कोरोना ने अभी गति को विराम दे दिया है। विशेषतौर पर मनुष्य को एवं मनुष्य द्वारा नियंत्रित गतिविधियों, उपकरणों, यंत्रों, मशीनों साधनों को भी। कुछ वर्षों से मनुष्य की गति बहुत अधिक तीव्र हो गई थी। चारों तरफ भागमभाग, रेलमपेल। हर काई तीव्र गति से भाग रहा है- वाहनों में, पैदल, जहां देखो वहां गति। कोई रुकना ही नहीं चाहता। दोपहिया वाहन, चार पहिया वाहन, रेल में, वायुयान में, समुद्री क्रूज में, नदियों में, लिफ्ट में, सीढ़ियों में बस भाग रहा है। मंजिल पर तो सभी को जाना ही है, पर तीव्र गति से आपसे पहले। मगर कहीं तो विराम दो गति को। विकास भी तीव्र गति से, भावी पीढ़ी के बारे में, प्रकृति के बारे में, संसाधनों, जीव-जंतुओं के बारे में कोई नहीं सोच रहा। बड़े-बड़े सरकारी महकमे खुले हैं, वे भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े हुए हैं।
अपनी सुख-सुविधा, लालच के लिए मनुष्य किसी भी हद तक जाने को तत्पर है। गांधीजी ने कहा था, 'पृथ्वी मनुष्य की आवश्यकताएं तो पूरी कर सकती है, पर लालच नहीं'। भावनाएं, संवेदनाएं, करुणा, दया, प्रेम, रिश्ते सभी तो धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर हैं या लगभग खत्म हो चुके हैं। प्राचीन समय के वैदिक युग में भी ऐसा होता था, लेकिन उस समय यह सब अपने-अपने वचनों, नियमों व धर्मों से बंधे होने के फलस्वरूप मनुष्य इनका पालन करने में कभी-कभी असफल हो जाता था। लेकिन आज नियम, धर्म, वचन, कायदे-कानून, अच्छे-बुरे परिणामों के बारे में कोई नहीं सोच रहा एवं मैं आगे बढ़ जाऊं व येन-केन-प्रकारेण इच्छित वस्तु मुझे मिल जाए। आज हर कोई, हर किसी से आगे निकलना चाहता है। चाहे वह मनुष्य हो, समाज हो, जाति हो, राज्य हो, देश हो, मैं सबसे आगे और सबसे तेज होना चाहता हूं या तेजी से बढ़ना चाहता हूं संस्कृति-सभ्यता, नैतिक मूल्यों, परंपराओं सभी को ताक पर रखकर।
अपनी सुख-सुविधा, स्वाद, बहादुरी, अहंकार एवं विकास के नाम पर प्रकृति के साथ भरपूर खिलवाड़, प्रकृति का भरपूर दोहन, वनों को तहस-नहस, जल को प्रदूषित, वायु को प्रदूषित, भूमि को प्रदूषित, करोड़ों-अरबों जीव-जंतुओं का खात्मा। हर जगह मनुष्य अपनी बहादुरी दिखाकर अधिकार जमाना चाहता है। आकाश में, भूमि पर, समुद्र पर, भूमि के नीचे, समुद्र की गहराइयों में भी सृष्टि द्वारा रचित हर वस्तु पर कब्जा करना चाहता है। चारों तरफ सिर्फ मैं और सिर्फ मैं यही मनुष्य का अहंकार है। किसी को कुछ नहीं समझने वाले इंसान को यह नहीं पता है कि प्रकृति जब अपना रौद्र रूप दिखलाती है तो मनुष्य द्वारा विकसित सभी तामझाम, तकनीकी, प्रौद्योगिकियां काम नहीं आतीं और ऐसा होते हुए हमने अनेक बार देखा है, चाहे सुनामी हो, बाढ़ हो, चक्रवात हो, भूकंप हो, कोर्इ महामारी हो। आज हम इतने निष्ठुर, अहंकारी, असंवेदनशील, उदासीन, ममताविहीन व करुणाविहीन कैसे हो गए? जबकि हमारी परंपराएं, सभ्यता, संस्कृति, आचरण हमें प्रकृति के प्रति ऐसा करने की सीख कभी नहीं देते। हमारे शास्त्र, ग्रंथ, कोई धर्म भी ऐसा नहीं कहता है।
