पाठशाला से गुजरता यादों का बायस्कोप

जयदीप कर्णिक
पाठशाला, विद्यालय, स्कूल ... जहाँ हमारी ज़िन्दगी की कक्षा लगती है। दुनिया के मंच पर हमारी पहली दस्तक। संस्कार और सभ्यता का गुरुकुल। विद्यालय शायद सभी की ज़िन्दगी में अहम होते हैं। बहुत लोग शायद अपने शालेय जीवन को लेकर भावुक भी होते होंगे। पर मुझे हमेशा से लगता रहा कि मैं अपने स्कूल यानी केन्द्रीय विद्यालय को लेकर कुछ ज़्यादा ही भावुक हूँ। दीवानगी की हद तक। इस हद तक की इस भावुकता को बेशकीमती धरोहर मानकर उसे बहुत सावधानी से संजो कर रखा। जब जितना ज़रूरी हुआ उतना ही सतह पर आने दिया। ऐसे संभाला जैसे कि हम दिये की लौ को हवा से बचाते हैं। के वो पवित्र है। के वो इबादत के लिए है। के कोई भी नासमझी और उपहास का झोंका इसे हिला ना पाए।
हर कोई क्यों और कैसे समझेगा? वो स्कूल जिसने मुझे गढ़ा है, जिसकी कक्षाएँ और बरामदे धमनियाँ बनकर दौड़ते हों, जहाँ के अध्यापकों ने कुम्हार की तरह थपकी देकर आपको आकार दिया हो, जहाँ का मंच कर्मभूमि का योगेश्वर बनकर दुनिया के मंचों के लिए आपका पथ प्रशस्त करता हो, जहाँ के मैदान में चोट लगने के बाद बदन में समाई मिट्टी ख़ून के साथ ही रगों में दौड़ती हो ... उस स्कूल को अपने से बाहर निकालकर कैसे देखें और कैसे अभिव्यक्त करें?? शब्द कहाँ से लाएँ, किसे लेखनी बनाएँ? 
 
मेरे लिए अपनी पाठशाला का महत्व सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि मैं पहली से बारहवी तक पूरे बारह साल यहाँ पढ़ा... ये हाड़-मज्जा से परे एक बालक के किशोर और फिर युवा हो जाने तक उसे पालने वाले गर्भ का मामला है। हाँ, हम माँ के गर्भ से निकलकर अपने स्कूल के गर्भ में ही तो जाते हैं!! जैसे माँ की कोख़ में हमारी जैविकी तय होती है वैसे ही विद्यालय की कोख़ में हमारी सांसारिकी तय होती है। जैसे गर्भावस्था में माँ की ख़ुराक और व्यवहार हमारे शरीर और मन का सृजन करते हैं वैसे ही हमारे अध्यापक, सहपाठी और विद्यालय का वातवरण उन बीजों का अंकुरण करते हैं। यहाँ का खाद पानी तय करता है कि आप कितने गहरे और कितने ऊँचे जाएँगे। आपके माता-पिता तो केवल ये तय करते हैं कि आप किस स्कूल में पढ़ेंगे... आपको कैसे शिक्षक और कैसे दोस्त मिलेंगे ये तो नियति ने पहले से तय कर रखा होता है। ... और ये सब कितना अद्भुत, कितना चमत्कारी और कितना रोमांचक होता है!! कैसे-कैसे संयोग। ग़जब की दोस्ती, खतरनाक झगड़े, नादानियाँ, शैतानियाँ, मसूमियत, ग़लतियाँ, सबक, पिटाई, स्नेह, मार्गदर्शन, ऊर्जा ... ये सब और बहुत कुछ, सब एक जगह, एक साथ। 
 
ये महज संयोग नहीं है कि मेरा स्कूल इंदौर में नौलखा पर प्राणी संग्रहालय के ठीक सामने था। दोनों की चारदीवारी के बीच बस एक सड़क का फासला था। उधर के प्राणी और इधर के विद्यार्थी दोनों एक-दूसरे को देख सकते थे!! वो सड़क मानो यही कहती थी तुम्हारे और जानवरों के बीच बस इस स्कूल का ही अंतर है, वहाँ पढ़ लो तो ठीक नहीं तो तुम भी इधर के खाते में ही जमा हो.... समझ लो!! जिसे सही शिक्षा ना मिले, जो चैतन्य ना हो पाए वो तो मनुष्य जन्म लेने के बाद भी जानवर ही तो है!! केवल मानव शरीर ही तो आपके मनुष्य हो जाने की गारंटी नहीं है ना!! 
 
