हवाई हसरतों की ख्वाबगाह : हिमालय

आकाश में घुमड़-घुमड़कर आते बादलों को देखकर उन्हें छूने का मन किसका नहीं होता? कौन नहीं चाहता कि रूई के फाहे से नरम-मुलायम बादलों को अपना गुलुबंद बनाकर गर्दन के गिर्द लपेट लें और नदियों-झरनों, देवदारों के साथ अठखेलियाँ करें! नहीं साहब, हरेक पर्वत की किस्मत हिमालय जैसी कहाँ। वह तो हिमालय ही है जो सदियों से यह सुख भोगता अविचल खड़ा है। धरती का वह छोर बना हुआ, जो अपनी उठान के बल पर आकाश की ऊँचाई को चुनौती देना चाहता है। अपनी इस कोशिश में वह खुद एक चुनौती बन गया है जो न सिर्फ चढ़ाकों, बल्कि उड़ाकों के रोमांच का सबब्‌ बनता आया है। जैसे-जैसे विमानों की ऊँचे उड़ने की क्षमता बढ़ी है, वैसे-वैसे उन्हें उड़ाने वाले, हिमालय की एक छटा देखने को ललचाए हैं।

आज के जमाने में, जब अनेक एयरलाइन्स की उड़ानें तीस हजार फीट की ऊँचाई पर रोजाना उड़ती हों, हिमालय की ऊँचाई बौनी भले ही लगती हो, लेकिन अनदेखी जैसी तो कतई नहीं। फिर दो महायुद्धों के बीच गुजरे उस समय की बाबत्‌ तो सोचो जब विमानों की ऊँचे उड़ने की कूवत मात्र कुछ सौ फीट हुआ करती थी और उसमें महज दस-बीस फीट का इजाफा भी दुनिया के नामी-गिरामी अखबारों की सुर्खी बना करता था। धीरे-धीरे वह समय आया, जब अमेरिकी हवाबाजों ने 33114 फीट की ऊँचाई तक उड़ने का कीर्तिमान बना लिया।

सन्‌ 1920 के इस वर्ष में, तब लोगों का ध्यान रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी में एक साल पहले हुए जॉन नील के उस भाषण की तरफ गया, जिसमें हिमालय का हवाई सर्वेक्षण करने का सुझाव दिया गया था, लेकिन उस जमाने में ऐसा विमान बना पाना दूर की कौड़ी ही था जो दो लोगों को बैठाकर हिमालय क्षेत्र के बर्फानी-तूफानी माहौल में माउण्ट एवरेस्ट तक पहुँच पाता। वैज्ञानिकों की मुश्किल यह थी कि ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ हवा विरल होती जाती थी और साधारण विमान के इंजन क दम फूलने लगता था।

ऐसा विमान ऊँचाई पर भार ढोने की कूवत खो देता और तेजी से नीचे लपकता। इधर, उड़ाके हिमालय को देखकर दिल मसोस रहे थे और उधर सन्‌ 1927 में जॉन नील एक स्वप्नदर्शी की तरह विमान की मदद से एवरेस्ट विजय का विचार दोहरा रहा था। अपनी पुस्तक 'थ्रू तिब्बत टू एवरेस्ट' में उसने लिखा कि किस तरह एक आधुनिक उड़ान मशीन की मदद से एवरेस्ट के ऐन ऊपर मँडराया जाएगा। फिर विमान में से एक यात्री रस्सी की मदद से शिखर पर उतर जाएगा। वह तरल ऑक्सीजन सिलेण्डर से साँस लेगा और पहले ही से गिराए गए भोजन पैकेटों से अपनी भूख-प्यास मिटाएगा।

उसने लिखा कि एवरेस्ट पर विमान का उतरना भले ही संभव न हो, पर इस तरह उतारा गया यात्री सफलता का झंडा गाड़कर वहाँ से पैदल रांगबुक ग्लेशियर के पूर्वी हिस्से को पार करता हुआ आइस क्लिक तक पहुँचेगा। फिर वहाँ से उसे भारत वापस लाया जा सकेगा। भले ही जॉन नील का विचार, जस का तस हकीक़त में न बदल पाया हो, लेकिन इसके पाँच बरस के भीतर ही लोगों ने इस दिशा में नेक प्रयास जरूर शुरू कर दिए।

