''हैलो, सर ! चरणस्पर्श...आपको जन्मदिन पर बहुत-बहुत शुभकामनाएं...आप हमेशा सेहतमंद रहें। आपकी कविताएँ हमेशा की तरह अंधेरों की तहों में दबी कसमसाहटों की आवाज़ बने...क़यामत के शोर में गुम शफ़्फ़ाफ़ ख़ामोशियाँ आपकी कविताओं के रूप में मुखर हों...रचनाएँ आपकी, लबबस्ता-आवारा ख़ुश्बुओं को एक-इक जिस्म में फ़राहम कर दें...हर्फ़-हर्फ़ आपके शाहकार का मज़्लूम-ओ-बेकसों के दामन को मोतियों से भर दे।''
सर, यानी चंद्रकांत देवताले जी के जन्मदिन पर यही कामनाएँ हैं। मगर यह शुभकामना संदेश पढ़कर मेरी तरफ हैरत से देखने की कोई ज़रूरत नहीं। मुमकिन है, देवताले जी का ज़िक्र आपके ज़ेहन में इस बरस की 15 अगस्त ताज़ा कर दे। आप दिमाग़ से सोचते होंगे, तो शायद कर भी दे। मगर मेरा ज़ेहन ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि मेरा और देवताले जी का दिमाग़ का नहीं, दिल का रिश्ता है ('था' नहीं लक्खूँगा)। यही वजह है कि दिल कहता है, मेरे लिए आज भी प्रतीक्षारत् हैं वो अपनी मेज़ पर। लिक्खी हैं जहाँ पर हमने अनगिनत कविताएँ। और रह गईं हैं अनगिनत कविताएँ लिखना शेष।
मैंने नहीं फाड़े सर के लिक्खे काग़ज़
इस बरस जून की 10 को भी बैठे थे हम। 11 कविताओं का ज़ख़ीरा सुपुर्द किया था मैंने। और पहले से रक्खी कई कविताओं में इन 11 कविताओं को मिलाकर 3 बंच भी बनाए थे शायद। एक ही कविता दो बार आने पर, इस बार सर से पूछकर मैंने ही फाड़ दी थीं थोड़ी-सी रफ दिखने वाली रचनाएँ। मेज़ के नीचे रक्खे डस्टबीन में फेंकी भी मैंने ही थीं। हर बार फेयर की जा चुकी कविता की पांडुलिपि या रफ कॉपी फाड़ने और डस्टबीन में फेंकने का काम सर ही किया करते थे, क्योंकि मैं मना कर दिया करता था। मुझसे सर की हैंडराइटिंग वाले काग़ज़ फाड़ने की हिम्मत नहीं होती थी, और उन्हें कूड़ेदान में फेंकने की तो बिल्कुल भी नहीं। सर मेरी इस नाज़ुक मिज़ाजी पर अक्सर मुझे डाँट भी दिया करते थे। डाँट भी ऐसी कि, मैं इस डाँट के सम्मोहन में बँधा जाता था। बात-बात में उनकी डाँट सुनने के लिए कुछ ऐसा करता कि सर मुझे फटकारें। और जैसे ही फटकार मिलती, मैं मन ही मन तृप्त हो जाता। बहुत ही अपनापन, बहुत ही मुहब्बत थी इस डाँट में।
तू खाली नाम का दरद है दिनेश
सर की इस डाँट में मेरे लिए मुहब्बत कितनी पैवस्त थी, उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है, बयाँ नहीं किया जा सकता। कई बार तो सर मेरे लिए अपनी फ़िक़्र सीधे-सीधे भी ज़ाहिर कर देते। वो कहते कि, ''मुझे तेरी बहुत परवाह रहती है यार दिनेश। कैसा हो गया है देख तू। तेरी हालत कितनी डाउन हो गई। आजकल कुछ खाता-पीता नहीं है क्या.......?'' एक बार इसी के चलते उन्होंने मुझे पर्ची पर ''प्रोटीनेक्स'' लिख कर दिया था। कहा था कि, ''फलाँ मेडिकल से मेरा नाम बताकर लेना, तो वो तुझे डिस्काउंट दे देगा। और देख, अलग-अलग फ्लेवर में आता है ये पाउडर, जो तेरको अच्छा लगे, ले लेना।'' और फिर एकदम से ट्रैक बदलते हुए कहते कि, ''ले चल यार कुछ काम भी कर लें अब। मुझसे ज़ियादा देर बैठा नहीं जाएगा। भोत कमजोर हो गया हूँ यार मैं, हद से बेहद। तेरको क्या पता। तू तो खाली नाम का दरद है। क्या मतलब तुझे मेरे दरद से।'' और इसी तरह छोटी-छोटी तुकबंदियों में अपनी बात बोलते-बोलते एकदम से मुँह पर हाथ रखकर बुक्का फाड़ हँस पड़ते। फिर देखते ही देखते खो जाते हम दोनों ही काग़ज़ों और कविताओं की दुनिया में।
मुक्तिबोध न होते, तो मैं भी न होता
