'आधार' कहीं आधार तो कहीं निराधार!

ऋतुपर्ण दवे
अब 'आधार' कानूनों में उलझनों की लड़ाई जीतकर संवैधानिक हो गया है। यकीनन निगरानी और निजता को लेकर खूब सुर्खियों में था, आगे भी रहेगा। सच यही है कि 'आधार' प्रक्रिया में अपनाई जाने वाली वैज्ञानिक तकनीक से देश की ज्यादातर आबादी इतने बड़े फैसले के बाद भी बिलकुल बेखबर है। इसी 26 सितंबर, बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के आए ऐतिहासिक फैसले ने इसकी संवैधानिकता पर मुहर तो जरूर लगा दी लेकिन हकीकत यह है कि अब 'आधार' कार्ड कई मायनों में एक पहचान पत्र बनकर रह गया है।
 
5 जजों चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण की संविधान पीठ ने सुनवाई की। इस पूरे मामले में कुल 38 सुनवाइयां हुईं, जो इसी साल 17 जनवरी से शुरू हुई थीं।
 
इसमें जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ की टिप्पणी कि 'आधार ने इंसान की बहुलतावादी पहचान को नकार दिया और उसे केवल 12 अंकों में सीमित कर दिया' बेहद तल्ख थी। देश की सुप्रीम अदालत ने यह भी आदेश दिया कि 'आधार' कहां जरूरी है और कहां नहीं। जहां स्कूलों में दाखिले के लिए 'आधार' की अनिवार्यता जरूरी नहीं है, वहीं कोई भी मोबाइल कंपनी 'आधार' कार्ड की मांग नहीं कर सकती है।
 
जस्टिस एके सीकरी ने कहा कि 'आधार' कार्ड की डुप्लीकेसी संभव नहीं है और इससे गरीबों को ताकत मिली है। वहीं फैसले में कहा गया, 'शिक्षा हमें अंगूठे से दस्तखत पर लाती है और तकनीक हमें वापस अंगूठे के निशान पर ले जा रही है।' इस फैसले से निश्चित रूप से राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने मायने और नफा-नुकसान निकालेंगी लेकिन 'आधार' को लेकर उलझनें और भ्रम जरूर छंटेगा। अब इस पर सियासी दंगल थमेगा या नया मोड़ लेगा, यह आगे दिखेगा।
 
'आधार' की वैधता को 2012 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले कर्नाटक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस केएस पुट्टास्वामी थे। 2010 में मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार में इसे जब लॉन्च किया गया, तो उन्होंने ही इसे निजता का हनन बताकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। वे अब 92 साल के हैं जिन्होंने निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई लड़ी। 
 
बाद में कई और जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुईं और सभी को एकसाथ जोड़कर सुनवाई चली। 'आधार' को लेकर कई रोचक आरोप-प्रत्यारोप भी चले। बात निजता के हनन से इसके डेटा लीक और चुनावों में उपयोग तक पहुंची। अमेरिका के चुनावों में फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका विवाद जैसी घटनाओं की संभावनाएं 'आधार' में तलाशे जाने लगीं।
 
संभवत: फैसले के बाद 'आधार' की संवैधानिकता पर सवाल भी नहीं उठेंगे और जहां मोबाइल सिम लेने, स्कूल में बच्चों के एडमिशन, मोबाइल वॉलेट में केवाईसी, बैंक में खाता खोलने, सीबीएसई, यूजीसी और नीट जैसी परीक्षाओं, म्युचुअल फंड और शेयर मार्केट में केवाईसी के लिए जरूरी नहीं होगा, वहीं 14 साल से कम उम्र के बच्चों का 'आधार' नहीं होने पर उन्हें सरकारी योजनाओं से वंचित नहीं किया जा सकेगा।
 
लेकिन पैन कार्ड बनवाने में 'आधार' कार्ड जरूरी होगा, क्योंकि इसमें लिंक कराने से वित्तीय स्थितियों के लाभ के लिए यह उपयोगी होगा। आयकर रिटर्न्स दाखिल करने के लिए भी 'आधार' का पैन से लिंक होना जरूरी है। सरकारी लाभकारी योजनाओं में 'आधार' का लिंक होना जरूरी है और सबसिडी आधारित योजनाओं में भी इसे जरूरी बनाया गया है।
 
'आधार' एक्ट के सेक्शन 57 को रद्द कर दिया गया है, क्योंकि यह प्राइवेट कंपनियों के साथ डेटा साझा करने की इजाजत देता था। जहां 5 जजों की बेंच ने माना कि 'आधार' संवैधानिक रूप से वैध है, कोर्ट के फैसले का मतलब है कि टेलीकॉम कंपनियां, ई-कॉमर्स कंपनियां, प्राइवेट बैंक और दूसरी ऐसी कंपनियां सर्विसेज के लिए ग्राहकों से बायोमैट्रिक और दूसरे डेटा नहीं मांग सकेंगी।
 
हालाकि केंद्र ने 'आधार' योजना का बचाव किया था कि जिनके पास 'आधार' नहीं है उन्हें किसी भी लाभ से बाहर नहीं रखा जाएगा। 'आधार' सुरक्षा के उल्लंघन के आरोपों पर केंद्र ने कहा था कि डेटा सुरक्षित है और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। केंद्र ने यह भी तर्क रखा कि 'आधार' समाज के कमजोर और हाशिए वाले वर्गों के अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें बिचौलियों के बिना लाभ मिलते हैं और 'आधार' ने सरकार के राजकोष में 55,000 करोड़ रुपए बचाए हैं। 
 
लेकिन इसमें कितने ऐसे लोग होंगे, जो 'आधार' के बिना योजना का लाभ लेने से वंचित रह गए होंगे या फिर 'आधार' सत्यापन मशीनें उनके हाथ के निशानों को नहीं पढ़ पा रही होंगी? वहीं अब भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और 'आधार' को चुनौती देने वालों का यह भी आरोप है कि 'आधार' के बिना राजस्थान, झारखंड और अन्य जगहों पर कई लोगों की योजनाओं का लाभ न ले पाने से मृत्यु हुई है, इसके डेटा कहां हैं? 
 
'आधार' को लेकर जाने-माने बुद्धिजीवी और बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्णगांधी का हालिया विश्लेषण चर्चाओं में रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि सूचना का अधिकार कानून ने जनता को सरकार के हर कदम पर निगरानी रखने का अधिकार और जरिया दे दिया है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि 'आधार' कानून के जरिए सरकार हर नागरिक पर निगरानी की व्यवस्था बना दे। अब सब कुछ साफ है लेकिन 'आधार' कहीं आधार तो कहीं 'निराधार' जरूर हो गया।

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