तो हम अपने स्कूल से हाथियों को नहाते देखते और शेरों को दहाड़ते सुनते। कुछ पढ़ते कुछ ऊधम-मस्ती करते कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला। अलग-अलग पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के हम सब जैसे एक भारत को जी रहे थे। ... और ये ही केन्द्रीय विद्यालय की खासियत भी है। जो वर्ग विभाजन हमें फीस के आधार पर स्कूलों में देखने को मिलता है – बड़े पब्लिक स्कूलों में धनाढ्य और वीआईपी किस्म के लोगों के बच्चे और घटती फीस के साथ ही इस स्तर के बच्चे उन स्कूलों में मिलेंगे। ये कभी समझ ही नहीं पाते कि भारत दरअसल क्या है? पर केन्द्रीय विद्यालय में ऐसा नहीं है – चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से लेकर जिले के डीएम तक के बच्चे एक साथ ही पढ़ते थे। हमारे साथ भी पढ़े। लैब असिस्टेंट से लेकर डीआईजी और कलेक्टर के बच्चे। पर ये हम आज सोच रहे हैं।
 
कौन किस वर्ग का है और किस जाति धर्म का, ये तो तब ख़याल भी नहीं आया। ना तो इससे दोस्तियाँ प्रभावित हुईं ना घरों में मनने वाले जन्मदिन के जश्न!! वो गहरे याराने जो बने तो बस ज़िन्दगी का सबब बन गए। कुछ दोस्त मिलते रहे, कुछ नहीं मिल पाए। ... पर दोस्ती की गहरी नींव पर खड़े रिश्ते मिलन के मोहताज़ होते भी कहाँ हैं। कितने भी दूर हों और कितने भी साल हो गए हों .......हैं तो सब एक ही सांसारिकी के गर्भ की संतानें!! और इस सांसारिकी के गर्भ यानी की अपनी पाठशाला के रिश्ते कितने मजबूत होते हैं, वो डोर ना दिखते हुए भी कितनी मजबूत होती है इसकी तस्दीक तब हुई जब हम ठीक 25 साल बाद फिर मिले!! .... और बस फिर क्या था यादों का बायस्कोप आँखों के सामने एक के बाद एक तस्वीर घुमाता चला गया। 
 
हम सब 1991 में बारहवीं कर के निकले थे। कुछ तो पहले ही चले गए थे। केन्द्रीय विद्यालय की एक दिक्कत ये भी है कि अभिभावकों के स्थानंतरण के कारण आना-जाना लगा रहता है। पर थोड़े समय के लिए ही सही, आप उसी गर्भ का अंश बन गए तो बस जुड़ गए!! तो बस एक हूक उठी और सब चले आए। जैसे वो प्रदीप सिंह जो छठी तक ही यहाँ था, पर सीधे लुधियाना से चला आया!! उसने तो 30 साल पुरानी दोस्तों की चिट्‍ठियाँ भी संभाल रखी हैं.... अब तक। ओम मिश्रा अमेरिका से आया तो बिना दोस्तों से मिले जा नहीं पाया। वो अदिति जो तब इनामदार थी और अब वैद्य है, शुरू में उसी ने कहा कि सब मिलते हैं, ऐन वक्त पर तबीयत ख़राब हुई, पर पुराने दोस्तों और सहेलियों से मिलने का जोश कैसे कम होता?? वो अक्षत मेहता भी सीधे इंग्लैंड से चला आया। सब किया उसने – धूम, ऊधम, धमाल, क्रिकेट, बैडमिंटन, फुटबॉल और जमकर पढ़ाई भी – और हाँ वो सबके टिफिन भी खा जाता था!! ऐसे ही वो सूर्यप्रकाश नाइजीरिया से चला आया था। चेतना जो सिर्फ इस मुलाकात के लिए दुबई से यहाँ आई थी!! गर्भनाल तो सबकी यहीं गड़ी थी!! 
 
