फ्रेंडशिप डे के बाद फ्रेंड्स की बात

फ्रेंड्स फॉर एवर???
 
सोशल मीडिया रिश्ते ‘प्रस्तुत’ करने का सर्वसुलभ और सबसे सस्ता साधन है। दोस्ती फिर इससे अछूती कैसे रहती? लोगों ने खूब दोस्ती का प्रदर्शन किया। कुछ सच्चे, कुछ समय से बने। ऐसे ही कुछ उदाहरण देखने को मिले वीडियो के रूप में जिनके टाइटल थे ‘फ्रेंड्स फॉर एवर’। आश्चर्य इस बात का था कि जिनके ये वीडियो थे उसमें उन लोगों के साथ फोटो डाले गए थे जो जुम्मा-जुम्मा साल छः महीनों के ही साथी थे। वे लोग अपने पिछले कार्यस्थल पर लगभग बारह, पच्चीस साल रहीं। साथ खाया-पिया। सुख-दुःख बांटा। पढ़ा-लिखा। डॉक्टर डिग्री हासिल की जिसमें इनके साथियों का समर्पण और सहयोग भी शामिल था। नौकरी से लेकर पारिवारिक कष्टों तक में ये पुराने साथी बराबरी से खड़े रहे, पर मजाल है किसी एक भी साथी का उसमें भूले से भी नाम या फोटो आया हो। 
 
जब काम था तब वे शायद इनके लिए ‘फ्रेंड्स फॉर एवर’ रहे होंगे। और यही ऐसे लोगों का मूलमंत्र रहता है। ये लोग दोस्ती को ‘यूज़ एंड थ्रो’ के फार्मूले से निभाते हैं। ऐसे लोग चापलूसी का औजार लिए चलते हैं। मक्खन दोनों हाथों में और मुंह में शहद की फैक्टरी जिससे जुबान में आपकी तारीफों के रस टपकते रहते हैं। ‘अपना तो काम बनता’ की तर्ज पर ये आपसे पारिवारिक रिश्ते भी बना सकते हैं। बहन, बेटी तक का रिश्ता गांठने में इन्हें शर्म नहीं आती। पर जैसे ही काम निकला कि ये लोग ही आपके सबसे बड़े शत्रु बन कर सामने आते हैं। आप ठगा जाते हैं क्योंकि आपने तो सपने में भी नहीं सोचा था उनके तथाकथित ‘आत्मीयता’ के प्रदर्शन से कि ये जो कभी आपको सबसे अच्छे दोस्त, फिर अपने ‘पेरेंट्स’ की जगह बताते हुए गर्व महसूस किया करते थे, सारी समस्याओं का रोना रो कर आपकी सहानुभूति और कृपा पाया करते थे वही आज आपको अपनी ‘निन्दास्तुति का आराध्य’ मानते हैं। जिन दोस्तों की “गैंग” पर कभी इन्हें गर्व था वही दोस्त इनकी ‘फ्रेंड लिस्ट’ से नदारद हैं।  
 
ये कैसी दोस्ती और दोस्ती का दिखावा है भाई? डाकन भी एक घर छोड़ देती है। याद करना, आभार मानना तो छोड़ें ये तो पहचानने से ही कतराने लगे हैं। ये दोस्ती तो वो मौसमी पौधा हुआ जो मौकापरस्ती की जमीन पर स्वार्थ की खाद, लालच के पानी से सींचा और फटाक से फल ले कर पौधा ही उखाड़ ले भागे। इतने सालों की साथ की नौकरी में आपको एक दोस्त भी न भाया? या आप ही दोस्ती के लायक न थे? पुराने दोस्त तो उन चावलों की तरह होते हैं जिनके पकने की खुशबू कृष्ण-सुदामा के दोस्ती की अनमोल भेंट चावलों की महक लिए होती है। आचार्य चाणक्य ने कहा है-
 
“कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥ 
 
अर्थात् न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं। 
 
समझना हमें चाहिए जो ऐसे लोगों की इन द्वेष भरी छूरियों से हलाल हो जाते हैं। माना कि मनुष्य ही ऐसा जटिल प्राणी है जिसकी फितरत समझना किसी के बस की बात नहीं पर पूर्वजों, पुरखों और विद्वान् गुनीजनों की बातें भी हमने याद रखनी चाहिए कि ‘ज्यादा मीठे में कीड़े पनपने की संभावनाएं ज्यादा होतीं हैं।

हमें अपनी भावनाओं और संवेदनाओं पर काबू रखना सीखना चाहिए। कुपात्र को दिया दान और अयोग्य से दोस्ती दोनों जानलेवा हो सकतीं हैं। क्योंकि ये धोखेबाज काले दिल के दोस्त आपके चरित्र हनन से भी बाज नहीं आते। आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने को सदैव तत्पर ये विषैले जीव आपके परिवार को भी निशाना बनाते हैं। ऐसा नहीं है की सच्ची दोस्तियां और रिश्ते इस धरती से उठ गए हैं। उनकी मौजूदगी ही तो इस धरती को विश्वास का पाठ पढ़ा रही है और उम्मीद का उजाला फैलाए हुए है। यही वफादारी तो जिन्दा रखे है इंसानियत को। दोस्ती और रिश्तों को कलंकित करते ये लोग श्राप हैं जो लगते हैं उन्हें जो दिल के सच्चे हैं, अपनेपन से लबालब, सभी को अपने प्यार से सींचते हैं, अपने अनुभव और परिचय से इन्हें बनाते हैं, ये भूल कर कि ये कलियुग है, यहां इन गुणों की जरुरत नहीं होती अब। 

ये एक सामान्य सी सच्चाई है। जो कभी न कभी आपके साथ भी बीती होगी। बदलते जमाने के साथ रिश्तों की परिभाषाएं भी बदली है। नहीं बदल पा रहे तो वो हैं हम या आप जो आसानी से इनकी दुर्भावनाओं का शिकार हुए जा रहे हैं। ईश्वर रक्षा करे और ऐसों को सद्बुद्धि प्रदान करें ताकि रिश्तों, दोस्ती के प्रति आस्था बनी रहे। 

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