब, गूगल हैंग आउट लोगों तक पहुँचने के नए माध्यम बने। सोशल साइट्स पर उन हजारों-लाखों वेब सोल्जर्स ने पार्टी की नीतियों का रियल टाइम अपडेट किया। कई बार तो टीवी पर राजनीतिक विज्ञापनों की अधिकता ने दर्शकों को व्यग्र भी किया।

मीडिया पर आरोप लगा कि उसने मोदी को लेकर पूरे देश में यह ओपिनियन बनाया गया कि एक वही हैं जो देश में बदलाव ला सकते हैं, विकास की गंगा बहा सकते हैं, भ्रष्टाचार को रोक सकते हैं। जनता ने उस थ्योरी को खरीदा भी।

फिर केजरीवाल की हर बात टीवी पर क्यों दिखाई गई? मीडिया का इस्तेमाल अरविंद केजरीवाल ने क्या कम किया? दिल्ली में कांग्रेस विरोध का एजेंडा बनाकर केजरीवाल कई महीनों तक मीडिया के डार्लिंग बने रहे। मीडिया ने आम आदमी पार्टी को सर आँखों पर बिठाया और उनके आरोपों को बगैर सत्यापित या वेरीफाई किए चौबीसों घंटे दिखाया। यह भी पत्रकारिता के मानकों के हिसाब से सही नहीं था।

भ्रष्टाचार और गवर्नेंस की खामियों को लेकर 'आप' ने दिल्ली के मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीडिया की भूमिका हो वह तटस्थ रहकर लोगों को सूचनाएं दे, सच्चाई बताए। क्या मीडिया को देश के बजाय, अपने अच्छे दिन कि चिंता ज्यादा थी? मीडिया के बहुत बड़े वर्ग पर यह आरोप लगा कि कॉर्पोरेट घरानों ने उनकी खबरों का एजेंडा सेट किया।

इस लोकसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच ही देखा गया, कम से कम टीवी और अख़बारों में तो ज़रूर। दोनों ही पार्टियों को इस बात का कहीं न कहीं एहसास था कि युवा ही बदलाव लाएंगे। वही सत्ता पलटने का खेल करेंगे। ऐसा हुआ भी।

भारत में कुल मतदाताओं का 33 फीसदी युवा है। युवा की सहभागिता का सबसे नतीज़ा यह रहा कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मतदान का प्रतिशत 70 फीसदी से कहीं ऊपर ही गया।

अब इस मीडिया का क्या होगा? नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या अब मीडिया की आवाज़ कितनी सुनाई और दिखाई देगी। या रिमोट कंट्रोल किसी और के पास रहेगा। क्या मीडिया का यह भय वाज़िब है? क्या खौफ़ की कोई वजह है भी?

सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि नई सरकार किसी भी तरह से मीडिया पर नियंत्रण नहीं करेगी, मीडिया की आज़ादी पर अंकुश नहीं लगेगा।

लेकिन जब मीडिया का लगाम धीरे-धीरे कॉर्पोरेट घरानों के हाथ चला जाएगा, तो ज़ाहिर है खबरें वही लगेंगी जो सरकार को पसंद होंगी और खबरें वही लगेंगी जो अच्छी होंगी। फिर पत्रकार क्या कर लेगा?

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