समाज में मां का रूप सबसे शक्तिशाली और सबसे कोमल होता है। वह मां ही होती है, जिसकी गोद में बच्चा पहला अक्षर बोलता है- 'मां'। मां के रूप में महिलाएं अपनी भावनाएं जताने के कई रास्ते जानती हैं। कभी गाती हैं, कभी कहानियां कहती हैं, तो कभी गपशप। आप पाएंगे कि माताएं हमारे जीवन के लिए जो भी करती हैं, जो भी देती हैं - वह हमेशा ही खूबसूरत होता है।
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हमारे समाज में मां, दादी-नानी जैसे संबोधन बने हैं और इन संबोधनों का समुचित आदर आज के "प्रैक्टिकल" समाज में भी दिखता है। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है कि बच्चे को पहली शिक्षा उसकी मां और नानी-दादी की गोद में मिलती है। घर में मां और दादी बच्चे में संस्कार भरती हैं। दादी-नानी की कहानियों, उनके पुचकार में शिक्षा होती है। बच्चे को जीवनशैली का ज्ञान महिलाएं ही कराती हैं।
अगले पेज पर : कम हो रही है बच्चियां
एक बात और कहना चाहूंगी। अभी हाल में अखबारों में खबर छपी कि भारत के किस राज्य में लड़का-लड़की का अनुपात क्या है। सब जगह बच्चियों की संख्या कम हो रही है। बंगाल जैसे प्रगतिशील कहे जाने वाले राज्य में भी। अगर लड़कियां नहीं रहीं आपके अगले प्रजन्म को धरती पर लाने वाली माताएं कहां से लाओगे।
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दरअसल, हमारा समाज अभी भी सामंतवादी मानसिकता में जी रहा है। समाज और विज्ञान की तरक्की के साथ हमें पुरुषवादी सोच में बदलाव भी लाना होगा।
मैं जब 2007 में पुरुलिया की "नाचनी" पर काम कर रही थी, तब मुझे लगा कि मां कही जाने वाली महिला का किस कदर शोषण हो सकता है। एक तो आदिवासी, ऊपर से नाचनी। मैंने देखा कि किस तरह उनके दूध पीते बच्चों को हटाकर लोग उन्हें उठा ले जाते। मैंने अपने लेखन में उनके मानवाधिकारों की बात उठाई। पुरुलिया का नाचनी समुदाय ठीक दक्षिण भारत के मंदिरों में "देवदासियों" की तरह का माना जा सकता है।
फर्क यह है कि वहां भगवान के नाम पर होता रहा है और पुरुलिया में नाचनी की खुलेआम खरीद-फरोख्त होती है। आप कल्पना कर सकते हैं कि कम्युनिस्टों के दीर्घ शासन वाले बंगाल में भी ऐसा हो सकता है। उस बंगाल में जहां शारदीय नवरात्र में शक्ति के मातृ रूप की पूजा-अराधना होती है। मैंने अपने उपन्यास "अरण्येर अधिकार" में भी यह मुद्दा उठाया है। मातृ रूप की खरीद-फरोख्त कल्पना से परे है।
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मैंने देखा है कि जो महिलाएं घरों में बर्तन मांजने का काम करती हैं, वे भी दो पैसा बचाकर अपने बच्चों को पढ़ा रही हैं। पढ़ाई से खुद वंचित रह जाने का उन्हें मलाल है। वे चाहती हैं कि उनके बच्चों को यह मलाल न रहे। शिक्षा से समाज को बदला जा सकता है। महिलाएं शिक्षा से जुड़ती हैं तो आपकी पीढ़ियों को लाभ होता है। यदि हम भविष्य की माताओं के बारे में उनके बचपन से सोचें तो आगे चलकर बड़ा काम होगा। हम लोग जो समाज के लिए सोचते हैं उसमें स्त्री का योगदान याद रखना होगा।
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यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि हम घर में अपनी मां, चाची, दादी-नानी या यूं कहें कि मां-जातीय महिलाओं को हमेशा सकुचाते हुए देखते थे। उन्हें कुछ कहना होता तो वे बहुत सोच-विचार के कहतीं। खुद को घर की चाहरदिवारी में बांध लेतीं। ऐसी महिलाओं को जब आकाश मिला, तब काफी खूबसूरत चीजें सामने आईं।
कुछ अर्सा पहले एक तिब्बती महिला लेखिका मुझसे मिलने आईं -गेयांग। बातों-बातों में उन्होंने कहा- हम तो अपने बच्चों को कहानियां सुना-सुनाकर और अपनी बातें कह-कहकर कुछ ऐसा रच गए, जो खूबसूरत लगने लगे। मेरे कहने का मतलब यह कि महिलाएं कभी और किसी भी हालत में अपने बच्चों की बातें नहीं भूलतीं।
मैं हमेशा सोचती हूं कि एक महिला में ही ऐसी ताकत होती है कि वह अपना सर्वस्व दे दे। कर्मी सोरेन मेदिनीपुर के देउलपुर गांव में अकेली रहती है। अर्सा पहले उसके पति की हत्या हो गई। उसके खुद के बाल-बच्चे नहीं हैं।
उसके पास छोटी- सी एक जमीन थी, जिसपर वह धन उगाती थी। उसकी रोजी का वही एक साधन था। कर्मी सोरेन ने अपने गांव में जूनियर हाईस्कूल बनाने के लिए अपनी वही जमीन दान कर दी। कहा जाए तो उसने अपनी पूरी संपत्ति दान कर दी। वह पूरे गांव के बच्चों की मां बन गई। उस कर्मी सोरेन को तो कोई जानता ही नहीं।
कल्याणी में लक्ष्मी ओरांव रहती है। आदिवासी लड़की है। उसने शादी नहीं की है। वह अकेले दम पर साक्षरता अभियान से जुड़ी है। उसने 22 गांवों में लोगों को साक्षर कर दिया है। वह सरकार में नौकरी नहीं करती। मैं तो उसे मां का विराट रूप मानती हूं।
जब तक हम माताओं को सम्मान देना नहीं सीखेंगे, कुछ भी बदलना मुश्किल है। महिलाओं में अपना घर संभालते हुए समाज को नई दिशा देने की ताकत है। अतीत का कोई उदाहरण उठाकर देख लीजिए आप। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का अपने दत्तक पुत्र के लिए प्रेम हो या फिर आदिवासी महिला कर्मी सोरेन-त्याग का सर्वोच्च उदाहरण मां के रूप में महिलाएं रखती आई हैं। वे कितनी दृढ़ निश्चयी और बलिदानी होतीं हैं!
(कोलकाता से दीपक रस्तोगी के साथ बातचीत पर आधारित।)