हम सब अपनी पाठशाला गए, उसी कक्षा में बैठे, हाजिरी लगाई, प्रार्थना सभा के लिए इकट्ठे हुए। उसी शाम अपने परिवार सहित मिले। पुराने शिक्षकों से मिलना सबसे यादगार और भावुक क्षण था। अग्रवाल मैडम, दाते मैडम, थम्मन मैडम, नामजोशी मैडम, इंदापुरकर मैडम और एसपी शर्मा सर – इन सबसे मिलना, इनका आशीर्वाद लेना अपनी बैटरी को फिर से चार्ज करने वाला था। अग्रवाल मैडम की संस्कारों वाली शिक्षा उस गर्भशाला की स्वर्णिम देन थी। दुनिया की कोई गुरुदक्षिणा इन शिक्षकों के कर्ज को नहीं उतार सकती। 
फिर इतवार के रोज़ चोरल जाना मतलब एक शक्तिशाली चुंबक से फिर आपस में जुड़ जाने जैसा था। मानो सब बस इसी पल का इंतज़ार कर रहे थे। बैठे तो हम चोरल बाँध के किनारे थे पर दिलों के तटबंध जैसे खुल गए थे। मन के भाव बस बह निकले। निश्छल, निरागस, बहुत अपने और बहुत सच्चे!! पता कैसे चलता कि पिछले 25 सालों में कौन किस दौर से गुजरा है। स्कूल के गर्भ में साथ रहकर भी बहुत कुछ होता है जो अनकहा अनसुना रह जाता है। 
 
तमाम फोन कॉल, फेसबुक और व्हॉट्स एप किसी की भी ज़िन्दगी को यों बयाँ नहीं कर सकते जैसे कि आमने-सामने की यों बेलौस सी मुलाकात। नहीं तो कैसे पता चलता कि वो हेमंत पाल स्कूल में बहुत अच्छा ना कर पाने के अपने मलाल को हराकर कैसे कॉलेज और युनिवर्सिटी में सतत टॉप करता रहा? कि कैसे उसने अपनी मोहब्बत के लिए अपनों से ही जंग लड़ी और जीता। कैसे वो शशिभूषण पाहवा एक बड़ी दुर्घटना के बाद अब मजबूती से अपने पैरों पर खड़ा है और संघर्षों पर विजय पाकर पूरी ज़िन्दादिली से जी रहा है!! कैसे नितिन कायगांवकर ने सच्चे दोस्त के रूप में उसका साथ निभाया। ... कैसे मोना अपनी प्रतिभा को एक शिक्षिका और आकाशवाणी की उद्घोषिका के रूप में नए आयाम दे रही है? कैसे शोभना ने मोहब्बत और ज़िन्दगी दोनों का साथ पूरे समर्पण से निभाया है!! कैसे वो प्रियंका कुलश्रेष्ठ अपनी ज़िन्दगी को पूरी शिद्दत से जी रही है!! वो समिधा जो अब रायपुर में है और वैज्ञानिक बन गई है। उसके बेटे के शौक उसकी ज़िन्दगी का प्रतिबिम्ब है!! कैसे जोगिन्दर ने किस्मत से छिड़ी लड़ाई में खुद को विजयी बनाने की ठान ली है.... या वो महेन्द्र सरीन जो अपनी आँखों की समस्या से जीतने के बाद अब सीए बनकर सबके आँकड़े बाँचता है या वो राहुल थम्मन कैसे अपनी उद्यमिता को अपनी ज़िद से परवान चढ़ा रहा है।
 
सबकी अपनी बात है और अपनी दास्ताँ। हर एक की ज़िन्दगी जैसे एक क़िताब। और इसके सफहे इतनी आसानी से नहीं पलटे जाते, जैसे कि उस दिन सबने उलट दिए। दोस्ती के झोंके में कई पुराने सूखे गुलाब हवा में बिखर गए ... वो लम्हे जो दुनिया से रुखसती या उसके बाद भी ताज़ादम बनाए रखने की ज़मानत दे गए हैं। ... बात कुछ लंबी है, और भी बहुत सारी है पर जो ख़ुमारी है वो इस सब पर भारी है। फिलहाल तो गर्भ के ये मरासिम वक्त के साथ और भी गहरे हों इसी दुआ के साथ ये कबूलनामा भी – 
 
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ ना समझे ख़ुदा करे कोई!!
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