हमारे ऋषि-मुनि तो जंगलों में रहते थे। कंद-मूल व फल खाते थे, सादा जीवन बिताते थे। आज की सभ्यता उन्हें देखकर भले ही मुंह चिढ़ाए लेकिन वे सुंसस्कृत, विवेकशील एवं समझदार तो थे ही और उन्होंने ही हमारी सनातन संस्कृति का निर्माण भी किया था। गायत्री मंत्र में 'ॐ भू भव: स्व' में इच्छा प्रकट की गई है। एक आत्मनिवेदन है, एक सच्ची लालसा है, जो सूर्य, पृथ्वी, भुव एवं स्वर्ग तीनों लोकों को प्रकाशमान करता है। वह मेरी बुद्धि को भी दिव्य और प्रखर करे। सूर्य के तेज को बुद्धि के तेज से जोड़ने की कामना, प्रकृति के तत्व को संस्कृति से जोड़ने की कामना ही तो है।
वामन पुराण में तो सुबह उठते ही पांचों तत्वों का स्मरण करने की परंपरा पर जोर दिया गया है। पृथ्वी अपनी सुगंध फलों, फूलों, बहाव, अग्नि अपने तेज, अंतरिक्ष अपनी शब्द ध्वनि और वायु अपने स्पर्श गुण के साथ हमारे प्रात:काल को अपना आशीर्वाद दे, यही हमारी कामना है। अथर्ववेद में, जिस धरती पर वृक्ष, वनस्पति एवं औषधियां हैं, जहां स्थिर एवं चंचल सबका निवास है, उस विश्वंभरा धरती के प्रति हम कृतज्ञ हैं। हम उसकी स्वतंत्रता की प्राणपण से रक्षा करेंगे (अथर्ववेद 12.1.31)। यह है कृतज्ञता का भाव, जो हमारी सांस्कृतिक चेतना ने हमारे रोम-रोम में भर रखा है।
गीता में भगवान कृष्ण ने अपनी प्रकृति को अष्टकोणीय बताया है और इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के साथ-साथ मन, बुद्धि एवं अहंकार की भी गणना की गई है। लक्ष्य यह है कि पांचों तत्व मिलकर मन और बुद्धि को निर्मल रखें और अहंकार को संयमित करें। जल में कुछ विशेष गुण, लचीलापन, दृढ़ता, कांति, गंभीरता, शीतलता, शुद्धता, प्रजननशीलता, सातत्य और एकता है। युक्ति दीपिका में जल के गुणों का स्मरण करके मनुष्य के चरित्र में इन गुणों के विकास की कामना की गई है। उस वायु की आराधना की गई है जिसको लेकर लोग संसार में प्रवेश करते हैं और जिसे छोड़ते ही संसार से विदा हो जाते हैं (छांदोग्य उपनिषद 1.11.5)। वह अग्नि भी कितनी हितकारी (सूर्य) है जिसके प्रताप से जल वाष्प बनकर उड़ता है, फिर बादल बनकर वर्षा हाती है (शतपथ ब्राह्मण)। क्या हम जल को शुद्ध कर पा रहे हैं? कुओं, नदियों, तालाबों, जलाशयों को रसायनों, प्लास्टिक, मल-मूत्र, पूजन सामग्री व कचरे से प्रदूषित कर रहे हैं।
हमें पीने के लिए, नहाने के लिए, धोने के लिए तो साफ पानी चाहिए तो हम फिर नदियों, तालाबों, कुओं में कचरा, रसायन व प्लास्टिक डालकर गंदा क्यों कर रहे हैं? पानी का अनाप-शनाप दुरुपयोग, टॉयलेट के फ्लश में अत्यधिक पानी की आवश्यकता, वॉशिंग मशीन में, गाड़ियों को धोने में, बर्तनों को धोने की मशीन में अत्यधिक दुरुपयोग, तो फिर पानी को बचाते क्यों नहीं? एवं उसे साफ क्यों नहीं करते या रखते हों? वायु में हर रोज कारखानों से हजारों टन रसायनों का उड़ेला जाना, पृथ्वी पर चलते करोड़ों वाहनों से निकलती गैस, घरों, कार्यालयों, संस्थानों में, कारखानों में चल रहे लाखों-करोड़ों A.C द्वारा गर्म एवं विषैली गैसों का फेंका जाना क्या हम इन्हें रोक पा रहे हैं? इसे तो सिर्फ प्रकृति ही रोक सकती है। मनुष्य में इतना धैर्य कहां? विवेक कहां एवं सबसे बड़ी चीज समझ कहां?
