औरों में कहां दम था मूवी रिव्यू: अजय देवगन और तब्बू की फिल्म भी बेदम

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024 (14:07 IST)
फिल्म निर्देशक नीरज पांडे के नाम के आगे ए वेडनेस डे, बेबी, स्पेशल छब्बीस, एमएस धोनी द अनटोल्ड स्टोरी जैसी फिल्में दर्ज हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से वे आउट ऑफ फॉर्म चल रहे हैं और उनकी ताजा फिल्म 'औरों में कहां दम था' में भी पुराने रंग में वे नहीं दिखाई दिए। 
 
इस बार उन्होंने अपना ट्रेक बदला है। थ्रिलर की बजाय वे रोमांटिक फिल्म लेकर आए हैं, वो भी मैच्योर रोमांस। आमतौर पर नीरज की फिल्मों में महिला किरदारों को ठोस रोल या ज्यादा फुटेज नहीं मिलते हैं और रोमांस भी उनकी फिल्मों में वे इस तरह दिखाते हैं मानो खानापूर्ति कर रहे हों। 
 
'औरों में कहां दम था' में वसुधा के रूप में तब्बू और सई मांजरेकर का ज्यादा फुटेज तो मिले हैं, लेकिन उनके रोल दमदार नहीं है क्योंकि पूरा फोकस कृष्णा (अजय देवगन और शांतनु माहेश्वरी) के किरदार पर है। तब्बू वही करती है जो अजय कहते हैं। तब्बू के किरदार में गहराई नहीं दी गई है।
 
फिल्म की कहानी महज चार लाइन की है, जिसे बहुत ज्यादा खींचतान कर ढाई घंटे में फैलाया गया है। बतौर राइटर नीरज ने कहानी को घटना प्रधान नहीं बनाया है, लिहाजा फिल्म बेहद सुस्त और धीमी लगती है। न ही किरदारों की बातचीत इतनी रोचक है कि दर्शक इसमें इंवॉल्व रहे। 
 
अजय के किरदार की खामोशी के तरह फिल्म में ज्यादातर पल खामोश हैं, जो अजय के अंदर की चल रही उथल-पुथल को बयां करते हैं। लेकिन जब हद से ज्यादा इन पलों से सामना होता है तो बोरियत होती है। 
 
फिल्म अजय देवगन के किरदार पर जरूरत से ज्यादा फोकस करती है और उस कारण दूसरे किरदारों के बारे में न तो ज्यादा जानकारी मिलती है और न ही उन्हें उभरने का मौका मिलता है।

 
अजय के किरदार को महान बनाने के चक्कर में नीरज पांडे ने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है, जिससे तब्बू और जिम्मी शेरगिल साइडलाइन हो गए हैं। 
 
तब्बू जिस तरह से अजय की हर बात मानती है वो गले नहीं उतरती। कुछ तो सिचुएशन ऐसी बनानी थी जिससे दर्शकों को यकीन हो। जिमी शेरगिल के किरदार का बर्ताव कुछ अजीब किस्म का है और ठीक से लिखा नहीं गया है। 
 
नीरज पांडे अपनी लिखी कहानी और स्क्रिप्ट के प्यार में पड़ गए जिससे उनका काम प्रभावित हुआ है। कहानी आउट डेटेट लगती है और यही बात उनके निर्देशन पर भी लागू होती है। उनका कहानी कहने का तरीका बहुत पुराना सा लगता है। कहानी में भले दम नहीं हो, लेकिन कहने का अंदाज निराला हो तो देखा जा सकता है, लेकिन यहां नीरज असफल रहे हैं।
 
संगीत नीरज की फिल्मों में हमेशा से कमजोर पक्ष रहा है, लेकिन 'औरों में कहां दम था' का म्यूजिक और बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। नीरज जानते थे कि उनकी फिल्म में खामोश पल ज्यादा है, लिहाजा बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है और इस मामले में संगीतकार एमएम क्रीम ने अच्छा काम किया है। गीत अर्थपूर्ण हैं, हालांकि अभी लोकप्रिय नहीं हुए हैं। मुख्य कलाकारों के पीछे बैकग्राउंड में जिस तरह से जूनियर आर्टिस्टों का इस्तेमाल किया है वो निहायत ही नकली है। 
 
अजय देवगन के चेहरे के एक्सप्रेशन इन दिनों एक जैसे लगते हैं, चाहे 'शैतान' देख लो, या 'मैदान' देख लो। 'औरों में कहां दम था' में भी उसी एक्सप्रेशन के साथ वे नजर आए मानो 'मैदान' के सेट से निकल कर वे 'औरों में कहां दम था' के सेट पर आ गए हों। उन्हें अभिनय में विविधता लाना जरूरी है। 
 
तब्बू अच्छी एक्ट्रेस हैं, लेकिन फिल्म के अंत में ही उन्हें चंद ऐसे सीन मिलते हैं, जहां वे अपनी प्रतिभा दिखाती हैं। उन जैसी एक्ट्रेस को कम मौका देकर निर्देशक ने खुद अपना नुकसान किया है। 
 
शांतनु माहेश्वरी को जो रोल उन्हें मिला है उसमें वे मिसकास्ट हैं। जो काम वे फिल्म में करते दिखाई दिए हैं उस पर यकीन करना ही मुश्किल है। सई मांजरेकर का अभिनय औसत रहा। सयाजी शिंदे वाला ट्रैक थोपा हुआ लगता है।
 
कुल मिलाकर 'औरों में कहां दम था' बेदम फिल्म है। 

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