अटलबिहारी वाजपेयी की पूरी जीवन यात्रा के मूल्यांकन के लिए कुछ आधार बनाना होगा। उनको भारतीय राजनीति का शलाका पुरुष मानने वाले बिलकुल सही हैं। राजनीति में इतना लंबा दौर गुजारने के बावजूद वैचारिक प्रतिबद्धता रखते हुए, घोर विरोधियों के प्रति भी बिलकुल उदार आचरण एवं उसे जीवनभर कायम रखना तथा किसी से निजी कटुता न होना सामान्य बात नहीं है।
वस्तुत: आजादी के दौर के राजनेताओं में राष्ट्रीय राजनीति में वे अंतिम व्यक्ति बच गए थे। इसका असर उनकी सोच एव व्यवहार पर था। हालांकि वे एक विशेष विचारधारा के प्रतिनिधि थे, लेकिन राजनीति को देखने का उनका दृष्टिकोण आजादी के दौरान भारत के बारे में देखे गए सपने से निर्धारित था। आजादी के बाद जिन महापुरुषों के साथ उनको काम करने का अवसर मिला, उन सबका भी असर उन पर था। 1947 से लेकर लंबे समय तक देश में जो घटनाएं घटीं, भारत के सामने जो संकट और चुनौतियां आईं, उनसे निपटने के लिए तब के हमारे नेतृत्व ने जो कुछ किया, उन सबका गहरा असर अटलजी के मनोमस्तिष्क पर पड़ा।
जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जम्मू-कश्मीर यात्रा के समय वे उनके साथ थे। अटलजी ने कई बार कहा कि मुखर्जी ने उनको कहा कि जाओ और देशवासियों को बताओ कि मैं बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश कर गया हूं। जैसा कि हम जानते हैं, डॉ. मुखर्जी वहां से वापस नहीं लौटे। उनको गिरफ्तार कर लिया गया और संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई। उनके पिताजी एक कवि एवं रचनाकार थे जिन्होंने पुत्र के रूप में इनको उसी रूप में विकसित करने की कोशिश की।
संघ का प्रचारक बनने के बाद उन्हें 'राष्ट्रधर्म' पत्रिका से लेकर 'पाञ्चजन्य', 'स्वदेश' और 'वीर अर्जुन' जैसे पत्रों का संपादन करने का दायित्व मिला। इन घटनाओं का जिक्र करने का उद्देश्य यह बताना है कि अटलजी के राजनीतिक व्यक्तित्व निर्माण में सबकी सम्मिलित भूमिका थी, चाहे विपक्ष के नेता के रूप में हों, विदेश मंत्री के तौर पर या फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी संपूर्ण भूमिका में आपको यह सब परिलक्षित होता है।
1957 में पहली बार लोकसभा पहुंचने के बाद उनके भाषणों को देख लीजिए। उसमें जनसंघ की विचारधारा के अनुसार घटनाओं पर टिप्पणियां हैं, संघ के गीतों और उनकी कविताओं की पंक्तियां हैं किंतु कहीं भी पं. जवाहरलाल नेहरू या उनके साथियों के प्रति एक शब्द भी ऐसा नहीं है जिसे आप सम्मान को कम करने वाला कह सकते हैं। उस समय कश्मीर से लेकर पाकिस्तान, तिब्बत, केरल में राष्ट्रपति शासन... आदि ऐसे अनेक मुद्दे थे जिन पर जनसंघ और कांग्रेस के बीच सहमति नहीं हो सकती। किंतु संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति की मर्यादाओं का उन्होंने पूरा पालन किया।
1962 के युद्ध के समय जनसंघ के सारे प्रमुख नेताओं के साथ मिलकर अटलजी ने सरकार का साथ देने तथा कार्यकर्ताओं को देशभर में जितनी शक्ति हो, उसके अनुसार सरकारी मशीनरी का सहयोग करने का निर्णय किया। इसी का परिणाम था कि संघ के स्वयंसेवकों ने दिल्ली सहित कई शहरों की यातायात में सहयोग किया।
नेहरूजी अटलजी को बहुत प्यार करते थे। बकौल अटलजी, एक बार उन्होंने लोकसभा में कांग्रेस और नेहरू सरकार की नीतियों पर तीखा हमला किया। शाम को एक कार्यक्रम में नेहरूजी ने उनको देखा और कहा कि आज तो बहुत अच्छा भाषण मारा। यह जो उदार व्यवहार था नेहरूजी का उन पर, उसका असर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय अटलजी पूरी तरह सरकार के साथ खड़े थे। यहां तक कि आपातकाल में उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उस दौरान भी उन्होंने जो कविताएं लिखीं उनमें शासन की आलोचना तो है, पर इंदिराजी पर कोई सीधी निजी तीखी टिप्पणी नहीं। अटलजी के राजनीतिक काल में वह समय आया, जब 1977 में उन्हें फैसला करना था कि जनसंघ अलग होकर चुनाव लड़ेगा, गठबंधन में या फिर पार्टी का विलय कर दिया जाए? उस समय लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के अध्यक्ष थे।
किंतु अटलजी के प्रभाव से ही यह संभव हुआ कि जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। संघ के नेता भी अटलजी के कारण ही इसके लिए तैयार हुए। जनता सरकार के दौरान विदेश मंत्री के रूप में चीन और पाकिस्तान से संबंध सुधारने की उनकी कोशिश पर लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि आम धारणा यही थी कि ये तो पाकिस्तान और चीन के घोर विरोधी हैं। उस दौरान संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा में हिन्दी में भाषण देकर अटलजी ने इतिहास बनाया। मातृभाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
एक पत्रकार, कवि और दूसरी पार्टियों के नेताओं के साथ संबंध और संवाद का ही प्रभाव था कि जब उनकी पार्टी के सामने 1998 में सरकार बनाने का अवसर आया, तो उन्होंने एकसाथ कई पार्टियों को साथ लेकर सरकार के लिए एजेंडा बनाकर अपने 3 प्रमुख मुद्दों को बाहर किया। यही वह काल था, जब उन्होंने सरकार बनने के ढाई महीने के अंदर ही पोखरण में 11 और 13 मई 1998 को 2 नाभिकीय परीक्षण कराए। पूरी दुनिया इससे भौंचक्क रह गई। अमेरिका हक्का-बक्का था कि उसके उपग्रहों की नजर से इसकी तैयारी बच कैसे गई?