प्रकृति समय-समय पर इशारा करती है कि अब बहुत हो गया। अब तो रुक जाओ, थोड़ा विश्राम कर लो। मनुष्य समझ नहीं पाया और परिणाम सबके सामने है। वनों में मनुष्य, जंगल काटने, खुदार्इ करने, खाने-खोदने, प्रकृति का अवैध दोहन, संसाधनों का दोहन करने पहुंच गया। लाखों-करोड़ों जीव-जंतुओं को बेघर कर दिया। उनकी शांति भंग कर दी और उन्हें चैन से रहने नहीं दिया जा रहा है। वे बेचारे भूले-भटके घर में आ टपकते हैं तो आदमखोर समझकर मार दिया जाता है। लेकिन यह नहीं पता कि सबसे बड़ा आदमखोर तो स्वयं मनुष्य है। क्या जीव-जंतुओं को जीने का अधिकार नहीं?
क्या प्रकृति पर केवल मनुष्य का अधिकार है? भारतीय संस्कृति के बीज मंत्र शुद्धि की भावना लिए हुए हैं। उनमें यज्ञ, सूर्य, अग्नि, जल, वायु, अश्वत्थ, तुलसी आदि की उपासना है। मनुष्य सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी एवं सृष्टि की श्रेष्ठतम कृति है। यदि वह प्रकृति का पोषण करे तो प्रकृति भी अपने खजाने को दोनों हाथों से लुटाने में संकोच नहीं करेगी। लेकिन क्या आज हम ऐसा कर रहे हैं? प्रकृति से पाना बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन देना या सहेजना नहीं चाहते। अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निरंतर एवं तीव्र गति से। विकास के नाम पर कोई भी रुकने का नाम नहीं ले रहा। अरे कहीं तो रुको (थांबा)। लेकिन नहीं, हमें अभी प्रकृति को रौंदते हुए आगे जाना है। वनों में प्रकृति का अटूट खजाना है और मन (यदि शुद्ध हो तो) शांति का भंडार है। भारतीय मन ने हमेशा वन की वंदना की है। वन ने संबल भी दिया है और सहारा भी। शक्ति भी दी है और साधना भी। राग भी, वैराग्य भी। कुल मिलाकर वन ने अपनी सारी संपदा उस मनुष्य के लिए जुटाकर रख दी, जो प्रकृति और संस्कृति का मेल करने के लिए आठों पहर आतुर रहता है।
प्रकृति का अपना रचना संसार है। वृक्ष, फल-फूल, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, झाड़-झंखाड़, आकाश में उन्मुक्त विचरण, जल में विहार और कुंजों में कलरव करते पक्षी, भूमि पर चौकड़ी भरते मृग-शावक, शाही चाल से चलते सिंह तथा मदमस्त हाथी और इन सबके बीच फैला एक नैसर्गिक परिवेश। ऋषि-मुनियों ने तपोवन की स्थापना कुछ सोच-समझकर ही की होगी।
जैन धर्म के उत्तर सूक्त 21/16 में प्रकृति की रमणीयता का वर्णन है। शरद ऋतु में कमल जिस प्रकार जल में निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार मनुष्य के संसार में रहते हुए कमल की भांति पानी में निर्लिप्त रहने के बावजूद मायाजाल में न फंसने के प्रति व्यक्ति को सावधान किया गया है। सिख पंथ का आविर्भाव प्रकृति की गोद में हुआ। गुरुनानक देवजी ने अपनी सुप्रसिद्ध उदासी (यात्राओं) में पर्वतों, घाटियों और सघन जंगलों व तीर्थस्थलों तक