काम करते-करते कभी-कभी नामदेव ढसाल, चंद्रकांत पाटिल, विजय कुमार, दिलीप चित्रे, इब्बार रब्बी, सुदीप बैनर्जी सहित दर्जनों नाम गिना देते। फिर सहसा पूछ बैठते, ''तूने इनके नाम सुने हैं क्या ?'' मैं इंकार कर देता। बस फिर क्या था, फायरिंग शुरू। ''तू कैसा आदमी है यार...कैसा उपासक है कला का...तूने इनके नाम तक नहीं सुने, जिन्होंने अपनी-अपनी कला के क्षेत्रों में ज़बरदस्त काम किया हुआ है।'' और फिर मुझे उनके बारे में बता भी देते। गजानन माधव मुक्तिबोध के ज़बरदस्त प्रशंसक थे। यहाँ तक कह देते कि, ''अगर मुक्तिबोध नहीं होते, तो मैं भी नहीं होता शायद।'' महाश्वेता देवी का ज़िक्र भी महान लेखिका के नाम से करते थे। और इस बीच अगर उनके किसी दोस्त का फोन आ जाए, तो बस पूछो मत। सबकुछ भूलकर लग जाते बातों में। चाहे कितना भी ज़रूरी काम क्यों न कर रहे हों हम। बात-बात में ठहाका मारकर हँसते, कभी-कभी कुछ फुसफुसाते भी। उस दोस्त से बाकी दोस्तों के भी समाचार लेते और बीच-बीच में जब याद आ जाते वो दोस्त भी, जिनकी स्मृतियाँ ही शेष थीं अब केवल, आवाज़ें नहीं, तो फिर बातों की गर्मी पर अचानक ही बादल घिर आते। शायद फिर बरस भी पड़ते अंदर ही कहीं। फोन रखने के बाद फिर हम काम पर नहीं बैठ पाते थे। मुझे भी सर आगामी बैठक से जुड़ी बातें तय करके रवाना कर देते और मुड़ जाते किताबों और यादों से भरे कमरे की ओर। उनके चेहरे पर उदासियों का मरुस्थल साफ दिखाई पड़ता। छुपा नहीं पाते थे वो कुछ भी। अंदर जो कुछ होता, साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता था बाहर। उन्हीं के चेहरे पर पढ़ी थी मैंने पहली बार, उम्र के उत्तरार्द्ध में विदा होते दोस्तों के जाने की पीड़ा और उस पीड़ा से पनपते अवसाद की कविता भी।
तुका ने आस्तिक बना दिया रे
सर नास्तिक थे। कह थे कि मैंने बचपन में जबसे भगत सिंह का लेख ''मैं नास्तिक क्यों हूँ?'' पढ़ा है, तब से मैं भी नास्तिक हो गया। उम्र का लंबा सफ़र उन्होंने इसी मन-मस्तिष्क के साथ गुज़ारा। मगर मैं उन बिरले लोगों में से हूँ, जिसने उन्हें आस्तिक होते और इस आस्तिकता को स्वीकार करते हुए देखा है। और ये चमत्कार किया था संत तुकाराम ने। दरअस्ल, सर ने कुछ ही समय पहले संत तुकाराम के अभंगों का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया था। इसी दौरान मैंने ये चमत्कारिक बदलाव देखा। ये उम्र और उस पर बीमारियों का घेराव, इसके बावजूद सर के भीतर काम करने की जो ऊर्जा मैंने उस समय देखी, अविस्मणीय है। तब मैं ''नईदुनिया'' में काम करता था। शाम को 4 बजे दफ़्तर जाता। उससे पहले रोज़ सुबह हम घंटों बैठ कर अभंगों पर मश्विरा करते, काम करते। साप्ताहिक अवकाश या छुट्टी के दिन शाम को भी अंधेरा होने तक बैठते। तब सर अक्सर कहा करते थे, ''विट्ठला विट्ठला.....मैं तो तुकामय हो गया रे दिनेश। तुकाराम ने मुझे आस्तिक बना दिया।''
ज़बरदस्ती ले ली थी मैंने सेल्फी
बहरहाल, जून की 10 को क़रीब डेढ़ या पौने दो घंटे की बैठक के बाद, फेयर करने के लिए और 3 कविताओं की पांडुलिपि दी थी सर ने मुझे। हर बार की तरफ फिर पूछा भी था, कि ''अब कब आएगा ?'' मैंने भी कह दिया था कि, ''किसी भी शनिवार या रविवार को आ जाऊँगा सर।'' इस पर सर कहते थे, ''ठीक है, आने से पहले फोन कर लेना लेकिन एक बार।'' फिर हम कमरे से बाहर आए। सर की ना-नुकुर के बावजूद मैंने सर के साथ ज़बरदस्ती सेल्फी ली। मैं सर के साथ अक्सर ऐसी ज़बरदस्ती कर लिया करता था और