मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार अंतिम दौर में पहुंच चुका है। चुनाव लड़ रहे नेताओं की सांसें तेज हो गई हैं। मतदाताओं को रिझाने में उन्होंने कोई कौर कसर नहीं छोड़ी है। इस चुनाव में कार्यकर्ताओं की चुप्पी ने भी नेताओं को परेशान कर रखा है। हालांकि जितना नेता परेशान हैं उतनी ही बैचेनी मतदाताओं में भी दिखाई दे रही है। जानिए क्यों बेचैन हैं मतदाता...
मुद्दों से दूरी : इस चुनाव चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, सभी दलों ने मुद्दों से दूरी बनाकर रखी है। उम्मीदवारों की दिलचस्पी मुद्दों से ज्यादा चुनावी हथकंडों में है। प्रमुख दलों के कई उम्मीदवारों को तो पार्टी के घोषणापत्र के बारे में ही ज्यादा पता नहीं है। सभी प्रत्याशी चुनाव तो जीतना चाहते हैं, इसके लिए उन्हें साम, दाम, दंड और भेद की नीति से कोई गुरेज नहीं है। जनहित से उनका दूर-दूर तक सरोकार नजर नहीं आ रहा है।
आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति : एक तरफ चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को यकीन है कि एक-दूसरे पर कीचड़ उछालकर, प्रतिद्वंद्वी को जनता के बीच बदनाम कर आसानी से चुनाव जीता जा सकता है। दूसरी ओर जनता इस बात से चिंतित है कि इस कदर गिरे हुए नेताओं से उम्मीद क्या रखें। चुनाव मैदान में इस तरह की बात की जा रही है तो विधायक बनने के बाद वह क्या गुल खिलाएंगे।
कब आएंगे प्रत्याशी : जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आ रही है, उन इलाकों के लोगों की धड़कनें भी बढ़ती जा रही हैं, जहां प्रत्याशी अभी तक प्रचार के लिए नहीं पहुंचे हैं। लोगों को यह चिंता सता रही है कि अगर प्रत्याशी चुनाव प्रचार के लिए ही नहीं आए तो वे वोट किसे देंगे। अभी जरूरत के समय नेताओं का यह हाल है तो चुनाव बाद क्या होगा?
प्रलोभन की राजनीति : चुनावी समर में उतरे नेताओं के लिए मतदाताओं को रिझाना बेहद जरूरी है। इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। कई बार लोगों को बड़े-बड़े प्रलोभन दिए जाते हैं। कई बार छुटभैये नेता उनके वोट के नाम पर मोटी रकम भी वसूल कर लेते हैं और उन्हें पता ही नहीं चलता। ऐसे में कई बार ईमानदार मतदाता को ठगा हुआ महसूस करते हैं।