'मां' एक ऐसा शब्द है जिसे याद करते ही मन में एक फुरफुरी-सी दौड़ने लगती है। चाहे वह कोई भी मां, किसी की भी मां हो- सभी के लिए एक समान ही यह गरिमामय भाव अंतरमन में होता है। मां को जितने भी शब्दों से नवाजा जाए, वे अपने आप में कम ही रहेंगे, क्योंकि मां वो गरिमामय शब्द है जिसकी व्याख्या करना बहुत ही मुश्किल है।
मां का सफर जन्म होने के दिन से ही शुरू हो जाता है। सभी को यह लगता है कि एक बेटी ने जन्म लिया है इसका मतलब है उसे अपनी जिंदगी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी काम करते ही चले जाना है, जिम्मेदारियों पर जिम्मेदारियां निभाते जाना है। पहले बेटी, फिर युवती, फिर बहू और पत्नी, अंत में आता है मां बनने का सफर।
मां बनने के साथ ही उसके अपने सारे हक, उसकी अपनी सारी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं भुलाकर उसे अपने कर्तव्यों को निभाने की जिम्मेदारी निभाना पड़ता है। फिर भले ही इन सबमें उसकी इच्छा हो या ना हो। उसे इन सारे दौर से गुजरना ही पड़ता है। चाहे मन से, चाहे बेमन से। लेकिन उसके जन्म के साथ ही ये सारे उसके साथी बन जाते हैं। वो चाहकर भी इन जिम्मेदारियों से अपना मुंह नहीं मोड़ सकती, क्योंकि मां तो प्रेम और वात्सल्य की मूर्ति होती है और एक बेटी के रूप में जन्म लेने के साथ ही कहीं-न-कहीं, छोटे हो या बड़े रूप में, यह सब उसके साथ जुड़ता चला जाता है।
शादी होने के बाद और उसके मां बनने के पूर्व ही ससुराल वालों की निगाहें उस पल का इंतजार कर रही होती हैं कि वह बेटे की मां बनती है या बेटी की? उनकी चाह तो बस अपने कुल को आगे बढ़ाने वाले पुत्ररत्न को पाने की होती है, मां बनना ससुराल वालों के लिए इतना मायने नहीं रखता जितना कि उसका बेटे को जन्म देना मायने रखता है।
बेटा-बेटी की आस लिए मां बनने का उसका यह सफर सही मायने में यहीं से शुरू हो जाता है। पहले 9 महीने अपने बच्चे को कोख में रखकर अपने खून से सींचना और फिर अगर बेटे की मां बन गई, तो वह ससुराल वालों की आंखों का तारा बन जाती है। अगर बेटी को जन्म दिया है तो इस दु:ख के साथ कि 'बेटी जनी है', उसको तानों और कष्टों में ही अपना जीवन गुजारना पड़ता है। यह तब बात और भी ज्यादा दुखद हो जाती है, जब वह 2-3 बेटियों को जन्म दे चुकी होती है।
बेटा और बेटी तो ईश्वर के दिए हुए वे अनमोल तोहफे हैं जिसके लिए हमें ईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए, न कि बेटे और बेटी के भेद को लेकर उसके जीवन में जहर घोलना चाहिए। वह खुद जो अभी-अभी मां बनी है, वो मां क्या चाहती है, उसे बेटा पसंद है या बेटी? इस बात से किसी को कोई सरोकार नहीं होता। उसके दिल में चल रही कशमकश से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता! फर्क पड़ता है तो सिर्फ उस मां को जिसने अभी-अभी उस बच्चे को जन्म दिया है। उस मां का मन कचोटकर रह जाता है, पर फिर भी क्या लोग उसके मन की भावनाएं, उसके मन की उलझन को समझने की कोशिश करते हैं? नहीं करते!
फिर भी वो मां अपने सारे गमों को भुलाकर, जीवन में आ रही हर परेशानी को अपने से दूर रखकर अपना सारा प्यार-दुलार अपने बच्चे पर उड़ेल देती है। अपनी मातृत्व की छांव उस पर बनाए रखती है। अगर अपने बच्चों को बड़ा करते वक्त अगर ससुराल वाले और पति का साथ छुट जाए तब भी वह मां अपने बच्चों को वो सारे संस्कार, अच्छा जीवन, अच्छी पढ़ाई-लिखाई और वो सबकुछ देने की कोशिश करती है, जो एक इंसान को मिलनी चाहिए। ऐसी मां के 'आदर' स्वरूप सिर्फ एक दिन का 'मदर्स डे' मनाकर कभी भी उसके व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मां हो या बेटी- सभी के लिए हमेशा सभी के मन में वात्सल्य तथा प्रेम, करुणा और आदर सभी कुछ बनाएं रखना चाहिए। ऐसी मां के लिए तो मानव जीवन ही कुर्बान होना चाहिए।
वर्तमान परिस्थितियों में जिस तरह कम उम्र की बच्चियां, नाबालिग तथा ऐसी बच्चियां जो पुरुष के उस घिनौनी हरकतों का शिकार बन रही हैं और जो पुरुष उन्हें मजबूर करके काल का ग्रास बना रहे हैं, उन्हें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें जन्म देने वाली भी एक औरत ही है, जो उनकी मां, बहन, पत्नी, बेटी के रूप में उनके सामने है।
वैसे तो हम नवरात्रि में देवी पूजन करने को खूब महत्व देते हैं और दूसरी ओर उसका शोषण भी खूब करते हैं, जो कि कतई सही नहीं है। ऐसी देवी मां हो या साधारण मां जिसने भगवानों से लेकर कई महापुरुषों, कई वीरांगनाओं और वीरों को जन्म दिया है, जिसने देश-दुनिया को कई अविस्मरणीय संतानों से नवाजा है, ऐसी मां के लिए तो हर दिन मनाया गया 'मातृ दिवस' भी कम पड़ जाएगा। उसके उपकारों के आगे हमारी हर पूजा छोटी है, हर उपहार कम है, ऐसी जननी को मातृ दिवस यानी मदर्स डे पर मेरा शत-शत नमन...!