सन्‌ 1931 में ब्रिस्टल पिगासस इंजन की मदद से चवालीस हजार फीट की ऊँचाई तक पहुँचा जा चुका था, मगर एवरेस्ट अभियान पूरा करने के लिए कठिनाई सिर्फ ऊँचाई की ही तो नहीं थी। जरूरत इतनी ऊँचाई पर विमान को पर्याप्त कूवत देने की थी, जिससे शिखर पर वह दो आदमियों को मय साज़ो-सामान के लेकर पहुँचे ही नहीं, बल्कि दम भरकर मँडराए भी। पिगासस में एक सुधार किया गया, जिसके तहत्‌ पेट्रोल और हवा को संपीड़ित करके सिलेंडर में भरा गया।

अधिक ऊँचाई पर वह पेट्रोल और हवा का जेट सा छोड़ता था, जिससे उसकी शक्ति कम नहीं पड़ती थी। इसे सुपर चार्ज इंजन भी कहा गया है। इससे पूर्व सैनिक ब्लैकर के संयोजन में एवरेस्ट उड़ान अभियान के लिए खासतौर पर बनाई गई एक समिति ने एक करार किया। करार के मुताबिक अभियान की जरूरतों के मद्देनजर दो विमानों को बनाया जा रहा था। यह समिति जिन कठिनाइयों से गुजरी उसकी अपनी दास्तान है, लेकिन संक्षेप में लेडी ह्यूस्टन की भरपूर आर्थिक मदद से काम आगे ब़ढ़ा। इस अभियान को स्वतंत्रता के आंदोलन की वजह से भारतीय कांग्रेस पार्टी के विरोध का सामना भी करना पड़ा था।

आखिरकार एक जोड़ी पिगासस इंजन जब बनकर तैयार हुए तो मुश्किल यह आन खड़ी हुई कि उन्हें किस प्रकार के यान ढाँचे में फिट किया जाए। काफी सोच-विचारकर एक वेस्टलैण्ड बमवर्षक का चुनाव किया गया। इनमें से एक को लेडी ह्यूस्टन के नाम पर ह्यूस्टन वेस्टलैण्ड कहा गया। विमान को गरम रखने के लिए चौदह वोल्ट बैटरी से जोड़कर खास प्रकार के हीटर लगाए गए। भारी-भरकम कैमरों को गरम रखने के लिए माकूल इंतजाम कर लिए गए।

विमान में बैठे दो लोगों में से एक के जिम्मे चार तरह के काम थे, मसलन हवाई सर्वेक्षण, स्थिर चित्रण, चलचित्र और यंत्रों की देखरेख। उनके पैर घोड़े की रकाबों की तरह सीट के नीचे लटकते हुक्स से बाँध दिए गए थे, जिससे चित्र लेते वक्त ये महाशय कहीं टपक न जाएँ। दूसरे सज्जन को विमान चलाने का जिम्मा सौंपा गया था। जाहिर है, यह कोई छोटी-मोटी जवाबदारी नहीं थी। खासतौर पर जब विमान से फोटोग्राफी करनी हो और वह भी उस जमाने की स्लो स्पीड फिल्मों की मदद से।

बहरहाल खासी तैयारी के बाद वे दोनों विमान फरवरी 1933 के एस.एस. दोलगोमा नाम के पोत में कराची बंदरगाह को रवाना किए गए। वहाँ से उन्हें कोलकाता लाया गया। लंदन से प्रकाशित होने वाले अखबार द टाइम्स ने इस अभियान का कवरेज कुछ उसी शैली में किया, जिसमें बरसों बाद दुनियाभर के अखबारों ने नील आर्मस्ट्रांग की चंद्र यात्रा की दास्तान लोगों के सामने रखी थी। मामला एकदम हाई.फाई रूप ले चुका था और एक-एक दिन गिन कर, लोग उस दिन के इंतजार में थे, जब दुनिया की सबसे ऊँची और रहस्यमयी चोटी पर हवाई फतह होनी थी।

अभियान का बेस कैम्प कोलकाता से साढ़े चार सौ किलोमीटर उत्तर में परनेह को बनाया गया। वहाँ अभियान दल के सभी सदस्य महाराजा दरभंगा के खास मेहमान थे। जब परनेह में तम्बू तान दिए गए और नेपाली सीमा पर आपातकालीन हवाई पट्टी तैयार हो चुकी, तो सबकी नजर मौसम की 'नजरें इनायत' का इंतजार करने लगीं। रोज-ब-रोज कलकत्ता की वेधशाला से आने वाली खबरों का विश्लेषण किया जाता और मामला अगले दिन के लिए मुल्तवी कर दिया जाता।

