एक समय था जब समाचार-पत्र, पत्रिकाओं और समाचार चैनलों की अपनी एक अलग ही पहचान हुआ करती थी। लोग मीडीया पर आखें मूंदकर भरोसा किया करते थे। अखबार या चैनल पर आना बड़ी बात मानी जाती थी। लोग प्रतिदिन आने वाले अखबार का बेसब्री से इंतजार किया करते थे और उसके प्रत्येक पन्ने पर प्रकाशित छोटी से छोटी खबर को भी चाट जाते थे। शायद इसलिए क्योंकि उस समय सही मायने में समाचार-पत्र और चैनल हुआ करते थे। वे अपने पाठकों और दर्शकों को खबरों से जोड़ते थे उन्हें अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों से रूबरू कराते थे। बड़ी-से-बड़ी घटना को देखकर भी लोग विचिलित नहीं होते थे उन्हें इस समाज में रहने से डर नहीं लगता था।
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ताज्जुब की बात यह है कि यह सब कोई हजारों साल पहले की बात नहीं है बल्कि लगभग 15-16 साल पहले की ही बात है। जब मीडिया को सही मायने में लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता था, लेकिन आज परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं आज मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा तो जाता है माना नहीं जाता क्योंकि मानने में और कहे जाने में अंतर होता है।
आज भी लोग समाज में क्या हो रहा है यह जानना चाहते हैं, लेकिन पढ़ने और देखते समय उन्हें अपने अनुसार कुछ न मिलने पर लगभग एक घंटे में पढ़ा जाने वाला समाचार-पत्र मात्र 10 मिनट में ही देख लिया जाता है। आप कहेंगे कि आजकल लोगों की व्यस्तता अधिक हो गई है, तो क्या पहले लोग काम नहीं करते थे, व्यस्त तो पहले भी लोग हुआ करते थे, लेकिन अखबार को पढ़ने का जो नशा उस समय था वो आज नहीं है। आज अखबार चलते-फिरते बाजार बन चुके हैं। जिस प्रकार शहरों को होर्डिंग और बैनरों से पूरा का पूरा पाट दिया जाता है उसी प्रकार आजकल के अखबार, विज्ञापनों और विज्ञापन आलेखों से पटे रहते हैं। जानकारी के नाम पर किसी व्यक्ति विशेष का गुणगान किया जाता है।
पाठक आज दर्शक बन चुका है अर्थात आज वह अखबार पढ़ता नहीं बल्कि देखता है। हैडिंग से ही खबर में क्या होगा इस बात का अंदाजा लगा लेता है और बिना पढ़े ही आगे पन्ना पलट लेता है। मैंने कई लोगों को इसी अंदाज में पेपर पढ़ते हुए देखा है यह देखकर मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि जिस पेपर को तैयार करने में कितने लोगों का परिश्रम होता है, उसे लोग ये महत्व देते हैं? पहले एक अखबार की लाइफ एक दिन की तो हुआ ही करती थी, लेकिन अब तो शायद एक घंटे की भी नहीं होती। यही हाल न्यूज चेनलों का भी है। पिछले एक साल से तो न्यूज चैनलों का जो हाल हुआ है वह मेरी याददाश्त में तो मैंने कभी नहीं देखा। जिस चैनल पर देखो न्यूज कम, न्यूज से ज्यादा राजनीतिक बहस या फिर कोई राजनीतिक खबर ही दिखाई पड़ती है। जिसे देखकर ऐसा लगता है कि हमारे देश में राजनीति को छोड़ अब कोई खबर बची ही न हो।
पहले न्यूज के भी अलग-अलग विषय हुआ करते थे, हेल्थ, ट्रेवल, लाइफस्टाहल, क्राइम, सामाजिक सरोकार के अलावा और भी बहुत कुछ। जिन पर खास प्रोग्राम तैयार किए जाते थे, लोगों को अत्यधिक जानकारी दी जाती थी, लेकिन आज सारी जानकारी सिर्फ और सिर्फ राजनीति पर ही आधारित होती है।
अन्य खबरों में भी सिर्फ क्राइम से संबंधित खबरें ही नजर आती हैं। जिस कारण कई बार सुबह-सुबह न्यूज चैनल देखने का भी मन नहीं करता, न जाने कितनी क्राइम की खबरें होंगी? पहले खून-खराबा नहीं दिखाया जाता था लेकिन आज कई अखबारों की वेबसाइट्स पर आप ऐसी खून-खराबे से भरी हुई विचलित कर देने वाली तस्वीरें देख सकते हैं। जिन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे मानो मीडिया हमें इस समाज में रहने के लिए कमजोर कर रहा है। आजकल खबरों को पेश करने का तरीका ही बड़ा अजीबो-गरीब हो चुका है, जिसे देखकर हमें हमारे समाज में कुछ भी ठीक और अच्छा नहीं लगता।
बात चाहे दिल्ली की हो या यूपी की। अगर दिल्ली में कोई घटना होती है तो ऐसे में मीडिया दिल्ली वालों को उस घटना से बचने के सुझाव देने की बजाय पूरी दिल्ली में इस तरह की घटने वाली घटनाओं को ढूंढ-ढूंढकर पेश करता है जिससे इंसान सोचने पर विवश हो जाता है कि दिल्ली में रहना अब सुरक्षित नहीं। यह मीडिया की अपनी सोच होती है या कोई राजनीतिक दाव-पेंच, जिसमें मीडिया बतौर मौहरे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सच्चाई क्या है यह मेरी सोच से परे है।
खबरों को दिखाना और समाज से रू-ब-रू कराना मीडिया का काम है, लेकिन उन खबरों को ऐसे पेश करना कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को बाहर निकलने से पहले दस बार सोचना पड़े, तो ऐसी जागरूकता से क्या फायदा? कुल मिलाकर खबरों में खबरों की जगह सनसनी ने ले ली है। अगर यही हाल रहा तो लोग समाचार जगत को देखना और पढ़ना किसी भूत की फिल्म देखने जैसा हो जाएगा जिसे देखना हर किसी के बस की बात नहीं होती। इसीलिए उनकी शुरुआत से पहले ही साफ-साफ शब्दों में लिख दिया जाता है कि कमजोर दिल वाले यह फिल्म न देखें।