कोरोना काल की कहानियां : 'काली थैली' के खौफ ने मुझे जीना सिखाया

आशा पांडे दीदी धार्मिक प्रवृत्ति की ईश्वर के प्रति अति आस्थावान हैं। उन्हें पूजा-पाठ, व्रत-उपवास करते बचपन से ही देख रही हूं।जीवन के कई उतार चढ़ाव और संघर्षों में अपने-परायों के छल कपटों से दो-दो हाथ करती जीवन गुजारती रहीं। अपनी दोनों बेटियों को पढाया-लिखाया, आत्मनिर्भर बनाया। कोई ऐसा धार्मिक तिथि या त्यौहार का दिन ऐसा न होगा जो उनसे अछूता रहा हो।मान-मनौती पर उनकी अगाध श्रद्धा है। चाहे स्कूल, कॉलेज की परीक्षा का समय हो या परिजनों की कोई भी परिस्थिति।अनोखी मान मनौती रखतीं और शायद उनकी भक्ति की लाज रखते ईश्वर भी उनकी कुछ हद तक मुरादें तो पूरी करते ही, चाहे देर सवेर ही सही।
 
उनको कोरोना ने आ घेरा। उनकी उम्र लगभग 63 वर्ष से ऊपर है। पर स्वभाव माखन सा है। छोटी बहन और बेटियों के साथ रहने और सुलझे विचारों की होने के कारण सदाबहार है हंसमुख और ममत्व से भरी। न केवल वे बल्कि उनकी छोटी बेटी, दोनों जंवाई, पति और नातिन भी चपेट में आ गए। किसी को भी अस्पताल आसानी से न मिले। कुछ इंदौर तो कुछ भोपाल रहे ।पूरा घर तितर-बितर हो गया। केवल फोन ही संपर्क का माध्यम था।आशादीदी की तबियत ज्यादा गंभीर हो चुकी थी। ब्लडप्रेशर, थाईरोयड, गठिया, शुगर के साथ कोरोना ने भी हमला कर दिया।
 
आई. सी. यू. में उन्हें रखना पड़ा। जीवन की डोर उन्हें हाथों से छूटती लगने लगी। सांसों की घुटन गहराने लगी। उनकी बहन के घर बेटे की शादी की महीनों से की हुई तैय्यारी रखी की रखी रह गई। घोर निराश और उदास, खुद को और ईश्वर को कोसने लगीं। उन्हें बाकी अफ़सोस के साथ एक जो अजीब अनोखा भय और दुःख था वो जान कर आप आश्चर्य करेंगे। वो था सोशल मीडिया पर वायरल “काली थैली” में अंतिम संस्कार के लिए लाश की पोटली। उससे वे भयंकर रूप से खौफजदा हो गईं।उन्हें जीवन की अंतिम यात्रा ऐसी विभत्स और अकेलेपन की नहीं चाहिए थी। उन पोस्ट ने उन्हें इतना डरा दिया कि वे जीने की राहें तलाशने लगीं।उन्होंने कहा मरना तो जीवन का सत्य है ही पर ऐसे मरना मंजूर नहीं।बस ठान लिया उन्होंने कि सांसे चलती रहना चाहिए। सो आत्मबल के दम पर बहन के बेटे की शादी के कार्यक्रम फोन पर देखे। सभी परिजनों से मुलाकातें की। अपनी मासूम नातिनों के वीडियो देखतीं।जो उन्हें उमंग से भर देते। छोटी बहन और बेटियां लगातार उनके साथ पुराने मस्ती के किस्से याद करतीं, हंसतीं, नाचतीं। ताकि कोरोना का कष्ट कुछ कम हो और निराशा न फैले। उनके जंवाइयों ने बेटों से बढ़ कर कर्तव्यपालन किया। वो गद्गद हो चलीं अपनों के समर्पण और प्यार से। उनका परिवार में क्या महत्व है ये महसूस हुआ।
 
 वो बोलतीं हैं कि 'उस काली थैली' के खौफ ने मुझे जीना सिखाया। खुद की इच्छा भी इलाज के साथ काम करती है। धार्मिक और पूजा-पाठ करने वाली मैं अपनों के बीच प्राण त्यागना चाहती हूं।पूरी जिंदगी परिवार को दी है तो आखरी सांसें भी इन्हीं के बीच निकले ऐसी दिली इच्छा है। एक वैराग्य सा हो चला था मुझे। पर अपनों ने मुझे वापिस जीने का साहस दिया। लगने लगा था कि कुछ काम नहीं आता है न वैभव, विलास न सम्पन्नता न पहुंच। केवल अपने कर्म और अपनों के प्यार की ताकत के साथ खुद के निडर और सकारात्मक विचार। जिसमें पहले हम खुद अमल करें फिर दावा, दुआ और इलाज तो कारगर हैं ही.....
 
मैं उनकी बातें ध्यान से सुन रही थी और सोचने पर मजबूर हो रही हूं कि “खौफ” भी जीने की राह दिखाता है। कितनी अजीब दुनिया है हम मनुष्यों की। किसी बात का डर आपमें इतनी शक्ति पैदा कर देता है कि यमराज भी 'टाटा' कर के हंसते हुए शाबाशी देते निकल जाएं यह कहते हुए कि 'फिर मिलेंगे'...आज आशा दीदी घर हैं। अपनों के बीच। खुश हैं और अपने किस्से सुना कर दूसरों की राह में हिम्मत के बीज बो रहीं हैं जैसे मुझे और मैं आप सभी को....
 
घर में रहें, सुरक्षित रहें, आपदा का डट कर साहस से सामना करें, आत्मबल मजबूत रखें.... 
 

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