आखिरकार 3 अप्रैल सन्‌ 1933 को सूरज एक नए आत्मविश्वास के साथ उगा। लालबालू हवाई पट्टी से सवेरे 8.25 बजे दोनों वेस्टलैण्ड विमान उड़ चले। मुख्य विमान के उड़ाके थे क्लायडेस्डेल और सर्वेक्षणकर्ता की सीट पर ब्लैकर विराजमान थे। उन्नीस हजार फीट की ऊँचाई तक दृश्य धुंधलाया हुआ था, लेकिन उससे ऊपर उठते ही स्वच्छ आकाश में जगमगाते सूरज की धवलगिरि आभा और कंचनजंघा के उत्तुंग शिखर साकार हो उठे। वैज्ञानिक मुग्ध थे, लेकिन अपनी जिम्मेदारी की तरफ जागरूक भी।

बाद में अपने अनुभव को कलमबंद करते हुए क्लायडेस्डेल ने लिखा, 'हमारा विमान पहाड़ों के अर्धचंद्र के बीच घिरा हुआ था। हमने इस विशाल पर्वत श्रृंखला को कभी भी इतने करीब से नहीं देखा था। विमान की ठीक नाक की सीध में एवरेस्ट शिखर किसी ज्वालामुखी के मुहाने सा दिखाई दे रहा था। हमने उसे पहली नजर में शुभ्र धूम्र सा, लगभग पचास मील दूर से देखा।'

अब उसने विमान को ऊँचे उठाना शुरू किया। देखते ही देखते वे इकतीस हजार फीट की ऊँचाई पर थे। शिखर से लगभग दो हजार फीट की सुरक्षित ऊँचाई पर वे स्थिर होने ही वाले थे, कि डाउनड्राट की चपेट में आकर उनका विमान नीचे फिसलने लगा। सब कुछ इतनी तेजी से घट रहा था कि ब्लैकर के सारे तामझाम उलट-पुलट गए। यदि क्लायडेस्डेल का धैर्य जवाब दे गया होता तो उस सुबह ये दोनों जाँबाज उड़ाके विमान समेत एवरेस्ट से टकराकर सदा के लिए बर्फीली पहाड़ियों का हिस्सा बन गए होते।

किस्मत ने साथ दिया और वे शिखर के एक बाजू की घाटी में फिसले। जल्दी ही विमान काबू में कर लिया गया और फिर वे एवरेस्ट से ठीक पाँच सौ फीट की ऊँचाई पर जा पहुँचे। अपने लिए तय किए गए सभी काम पूरे कर लेने के बाद उन्होंने साथ उड़ रहे दूसरे विमान से संपर्क करने की एक असफल कोशिश की। दूसरे विमान के साथ भी मुसीबतें तो बहुत आईं, लेकिन उनकी शुरुआत अच्छी हुई थी।

बाद में उसमें सवार दो उड़ाकों में से एक का ऑक्सीजन पाइप फट गया। जैसे-तैसे उसे रूमाल से बाँधा गया, लेकिन उससे काम चला नहीं। बॉनेट नामक वह जाँबाज कैमरामैन तस्वीरें लेते-लेते बेसुध होकर, अपनी सीट पर ही लुढ़क गया। खतरे के संकेतों के आदान-प्रदान के साथ ही दोनों विमान तत्काल पलटे और लगभग साढ़े ग्यारह बजे लालबालू हवाई पट्टी पर उतर पड़े। जो कुछ वे साथ लाए, वे थे नायाब चित्र और रोमांचक यादें, जिन्हें सारी दुनिया ने हाथोंहाथ लिया।

हालाँकि इस अभियान को पूरा हुए आज लगभग सात दशक बीत रहे हैं, लेकिन जॉन नील का वह सपना अब भी एक हसरत की तरह अधूरा है, जिसके तहत्‌ एवरेस्ट की 'चोटी से तलहटी' तक का सफर तय किया जाना था। जिस तरह शिव की जटाओं में अवतरित होकर गंगा ने अपनी समुद्र तक की यात्रा पूरी की, उसी तरह एवरेस्ट के शिखर से उसके आधार तक की यात्रा संपन्न होनी थी। यह अधूरा सपना शायद अब भी कुछ लोगों को सालता है। यदि यह पूरा हो पाता तो एक अलग तरह की अवधारणा संसार के सामने सच हो सकती थी कि 'पहाड़, सिर्फ उन पर चढ़कर ही नहीं, उनसे उतरकर भी फतह किए जा सकते हैं।'

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