मौत हवा में तैर रही है। बेमौत मरना आसान और जीवन सजा में बदल गया है। यदि सांसें चल भी रहीं हैं तो कोई पूर्वजन्म के पुण्य कर्मों का प्रतिफल होंगी। जहां देखो वहां मृत्यु का साया मंडरा रहा है। आलम यह है कि फोटो साहित शुभकामना, बधाई सन्देश भी डराने लगे हैं।मौत कोई भेदभाव नहीं करती।उसके लिए सभी केवल शिकार हैं। अभी काल प्रबल है। ऐसे में सारे संचार, सूचना, संवाद साधनों में श्रद्धांजलि की भरमार है, संवेदना प्रकटीकरण पर चरम पर है।
मैं ये जानती हूं कि ये लिखने का विषय नहीं है। पर लोगों ने तो मजाक ही बना डाला है। जैसे ही किसी की असामयिक मौत की खबर मिलती है कि जुट जाते हैं उनके और उनके संग अपने नए पुराने फोटो को ढूंढने। धड़ल्ले से कोलाज, वीडियो वो भी गीतों के साथ बनाते और शुरू हो जाते हैं सोशल मीडिया, अपने वाट्सअप के स्टेटस पर सबसे पहले मैं.. की धिक्कार दौड़ में।
वाह!! मौत-मैय्यत में भी “क्रिएटिविटी”... अपने लम्बे लम्बे केप्शन में लगे महिमामंडन करने। चाहे पूरे जीवन उस व्यक्ति को कोसते रहे, चरित्रहनन करते रहे हों। इस सत्य से भी इंकार नहीं कि इनमें से कई सच्चे रहते होंगे। पर जिन्हें हम जानते हैं, जो ऐसा करते हैं उनके दोगलेपंथी का तो कोई इलाज ही नहीं।खैर मरे बाद इंसान भगवान हो जाता है ऐसी हमारी धारणा है। पर जीतेजी उसे नारकीय, नीच, महिलामित्रों, पुरुषमित्रों से संबंध, अड़ोस-पड़ोस, भ्रष्ट, घोषित करने और हमेशा टांग खींचने में आगे और निंदा रस का स्वाद लेने वाले रहे हों वो भी बढ़ चढ़ कर श्रद्धांजलि की दौड़ में हिस्सा ले रहे।
श्री सत्यानन्द निरुपम जी की पोस्ट में देखिये आपके जानने में किसी का देहावसान हो जाए तो कृपया न्यूज़ चैनल की तरह ब्रेकिंग न्यूज़ न चलाएं। उसके परिवार के सदस्यों की स्थिति क्या है, ख़बर के शोर का उनमें से किसी पर क्या असर पड़ सकता है, इसे समझना ज़रूरी है। अभी ऐसे मामले देखने में आ रहे हैं कि किसी का पूरा-पूरा परिवार कोविड संक्रमित है। कोई किसी अस्पताल तो कोई घर में है। सम्भव है, उनमें से कोई अपने आत्मीय के बिछड़ने का आघात सहने की स्थिति में न हो। उनकी जान ख़तरे में मत डालिए। ख़बरों की साझेदारी से ज़रूरी है, दुख की साझेदारी। सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास। क्या हम सामाजिकता भूलते जा रहे हैं?
सुप्रसिद्ध संवेदनशील लेखक, कवि आशुतोष दुबे की पोस्ट देखिए कितनी गहरी और गंभीर बात कही है- श्रद्धांजलि की उतावली बताती है कि आपकी दाढ़ में बुरी ख़बरों का स्वाद बुरी तरह से लग चुका है.
इसके बाद भी कुछ कहने सुनने का क्या बाकी जाता है? जब अकाल मौतों का उन्हीं के परिचित शवयात्राओं के फोटो मिस यू...मिस यू... कह कर डाले जा रहें हों। आत्मीय संबंधों का तमाशा न बनाएं... हर अलग व्यक्ति अपने नजरिये से अपने रिश्ते और उनके गुणों की व्याख्या करता जाता है। मरे बाद फजीते न करें, उनके और उनके शोकाकुल परिवार के। ये प्यार, ये सम्मान हम जीते जी ही प्रकट कर दें तो क्या ही अच्छा हो। ये अपनापन जीवित रहते ही दर्शा दें तो मजा आ जाए जिंदगी का। ये श्रद्धांजलि की आड़ क्यों? किसी को याद करने, उसकी अच्छाइयों को बखानने, गुण-गान करने के लिए उसके मरने का इन्तजार क्यों?
शायद सच यही है कि मरे बाद इंसान भगवान लगने लगता है और जीते जी शैतान...
सावधानी बरतें, कोरोना से बचने के उपाय करें, सतर्क रहें, कोरोना की दस्तक को पहचानें....