जाहिर है, उसकी तैयारी में वाजपेयीजी, उनके रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस तथा वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने मिलकर इतनी गोपनीयता बरती कि यह मिशन सफल हो सका। अटलजी को मालूम था कि इसकी प्रतिक्रिया दुनियाभर में भारत के विरुद्ध होगी। अमेरिका से लेकर जापान, ऑस्ट्रेलिया सबने भारत पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया।
वही समय एक नेतृत्व की परीक्षा का था। वाजपेयी अपने कदम को पीछे हटाने को तैयार नहीं हुए और विदेश मंत्री जसवंत सिंह के माध्यम से इतना सघन कूटनीतिक अभियान चलाया कि धीरे-धीरे अमेरिका, भारत से सहमत हुआ और अन्य देशों के रवैये में भी बदलाव आया। बाद में यूपीए सरकार के समय अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश एवं हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ जो नाभिकीय सहयोग-समझौता हुआ, उसकी नींव अटलजी ने ही डाल दी थी।
अटलजी के काल का सबसे बड़ा प्रयास जम्मू-कश्मीर को सामान्य स्थिति में लाने तथा पाकिस्तान से हर हाल में संबंध सुधारने की कोशिश के रूप में सामने आया। स्वयं बस लेकर लाहौर जाने का ऐतिहासिक कदम उठाया और मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर यह संदेश दिया कि देश के रूप में भारत, पाकिस्तान को स्वीकार करता है। हालांकि वहां से वापसी के कुछ समय बाद ही कारगिल युद्ध आरंभ हो गया। बिना सीमा पार किए पाकिस्तान को युद्ध में पूरी तरह परास्त करना तथा इस दौरान दुनियाभर का समर्थन जुटाने का कौशल हमारे सामने है।
संसद पर हमले के बाद सीमा पर सेना को हमला करने की अवस्था में खड़ा कर पाकिस्तान को कुछ घोषणाएं करने को विवश किया। इसके बावजूद जनरल परवेज मुशर्रफ को पहले आगरा बुलाया और बैठक असफल होने के बावजूद प्रयास नहीं छोड़ा। अंतत: जनवरी 2004 में वे दोबारा पाकिस्तान गए और मुशर्रफ ने समझौता में स्वीकार किया कि आतंकवाद के लिए वे अपनी भूमि का उपयोग नहीं करेंगे। पाकिस्तान के साथ समग्र वार्ता की शुरुआत हुई।
आर्थिक नीतियों में उदारवाद के वे समर्थक थे तथा संघ एवं उससे जुड़े अनेक संगठनों के तीखे विरोध के बावजूद वे उस पर कायम रहे। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने विरोधी नेताओं के तीखे विरोध को झेलते हुए व्यवहार में कभी तीखापन नहीं लाया इसलिए उनके प्रति सभी दलों के नेताओं का सम्मान बना रहा।
आज अगर सभी दलों एवं विचारधारा के नेताओं के लोग अटलजी को लेकर द्रवित हैं, तो इसमें उनके पूरे जीवन के आचरण का ही योगदान है। अटलजी जैसे राजनेता का व्यक्तित्व वास्तव में अतुलनीय है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा और क्षमता तथा उन सबके होते हुए अहं से परे रहकर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति इतना समर्पित रहना सामान्य बात नहीं है।
ऐसे व्यक्ति को यह देश कभी भूल नहीं सकता। इतिहास में उनका नाम हमेशा सम्मान से लिया जाएगा। आज के नेताओं के लिए वे विचार और आचरण में प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे।