पिछले दो से तीन साल में कोरोना का का एक पैटर्न रहा है। दिसंबर और जनवरी में इसकी आहट महसूस होती है और जनवरी-फरवरी में यह शुरू हो जाता है, मार्च और अप्रेल में यह चरम पर जाता है, शायद यह पैटर्न सरकार के स्वास्थ्य खेमे में बैठे हर अधिकारी को पता होगा।
जाहिर है, सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय में नियुक्त विशेषज्ञों को भी इस बारे में पूरी जानकारी होगी। लेकिन सवाल यह है कि जब हमें कोरोना वायरस के पैटर्न के बारे में पता है तो फिर हम इसके नियंत्रण के लिए जरूरी प्रयास क्यों नहीं करते।
अब तक हमारी तरफ से अंतरराष्ट्रीय उडानों पर प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं। ट्रेनों की आवाजाही को सुनिश्चित नहीं किया गया है। राज्यों के बीच भी आवागमन बेखौफ जारी है, और इन सब के बीच राजनीतिक पार्टियों के चुनाव प्रचार के लिए राजनीतिक गतिविधियों का दौर शुरू हो चुका है। धार्मिक यात्राओं पर भी कोई नियंत्रण नहीं है। आज ही वैष्णोंदेवी मंदिर में भगदड की वजह से 12 लोगों की मौत हो गई।
जहां तक नागरिकों का सवाल है तो वे बेखौफ और बे-मास्क बाहर आ जा रहे हैं। उन्हें देखकर लगता ही नहीं है कि कोरोना या ओमिक्रॉन वैरिएंट जैसा कोई संक्रमण अस्तित्व में है।
हम सरकार और नागरिक दोनों फ्रंट पर लापरवाह और बेखौफ नजर आ रहे हैं। और यह तब हो रहा है, जब हम दो साल तक एक भयावह त्रासदी से गुजर चुके हैं। हमने शवों की कतारें देखी हैं, हमने श्मशानों को ओवरफ्लों और दुनिया की सबसे व्यस्ततम जगह के तौर पर देखा है।
अगर हम पिछली भूलों और लापरवाहियों से सबक नहीं ले सकते हैं तो हम मनुष्य होने का दावा कैसे कर सकते हैं, और वो भी तब जब सवाल हमारे जीने और मरने का हो।
बतौर नागरिक हमें अपनी जिंदगी के लिए ही बचाव और प्रयास करना है। मास्क, सैनेटाइजिंग, सोशल डिस्टेंसिंग और वैक्सीनेशन जैसे बेहद मामूली लेकिन अहम नियमों का पालन करना है।
वहीं सरकार और इसके अधीन बने सिस्टम को अपनी प्राथमिकताएं तय कर के क्रियान्वयन करना है। इसमें कौन सा बडा टास्क है अगर हम यह सब समय रहते करते हैं।
लेकिन कोरोना को लेकर वो शिकन न तो सरकार और न ही नागरिक के माथे पर नजर आ रही है। ऐसे में क्या हम तीसरी लहर से बचने में सफल हो सकेंगे। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)