अशोक चक्रधर जी की मॉस्को यात्रा पर हमने अभी कुछ शुरुआती अंश ही प्रकाशित किए हैं, लेकिन उन पर प्रतिक्रिया इतनी जबर्दस्त रही है कि हमें अशोक जी से जल्द ही अगली कड़ी भेजने का अनुरोध करना पड़ा। लीजिए, इस बार आगे का किस्सा पढ़िए। -वर्तिका नंदा
30 जून 1987 / शाम / मॉस्को
ग्राउंड फ्लोर के काउंटर से जब विनोद दुआ डुप्लीकेट चाबी लेकर घुसे तो मैं कमरे में अपनी डायरी लिख रहा था रहा था। बाहर हल्की रिमझिम थी, विनोद की जैकिट पर ठहरे हुए जलकण अंदर घुसने का प्रयास कर रहे थे। बाथरूम में मुड़ी हुई पाइपों से बना एक स्टैंडिंग हीटर लगा था। मैंने किसी राजभवन के परिचारक के समान पीछे जाकर उनकी जैकिट उतारी और बाथरूम में झाड़कर गर्म पाइपों वाले बड़े से हीटर पर डाल दी। विनोद प्रसन्न हो गए और हम दोनों अपने आमने-सामने के पलंगों पर बांह की टेक लगाकर, एक दूसरे को देखते हुए लेट गए।
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‘बाहर मौसम ज़्यादा ख़राब है क्या?’ -मैंने पूछा। विनोद बोले- ‘अन्दर से ज़्यादा खराब नहीं है।‘ मैंने पूछा- ‘कैसे?’ ‘घण्टे भर बाद एडीजी ने मीटिंग बुलाई है। शर्मा जी चाहते हैं कि उद्घाटन समारोह से पहले कुछ सॉफ्ट स्टोरीज़ बनाई जाएं।‘
मैं मन ही मन सोचने लगा कि दोस्त अनिल जनविजय और तान्या की मदद से यहां की कुछ झलकियां कैद की जा सकती हैं। मैं उन दिनों रूसी साहित्य का विकट प्रेमी था ही। मॉस्को के बारे में थोड़ा बहुत पढ़कर भी गया था, इसलिए दिमाग में दनादन विषय मंडराने लगे और मैं विनोद को बताने लगा- ‘लाल चौक का इतिहास, लेनिन की समाधि, गोर्की-पार्क, तॉल्स्तॉय, चेखव, पुश्किन, माइकोवस्की के संग्रहालय।‘
‘ये सब नहीं चलेंगे। इनका भारत महोत्सव से क्या लेना-देना?‘ -विनोद अपने अनुभवी आत्मविश्वास से बोले।
मैं अड़ गया- ‘लेना-देना क्यों नहीं है? रूस में ‘भारत महोत्सव’ है, भारतवासियों को यही सब तो बताना चाहिए! उन्हें ये भी बताना चाहिए कि रूसी लोग राजकपूर के गाने कितने शौक से गाते हैं।‘
‘हां, ये कुछ बात बनी, राजकपूर के गानों पर एक स्टोरी मैं बनाता हूं, तुम साहित्यकारों पर बनाओ। लिटरेचर इज़ योर फील्ड।’ इतना कहकर विनोद पलंग से झटके से उठ खड़े हुए और अटैच्ड बाथरूम में घुसते हुए बोले- ‘अंदर जाके मैं भी सोचता हूं।‘
मैं अपनी डायरी में छोड़ा अधूरा वाक्य पूरा करने लगा। बड़ी प्यारी हरे रंग की डायरी थी जो शरद जोशी जी ने मुझे अहमदाबाद में भेंट की थी। सुन्दर हस्तलेख में बड़े मनोयोग से लिखता था। अफसोस कि सात दिन बाद, मेरे एक कैमरे के साथ लेनिन स्टेडियम की आपाधापी में कहीं गायब हो गई। उस डायरी का पूरा ब्यौरा मेरे पास होता तो आज और भी बहुत सारी बातें बता सकता था। बहरहाल, आध-पौन घण्टे मैंने डायरी लिखी और लगभग इतना ही समय विनोद ने बाथरूम में लगाया। वे निकले तो मैं घुसा। अंदर देखा कि सारी हॉट पाइपों पर विनोद के अधोवस्त्र सूख रहे थे। मैंने बाथरूम की चटखनी लगाने से पहले पूछा- ‘कोई विषय सूझा?’ वे बोले- ‘विषय है रूस में कपड़े सुखाने की कला।‘ हम दोनों ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया।
मीटिंग से पहले मैं कोमल जी. बी. सिंह से मिलना चाहता था, लेकिन पता नहीं था कि वे किस कमरे में हैं। दूरदर्शन पर आंखों देखा हाल सुनाने के लिए हम चार लोग थे। मुझे और कोमल जी. बी. सिंह को ‘भारत महोत्सव’ के सांस्कृतिक पक्ष पर और राजीव महरोत्रा और विनोद दुआ को राजनयिक घटनाक्रम और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर बोलना था। विनोद और मैं हिन्दी के लिए, कोमल और राजीव अंग्रेज़ी के लिए।
