मां का फोन आया तो सदा की तरह चित्त प्रसन्न हो गया। स्वयं मां बने एक अरसा हो गया, पर अभी भी मां से बातें करने की, उनकी आवाज सुनने की प्रतीक्षा रहती है। इस बार मां की आवाज में हल्का क्रोध, उलाहना और डांट का पुट देखकर हमेशा की तरह चहक नहीं सकी।
'बहुत बड़ी और समझदार हो गई ना, फुरसत नहीं है। मेरे पत्रों का उत्तर तक नहीं दे पाती हो।'
'मां, आपके फलां-फलां तारीख के पत्र का जवाब दिया तो था...,' मैं हकला रही थी।
'ओहो, तारीख तो अच्छी तरह याद है, पर इसी तरह जवाब भेजना हो तो ना ही लिखो,' मां का गुस्सा कम नहीं हुआ था।
मेरी तो बोलती ही बंद हो गई थी। कुछ समझाने की कोशिश व्यर्थ हो जाती।
'ठीक है़, तुम लोगों ने कम्प्यूटर ले लिया और उस पर काम करना भी सीख लिया। अपने भाई-भाभी को तीसरे-चौथे रोज कुशलता की 4 लाइनें ई-मेल पर भेज देती हो, पर मैं तो नहीं पढ़ पाती न।'
'सॉरी मां, असल में बात ये...,' मेरी बात कहीं अटक गई।
'तेरा पत्र जब भी आता है, उसे बार-बार छूती हूं, बार-बार पढ़ती हूं। लगता है, तुझे ही स्पर्श कर रही हूं। तेरा पत्र तेरे लिए तो अक्षरों की चंद कतारें हैं, पर मेरे सामने तो तेरे जन्म से विवाह तक की सारी यादें फोटो एलबम की तरह खुलती चली जाती हैं। मुझे इस मामूली खुशी से वंचित क्यों करती हो?'
मां की आवाज आखिर तक आते-आते भारी और भीगी हुई लगने लगी थी। कागज का लिफाफा न जाने कितने हाथों से गुजरकर आता होगा, तब भी मां अपनी संतान का स्पर्श उसमें ढूंढ लेती है। सारे कार्यों को परे ढकेलकर सजल नयनों से मां को पत्र लिखने बैठ गई।