भ्रमण किया। आज हमने ऑक्सीजनरहित व विषैली गैसों से बने कांक्रीट के बड़े-बड़े जंगल खड़े कर दिए हैं। ईसा मसीह का बचपन प्रकृति की गोद में बसे नाजेरथ की हरियाली, निर्मलता, रंग-बिरंगे फूलों, स्वच्छ वायु व झीलों के बीच में व्यतीत हुआ। उनके उपदेशों में फल-फूलों और पशुओं का उल्लेख है। वराह पुराण में पेड़-पौधों, वनस्पतियों के रोपण, पोषण और संवर्द्धन को पुण्य कार्य माना गया है। ऐसा करने वाला व्यक्ति प्रकृति का वरदान पाने का हकदार है।
प्रकृति का पूजक उसका विनाश कभी नहीं चाहेगा। वैदिक युग में यज्ञ पद्धति के दौरान भी इस बात की वर्जना थी कि अनावश्यक रूप से कोई हरे वृक्षों को न काटे। स्कंद पुराण 20.8.3 के अनुसार आदिकारण के अलावा सभी प्रकार के पेड़ों को काटना निंदनीय है।
प्रदूषण और वनों के विनाश के कारण कई रोग उठ खड़े होते हैं। इसी विपदा के समय औषधियों के गुण वाली वनस्पतियां ही प्रकृति का संवर्द्धन और मनुष्यों के रोगों का निवारण भी करती है। मां की तरह प्रकृति भी बदला लेना नहीं चाहती। हमारी सांस्कृतिक चेतना भी हमें यह बताती है कि प्रकृति में रक्षण का मतलब मानवता का रक्षण है। लेकिन जब प्रकृति के साथ, मां के साथ ज्यादा दुर्व्यवहार होता है तो वह सबक सिखाने के लिए चांटा तो मार ही सकती है कि 'बेटा अब तो संभल जा।' पद्म पुराण में उन व्यक्तियों को निश्चित रूप से नर्क का अधिकारी माना गया है, जो जीव हिंसा करते हों या कुओं, तालाबों, नदियों या उद्यानों को प्रदूषित करते हों।
चरक संहिता के अनुसार उस जल को अत्यधिक प्रदूषित माना जाना चाहिए, जब वह गंध, रंग, स्वाद एवं स्पर्श आदि में विकृत हो, बहुत चिपचिपा हो अथवा पशु-पक्षियों तक से परित्यक्त व आनंदरहित हों। पशु जहां अपना पेट भरने के लिए दूसरे पशुओं की हत्या करते हैं, मनुष्य केवल जीभ के स्वाद के लिए या चमड़ा प्राप्त करने या केवल अपनी बहादुरी सिद्ध करने के लिए ही पशुओं का शिकार करते हैं।
भारतीय संस्कृति का मूल स्वर अहिंसा है। प्राणीमात्र की रक्षा करना हमारी सांस्कृतिक विरासत है। जैन मत की अहिंसा की कीर्ति सारे संसार में व्याप्त है। प्रश्न व्याकरण 3/2 के अनुसार 'प्राणवध हिंसा चंड है, रुद्र है, शूद्र है, अनर्थ है, करुणारहित है, क्रूर है और महाभयंकर है।' जैन धर्म बौद्धिक अहिंसा को भी अनिवार्य बताता है। महात्मा ईसा ने भी कहा कि किसी की हत्या मत करो, व्यभिचार मत करो एवं अपने माता-पिता का आदर करो। इस्लाम क्षमा और दया के भावों का प्रतिपादन करने वाला विश्व का अनूठा धर्म है। विष्णुपुराण- हे दुष्टात्मा, यदि तुमने किसी पक्षी को भूनकर खाया तो समझ लो तुम्हारे सारे यज्ञ, पूजा-पाठ, तीर्थयात्राएं और पवित्र नदियों में स्नान व्यर्थ हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में पृथ्वी की पीड़ा- 'मैं उन दुष्टों के भार से दबी हुई हूं, जो पशुओं की हत्या करते हैं, देशद्रोही व लालची हैं और ऐसे व्यक्ति मुझ पर भार हैं।'