विनोद को कमरे में छोड़कर मैं लिफ्ट की ओर बढ़ा। लिफ्ट मध्यप्रदेश की युवा उरांव लोक नृत्यांगनाओं के हंसी-ठठ्ठे से गुंजायमान थी। इतनी बड़ी लिफ्ट में सवारी करने का उनका कौतुक भरा अनुभव उल्लास की ध्वनियों में तब्दील हो रहा था। मुझे ‘भारत महोत्सव स्वागत कक्ष’ के लिए नीचे जाना था और वो ऊपर का बटन दबा रही थीं। उनकी बातचीत से मुझे अहसास हुआ कि वे काफी देर से उस लिफ्ट में ऊपर नीचे आ जा रही हैं। किसी भी फ्लोर पर एक साथ निकलती हैं और एक मंज़िल सीढ़ियों से ऊपर जाती हैं या नीचे जाती हैं और फिर से लिफ्ट में चड्ढू खाती हैं।
लिफ्ट में दस पन्द्रह ग्राम्य बालाओं के बीच, मैं अकेला मूढ़, किंकर्तव्यविमूढ़ था। दो बार ऊपर नीचे आ-जा चुका था। वे हर बार कोई ग़लत बटन दबा देती थीं। लिफ्ट को जो नाम उन्होंने दिया वो उनकी ‘फेनूगिलासी’ हंसी के साथ मेरे कानों में अभी भी गूंजता है-- ‘पुष्पक चील गाड़ी’। मैंने बालाओं के हाथ जोड़े और सबसे नीचे वाला बटन दबा दिया। दुर्भाग्य कि ग्राउंड फ्लोर पर नहीं पहुंच पाए, तलहटी में पता नहीं कहां पहुंच गए। भला हो एक रूसी युवक का जिसने कोई उचित बटन दबाया। दरवाज़ा खुला तो मुझे ग्राउंड फ्लोर नज़र आया। मैं देहाती कपड़ों की कच्ची-पक्की, औंधी-सौंधी, दिव्य-असह्य नारी महक के दिल-घोंटू सघन वातावरण से बाहर निकल आया। बालाएं पुष्पक चील गाड़ी को लेकर उड़ गईं।
कोमल मीटिंग में ही मिलीं। चर्चा का केन्द्रीय विषय यही कि तीन जुलाई को लेनिन स्टेडियम में ‘भारत महोत्सव’ का भव्य उद्घाटन होना है। भारत से आए सभी लोक कलाकारों, शास्त्रीय संगीतकारों, खिलाड़ियों की भव्य प्रस्तुति को कैसे कवर किया जाए। अभी उसमें चार-पाँच दिन बाकी थे। तकनीकी रणनीतियां बन रही थीं।
मॉस्को टेलिविज़न के कितने कैमरे कहां-कहां होंगे और हमारे कहां-कहां। विषय-वस्तु और तकनीक दोनों ही मामलों में राजीव महरोत्रा शर्मा जी के मुख्य सलाहकार थे। सारी चर्चाएं अंग्रेज़ी में चल रही थीं। हिन्दी उद्घोषक विनोद दुआ भी इक्का-दुक्का सलाह अंग्रेज़ी में ही दे रहे थे।
अपन ने जो कहा सो हिन्दी में कहा। प्रारंभ में तो सब हल्की-सी हिक़ारत से देखते थे, पर अपनी बात में भी चूंकि थोड़ा-बहुत दम होता था, हिन्दी न्यूनाधिक हाई-क्लास होती थी, इसलिए सम्मान बरकरार रहता था। शिव शर्मा जी ने सभी को प्रोत्साहित किया। थोड़ी चुस्कियां चलीं तो सब हिन्दी बोलने लगे।
मैं कमरे में आकर जुट गया, अपनी सामग्री का काव्यांतरण करने में। चाहता था ऐसी कॉमेंट्री करूं कि कविता जैसी लगे। कोमल जी. बी. सिंह को बताता था, वे बड़ी खुश होती थीं। मेरी कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद कर लेती थीं और कई बार वे नई-नई सूचनाएं लेकर आती थीं, मैं उनका हिन्दी अनुवाद कर लेता था। एक बहुत अच्छा कामकाजी सम्बंध कोमल जी. बी. सिंह के साथ बना।
झूठ नहीं बोलूंगा, अपने साथी विनोद दुआ के साथ वहां अपेक्षित तादात्म्य नहीं हो पाया। वे दूरदर्शन पर सीधे प्रसारण का ज़्यादा अनुभव रखते थे शायद इसलिए होमवर्क में ज़्यादा भरोसा नहीं रखते थे। अच्छी बात थी कि आनंद मनाने के मूड में रहते थे। कुछ पैसा भारत से लेकर आए थे, रोज़ाना का भत्ता भी रूबलों में काफी मिलता था। वे बाज़ार जाते थे और नई-नई चीज़ें खरीद कर लाते थे। आपको जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों एक डॉलर बीस रुपये में आता था उन दिनों एक रूबल में दो डॉलर आते थे। आज जिस रूबल की हालत इतनी खस्ता है वह उन दिनों बड़ा पुख्ता और रौबदार हुआ करता था।
विनोद ने वैलवेट से बना हुआ एक शानदार डिब्बा खोलकर दिखाया, उसमें से निकला एक दमकता हुआ क्लारनेट। मैं दंग रह गया। कितना महंगा होगा! मेरे मन में उनकी इज़्ज़त भी बढ़ गई और ईर्ष्या सी भी हुई। पैसा खर्च करो तो इस तरह करो। मुझे भी घूमना चाहिए। चीज़ें खरीदनी चाहिए, स्नेहा और अनुराग के लिए। रूबल तो मेरे पास भी ख़ूब सारे हैं। यहां ख़ामख़ां लगा हुआ हूं अपनी कॉमेंट्री को बेहतर बनाने में और सूचनाओं को इकट्ठा करने में।