पीएम के लिए इस वक्त बस चुनाव जीतना ज़रूरी है?

प्रधानमंत्री के लिए राज्यों के विधानसभा चुनाव किसी भी क़ीमत पर जीतना ज़रूरी हो गया लगता है। मोदी हाल ही में राजस्थान के ऐतिहासिक स्थल चित्तौड़गढ़ गए थे। वहां एक सभा में उन्होंने (बिना नाम लिए) 110 किलोमीटर दूर स्थित उदयपुर के दर्ज़ी कन्हैयालाल के साथ हुई नृशंस घटना का ज़िक्र तो किया पर सिर्फ़ साठ किलोमीटर दूर बसे नीमच में भंवरलाल के साथ क्या हुआ था उसकी चर्चा करना भूल गए! मोदी ने आमसभा में कहा, जो लोग कपड़े सिलवाने आते हैं और बिना किसी डर या ख़ौफ़ के दर्ज़ी का गला काट देते हैं, इस मामले में भी कांग्रेस को वोट बैंक नज़र आता है! पढ़िए संबंधित घटनाओं के बाद लिखे गए मेरे आलेख के संपादित अंश : 
 
भंवरलाल और कन्हैयालाल दो अलग-अलग इंसान नहीं थे। दोनों एक जैसे ही हाड़-मांस के जीव थे। दोनों के दिल एक जैसे धड़कते थे। उनके रहने के ठिकाने भी एक-दूसरे से ज़्यादा दूर नहीं थे। दोनों को ही मार डाला गया। सिर्फ़ दोनों को मारने वाले और उनके तरीक़े अलग थे।
 
राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल को जिस बर्बरता से मारा गया उसने हमारी आत्माओं को हिला दिया। हम कन्हैयालाल को मारे जाने से ज़्यादा विचलित और भयभीत हैं। हमने अपने को टटोलकर नहीं देखा कि भंवरलाल को जब मध्यप्रदेश के नीमच शहर में मारा गया तब हमारी प्रतिक्रिया उतनी तीव्र और उत्तेजनापूर्ण क्यों नहीं थी? यह भी हो सकता है कि हम भंवरलाल की हत्या को अब तक भूल ही गए हों!
 
(कन्हैयालाल दर्ज़ी की दो आतंकवादियों द्वारा गला रेतकर हत्या कर दी गई थी। कन्हैयालाल ने कथित तौर पर भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के विवादास्पद कथन के प्रति समर्थन व्यक्त किया था। बुजुर्ग भंवरलाल की पीट-पीटकर हत्या तो सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी कि पीटने वाले ने उसे अल्पसंख्यक समुदाय का समझ लिया था। दोनों ही घटनाएं पिछले साल मई-जून की हैं।)
 
नागरिकों की दहशत भरी याददाश्त में या तो व्यक्तियों को मारे जाने का तरीक़ा होता है या हमलावर और मृतक की धार्मिक पहचान या फिर दोनों ही। हम कई बार तय ही नहीं कर पाते हैं कि अमानवीय और नृशंस तरीक़ों से अंजाम दी जाने वाली मौतों के बीच किस एक को लेकर कम या ज़्यादा भयभीत होना चाहिए। नागरिक भी ऐसे अवसरों पर हुकूमतों की तरह ही बहुरूपिए बन जाते हैं।
 
कारणों को पता करने की कभी कोशिश नहीं की गई कि भंवरलाल की मौत ने व्यवस्था और नागरिकों को अंदर से उतना क्यों नहीं झकझोरा जितना उदयपुर को लेकर महसूस किया या करवाया जा रहा है! भंवरलाल को घर से बाहर निकलते वक्त रत्तीभर भी अंदाज़ नहीं रहा होगा कि वह कभी मारा भी जा सकता है। हरेक आदमी भंवरलाल की तरह ही रोज़ घर से बाहर निकलता है। इसके विपरीत, कन्हैयालाल को अपनी सिलाई की दुकान पर काम करते हुए भय या आशंका बनी रहती थी कि उसके साथ कुछ अप्रिय घट सकता है।
 
भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा की गई टिप्पणी से कन्हैयालाल का संबंध जाने-अनजाने या असावधानी से जुड़ गया होगा! उसने अपने को असुरक्षित महसूस करते हुए पुलिस से सुरक्षा की मांग भी की थी। भंवरलाल तो पूरी तरह से बेफ़िक्र था। न तो उसका संबंध किसी आपत्तिजनक टिप्पणी से था और न ही उसने किसी तरह की सुरक्षा की मांग की थी। वह फिर भी मारा गया! आश्चर्यजनक यह है कि दोनों ही हत्याओं के वीडियो बनाकर जारी किए गए।
 
हुकूमतों के कथित पक्षपात के विपरीत हमारी आत्माएं भंवरलाल और कन्हैयालाल दोनों के साथ बराबरी से जुड़ी हैं। हम दोनों हत्याओं की नृशंसता के बीच सामान्य नागरिक की हैसियत से कोई फ़र्क़ नहीं करना चाहते हैं। हम अनुमान लगा सकते हैं कि भंवरलाल और कन्हैयालाल एक जैसे नेक इंसान रहे होंगे।
 
दोनों को ही दो अलग-अलग जगहों पर एक जैसी नज़र आने वाली परिस्थितियों का शिकार होना पड़ा। कन्हैयालाल के चले जाने का दुःख मनाते हुए भंवरलाल को इसलिए विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि अगर चीजें नहीं बदली गईं तो सड़क पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति उसी तरह की मौत को प्राप्त हो सकता है और फिर हत्यारे के द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो से ही उसकी शिनाख्त हो पाएगी।
 
कन्हैयालाल, भंवरलाल या इन दोनों के पहले हुईं मौतों के लिए असली ज़िम्मेदार किसे माना जाना चाहिए? क्या उन तमाम धार्मिक नेताओं, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों आदि को बरी कर दिया जाना चाहिए, जो धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता की राजनीति करना चाहते हैं? 
 
धार्मिक नगरी हरिद्वार में दो साल पहले हुई साधु-संतों की ‘धर्म संसद’ में अत्यंत उत्तेजना के साथ हिंदू बहुसंख्यक समुदाय का आह्वान किया गया था कि उसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाना होगा। हरिद्वार की इस विवादास्पद ‘धर्म संसद’ के बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, सेवानिवृत्‍त अफ़सरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों आदि ने चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की थी कि वे अपनी चुप्पी तोड़ें।
 
यह आशंका भी ज़ाहिर की गई थी कि देश को गृहयुद्ध की आग में धकेला जा रहा है। न तो प्रधानमंत्री, आरएसएस के किसी नेता अथवा सत्तारूढ़ दल के मंत्री-मुख्यमंत्री ने ही हरिद्वार और उसके बाद अन्य स्थानों पर उगले गए धार्मिक ज़हर की निंदा की।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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