क्या ये हम सभी रोक पा रहे हैं या स्वयं नहीं कर रहे हैं? हमने पशु-पक्षियों के निवास स्थानों पर कल-कारखाने, निवास व भवन खड़े कर दिए। क्या उनका श्राप हम नहीं ले रहे हैं? प्रकृति के साथ विश्वासघात का परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा।
आज हम विकास, सुख-सुविधाओं के नाम पर प्रदूषण फैला रहे हैं। कोई भी वस्तु शुद्ध नहीं रही। प्रदूषण की यह भयावहता आखिर किसके लिए अभिशाप बन रही है? हमारे लिए एवं हमारी अगली पीढ़ियों के लिए ही तो। हमें अपने स्वार्थ व लालच पर अंकुश लगाना सीखना होगा। हमें इस विकास की तीव्र गति (हम विनाश की तीव्र गति को बढ़ने को ही विकास मान रहे हैं) को रोकना होगा। पूरे विश्व में हर कोई तीव्र गति से काम करना चाहता है। कहीं तो मंजिल होगी या मंजिल ही नहीं है?
आज 21वीं सदी में हमने क्या पा लिया? एक अनजान वायरस ने पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया है। विशेषतौर से उन विकसित देशों को, जो आज उन्नत प्रौद्यौगिकियों से लैस हैं। वायरस की उत्पति का अभी तक पता नहीं चल पाया है और न ही कारगर उपचार या दवाई की खोज की जा सकी है। हालांकि ऐसी महामारियों का इलाज खोजने में बहुत वक्त लगता है।
आज हम वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल अर्थात जिस पंच महाभूत से हमारे शरीर का निर्माण हुआ है, उसे हम प्रदूषित कर चुके हैं एवं करते जा रहे हैं। आज व्यक्ति 'पढ़ा-लिखा अनपढ़' बन गया है। ऐसी-ऐसी चीजें खा रहा है, ऐसे-ऐसे जीव-जंतुओं का भक्षण कर रहा है, जो शास्त्रों के नियमानुसार वर्जित हैं। जानवरों के साथ निर्मम अत्याचार, फैशन, स्वाद, वस्त्र, सजावट, दवाइयां, बहादुरी के लिए। प्रकृति, मांसभक्षियों एवं घास खाने वाले जंतुओं का अपना एक पारिस्थितिक तंत्र (ECO– SYSTEM) है एवं ये सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। लेकिन मनुष्यों ने प्रकृति का पुरा संतुलन ही बिगाड़ दिया है। जंगली जानवर खत्म, तो जंगल-चरागाह भी खत्म। लेकिन कहीं तो आपको रुकना ही होगा।
आज हर तरफ शोर है- कारखानों का, वाहनों का, मशीनों का, A.C. का, बढ़ती लोगों की भीड़ का, तेज ध्वनि में संगीत सुनने का, धार्मिक स्थानों व स्थलों पर बड़े-बड़े स्पीकरों का कानफोडू शोर। चारों तरफ बस शोर, शोर एवं शोर। बीमार, बुजर्ग, पढ़ने वाले बच्चों की क्या किसी को चिंता है? या पालतू जानवरों व पक्षियों की जो शोर से डरते हैं? क्या किसी को भी शांति से रहने का अधिकार नहीं है? नवजवान युवक-युवतियां तीव्र गति से वाहन चलाते, कानों में स्पीकर लगाकर घूमते, वाहनों में चलते, जल्दी से जल्दी पहुंचने की चिंता। क्या धैर्य नाम की चिड़िया लुप्त हो गई है? अरे भाई कहीं तो रुको, किसी को तो छोड़ो या अपने आनंद-स्वार्थ के लिए कुछ भी करेंगे? लेकिन आप नहीं रुकोगे तो प्रकृति आपको रोक देगी।