कुछ ऐतराज़ के बाद सर भी राज़ी हो ही जाया करते थे। सेल्फी के बाद चरणस्पर्श कर मैंने आज्ञा ली। बस्स, ये लम्हा ही सर से मेरी मुलाक़ात का आख़िरी लम्हा था। इंदौर पहुँचकर इस सप्ताह मैं ये कविताएँ फेयर नहीं कर सका। लिहाज़ा, मैंने सर को फोन पर इस सप्ताहांत उज्जैन आने में असमर्थता जताई। सर ने भी वात्सल्य भाव से कह दिया, ''कोई हरकत नहीं। कोई जल्दी नहीं है। आराम से कर ले। अगले हफ़्ते ले आना।'' सर के इस स्नेहभाव पर क़ुर्बान जाऊँ। मैंने जब-जब सर के पास उज्जैन आने में असमर्थता जताई, सर ने हर बार इसी स्नेहभाव से जवाब दिया। जबकि मैं जानता था कि ये रचनाएँ सर को जल्दी से जल्दी साहित्य अकादमी दिल्ली भेजना है, लेकिन उन्हें मेरी सहूलियत का भी बहुत ख़याल रहता। अफ़सोस, मोबाइल पर यह मेरी सर से आख़िर बात साबित हुई।
नहीं जुटा पाया हिम्मत ऑडियो सुनने की
सर से हुई बातचीत की पचासों ऑडियो रिकॉर्डिंग्स हैं मेरे पास। लेकिन हिम्मत एक भी ऑडियो को सुनने की नहीं है। पता नहीं कब जुटा पाऊँगा इन्हें सुनने की हिम्मत। हिम्मत तो कनु दीदी (सर की बड़ी बेटी कनुप्रिया दीदी) से बात करने की भी नहीं हो रही थी, लेकिन फिर भी कल मैंने फोन लगाया। सर से मोबाइल पर हुई बात के बाद दीदी से हो रही ये मेरी पहली बातें थीं। दीदी ने जैसे ही मेरी आवाज़ सुनी, बिखर गईं। ज़ारोक़तार रोने लगीं। ये ग़म दिल के किसी मुहाने पर ही रक्खा था जैसे। मेरी आवाज़ का लम्स पाकर जो आँसुओं की शक्ल में पलकों से उतर आया। मेरे, सर और काग़ज़-कलम के बीच कभी-कभी दीदी और आई भी आ जाती थीं। दरअसल, कई बार सर बड़ी मासूमियत के साथ दीदी से मेरी बेसर-पैर की शिकायत कर देते। फिर अगले ही क्षण दीदी की प्रतिक्रिया देखने को आतुर रहते। दीदी भी सर की हाँ में हाँ मिला देतीं। और मैं भी वात्सल्य रस का आनंद ले, मुस्कुराता हुआ वहाँ से गुज़र आता। बचपन की एक सुबह बंगाली मिठाई की ज़िद करने वाली कनु दीदी अब इतनी बड़ी हो गईं थीं कि सर उन्हें हमारे मसअले का निर्णायक बना देते।
तू अपना ख़याल रखना दिनेश
कितना लिक्खूँ, क्या-क्या लिक्खूँ, जितना लिक्खूँगा कम रहेगा। और जिस दिन धरोहर के रूप में मेरे संग्रहालय में संरक्षित सर की आवाज़ सुनने की हिम्मत जुटा लूँगा, उस दिन मुझसे फिर कुछ और लिखवा ही लेंगे सर। इसी के साथ आज एक सच और भी तस्लीम करता हूँ, कि सर के जाने के बाद मैं आज तक उनके घर जाने की हिम्मत भी नहीं कर पाया हूँ। मुझे आदत है उनके गेट पर लॉक खटखटाने के बाद उनके कमरे की जालीदार खिड़की के नीचे बने चौकोर खाने से आती उनकी आवाज़ सुनने की। मेरी आवाज़ सुनकर कहते, ''अच्छा दिनेश, रुक मैं भेजता हूँ किसी को।'' फिर या तो आई को, या दीदी को, या किसी और को गेट खोलने और मुझे भीतर तक सुरक्षित ले आने (पेट्स से) के लिए भेजते। अब, जब दुनिया कह रही है कि देवताले जी घर तो क्या, दुनिया के किसी कोने में नहीं मिलेंगे, ऐसे में इतना ज़हरीला घूँट उतार लेने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ। लिहाज़ा, फिल-वक़्त मैंने ने ख़ुद को समझाने के लिए बक़ौल सर, ये मान लिया है कि, ''दिनेश, दुनिया-वुनिया के चक्कर में मत पड़ा कर। तू तेरी देख। अपना ख़याल रख और अपने दिमाग़ से काम ले।'' सो, मैंने मान लिया है कि आज मैं सर को उनके 81वें जन्मदिन पर सेहतमंद रहने की शुभकामनाएँ दे रहा हूँ। और मुझे भी साफ़-साफ़ सुनाई दे रही है सर की आवाज़। वो कह रहे हैं, ''तू भी अपना ख़याल रखना दिनेश।''