किसी ने सच ही कहा है कि मां धरती पर भगवान का मानवीय रूप है। जितना कोमल अहसास इस शब्द में है, इस रिश्ते में उतनी ही निर्मलता और पावनता है। नि:स्वार्थ, प्रेमयुक्त, सरल, निश्चल और अनमोल होती है मां...। वह मां, जो हमारी प्रथम गुरु, प्रथम सखा, प्रथम संबंधी, प्रथम शिक्षक, प्रथम प्रेमी होती है। वह मां, जो खुद जीवन की कंटीली राहों पर चलकर हमारे रास्तों पर फूल बिछाती है।
वह मां, जो 9 माह की असहनीय प्रसव पीड़ा सहकर हमें इस दुनिया से रूबरू कराती है। हमारे लिए केवल स्वेटर या मोजे ही नहीं, सपने भी बुनती है। सचमुच धन्य है यह दैवीय रिश्ता, केवल इसलिए नहीं कि वह 'मेरी' मां है और उसने मेरा हरदम ख्याल रखा है बल्कि इसलिए कि वह ईश्वर के प्रति आस्था जगाती है, दुनिया से स्नेह मिटने नहीं देती, मातृत्व सिखाती है, वह देना सिखाती है। जिसने मुझसे कभी कुछ नहीं चाहा, ईश्वर से मांगा भी तो मेरा सुख ही मांगा, मेरी सलामती चाही।
वह मां, जो इस कठोर दुनिया को जीने के लिए नर्म बनाती है। यदि समंदर को स्याही बनाया जाए और पूरे आकाश को कागज बना दिया जाए, फिर खुद देवी सरस्वती अपनी कलम लेकर 'मां' की महिमा लिखने बैठे तो भी शब्द कम पड़ जाएंगे, लेकिन मां की दिव्यता का बखान नहीं हो पाएगा। उस मां को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। मां सचमुच तुम धन्य हो। मां तुझे सलाम।