अब बैठे रहो चुपचाप पिंजरे में बंदर बनकर। न्यूयॉर्क, वॉशिंगटन, लंदन, शंघाई, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बर्लिन, मेड्रिड, रोम, बीजिंग जो रफ्तार के शहर माने जाते हैं, जहां जिंदगी रुकती नहीं थी। विकसित देश, जो निरंतर गति से चल रहे हैं, तीव्र गति से, वहां सब कुछ बंद। लोग खाने-पीने के लिए तरस गए। सब्जियों के लिए तरस जाएंगे, दूध के लिए तरस जाएंगे। आज मनुष्य ने गाय-भैंसों को भी नहीं छोड़ा। उनको ऑक्सीटॉसिन के इंजेक्शन लगाकर पूरे का पूरा दूध ही निचोड़ लिया है। ये कहां की मानवता? पशुओं के प्रति क्रूरता सिर्फ अपने व्यवसाय एवं स्वार्थपूर्ति के लिए? अरे, कहीं तो रुको। जानवरों, पशु-पक्षियों के लिए निर्मम मनुष्य स्वयं मनुष्य के लिए निर्मम बन गया है। कहीं तो गति थोड़ी धीमी करो।
आज हम अपनों के लिए ही पराए हो गए। चाहकर भी जाकर मदद नहीं कर पा रहे हैं, पहुंच नहीं पा रहे हैं। क्या आपने ऐसा कभी सोचा था कि अपनों की मृत्यु पर भी पहुंच नहीं पाएंगे या उस घड़ी में साथ नहीं रहेंगे? 2 महीनों से घर में कैद होकर पड़े हैं। जानवरों व पशु-पक्षियों को तो कैद करके रख लेते हो, अब हमारे साथ भी यही हो रहा है। आपने विश्राम नहीं लिया, तो लो अब प्रकृति ने ही विश्राम दे दिया, गति रोक दी है। भविष्य में विराम व विश्राम जरूरी है। खान-पान में, तेज चलती जिंदगी में, अहंकार में, हिंसा में, चाहे वह बौद्धिक हिंसा ही क्यों न हो, संयम रखना ही होगा। प्रकृति ने ऐसा झटका दिया कि अपने ही अपनों के लिए तरस गए।
आज का युग विपरीत दिशा में जा रहा है। हर व्यक्ति रातोरात धनवान बनना चाहता है येन-केन-प्रकारेण। उसे धीरज से कुछ लेना-देना ही नहीं है। उसकी अपेक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं स्पर्द्धा के इस युग में धैर्य रखने ही नहीं देतीं। व्यक्ति केवल भागता है, चलता नहीं। आओ, अब हम इस दौड़ को थोड़ा धीमा करें या विश्राम लें। संयमित जीवन एवं हमारी प्राचीन संस्कृति व परंपराओं का पालन करें। घर में घुसने से पूर्व जूते बाहर रखना, बाहर से आने पर हाथ-पैर धोना, नमस्कार करना, सूती वस्त्रों का प्रयोग, घर में बना भोजन, स्वाद पर लगाम, स्वाद के लिए जीव हत्या कम करें व शाकाहारी बनें।
विनाश के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वालो, अभी भी समय है कि चेत जाओ। लौट आओ पुन: प्रकृति की ममतामयी गोद में। उदारता व करुणा की बगिया में। स्नान करो प्रेम के सरोवर में। आनंद लो वसुधा के स्नेहिल दुलार में। इसी में तुम्हारा कल्याण है। अत: एक बार पुन: थांबा (मराठी में थांबा अर्थात रुक जाओ।)