Coronavirus: फरमान! कोरोना बीच गुरुजी बांटे घर-घर ज्ञान...

जब समूची दुनिया कोरोना के संक्रमण काल को झेल रही हो, उस दौर में नौनिहालों और देश के भावी भविष्य के शिक्षा की चिन्ता स्वाभाविक है, होनी भी चाहिए। लेकिन जहां एक वायरस के दुष्परिणाम से उबरना तो दूर ठीक-ठीक दवा तक न मालूम हो वहीं ऑनलाइन की नई बला को बुलाना कितना सही है? सच तो यह है कि इस बारे में अभी तो जाहिर तौर पर किसी को ज्यादा नहीं पता है। लेकिन जैसा नजर आने लगा है, आधी अधूरी तैयारी के बीच सवालों से घिरी ऑनलाइन शिक्षा कहीं अभिमन्यु के चक्र भेदन सी न बन जाए?

ऑनलाइन शिक्षा पर हर कहीं जबरदस्त असमंजस के बीच अपने-अपने तर्कों और सुझावों का राग अलापा जा रहा है! जहां निजी स्कूलों की चिन्ता महज उनकी फीस उगाही की है वहीं सरकारी स्कूलों में अफसरों की आंखों में मुफ्त में बैठे पगार लेते खटकते टीचर हैं।

साफ है कोरोना के जबरदस्त संक्रमण काल में भी देश में बच्चों के साल बरबाद होने की जो चिन्ता इस वक्त दिख रही है, काश वैसी चिन्ता सामान्य काल में पढ़ाई के स्तर और सरकारी स्कूलों की दुर्दशा को लेकर की गई होती तो बात समझ आती। लेकिन जब सरकारी हुक्मरान एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठकर बेतुके और अप्रासंगिक फरमान जारी करें तो लगता है कि ऐसी रस्म अदायगी में आगे नूरा कुश्ती कोरोना और शिक्षा के बीच होनी है।

सच तो यह है कि देश भर में मार्च के दूसरे हफ्ते में एकाएक स्कूल, कॉलेज बन्द कर दिए गए। कई जगह परीक्षाएं आधी, अधूरी रह गईं। नतीजन बिना वक्त गवांए ऑनलाइन शिक्षा को बेहतर विकल्प मान आनन-फानन में आदेशों का सिलसिला शुरू हो गया।

देखते ही देखते चंद दिनों में पूरा देश ऑनलाइन शिक्षा से रंगा दिखने लगा। वहीं चंद दिनों में इसको लेकर तमाम विसंगतियाँ और दूसरे नुकसान भी सामने आने लगे। हफ्ते भर में समझ आ गया कि बिन गुरू ज्ञान महज परिकल्पना नहीं वास्तविकता है (यह अलग विस्तृत चर्चा का विषय है)।

वो दुष्परिणाम और शिकायतें भी तुरंत सामने आने लगीं जिनमें उन हाथों में मोबाइल आसानी से पहुंचने का गुस्सा था जिसको लेकर कल तक बच्चों को कितनी उलाहना, समझाइश देने के साथ नजर रखी जाती थी। कहने की जरूरत नहीं ऑनलाइन शिक्षा बिना मोबाइल संभव नहीं और गूगल के पिटारे में कुछ भी असंभव नहीं। कहीं बच्चों को पढ़ाई कम गेम ज्याद खेलते देखा गया तो कहीं प्रतिबंधित वेबसाइट्स तक पहुंचने का दर्द भी अभिभावकों ने छलकाया।

शुरू में कुछ राज्यों में प्री-प्रायमरी और प्रायमरी के बच्चों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई प्रतिबंधित कर दी गई। लेकिन जल्द ही इसकी तोड़ भी निकाल ली गई. इस मामले में मप्र सबसे आगे निकला। जहां राज्य शासन के 31 जुलाई 2020 तक स्कूलों को शुरू नहीं करने के पुराने आदेश के बावजदू 6 जुलाई से राज्य शिक्षा केंद्र ने ‘हमारा घर, हमारा विद्यालय’ अभियान शुरू कर दिया। तर्क दिया गया कि विद्यार्थियों का नुकसान न हो।

इतना ही नहीं यह हुक्म जारी हुआ कि जिन विद्यार्थियों के पास स्मार्ट फोन नहीं है उन्हें शिक्षक घर जाकर दिखाएंगे और उनके बड़े भाई-बहन तथा बड़े-बूढ़ों को भी इसके लिए प्रेरित करेंगे। इतना ही नहीं हर रोज 5 परिवारों से शिक्षकों का संपर्क होगा. रोज घरों में थाली बजाकर कक्षाएं शुरू करानी है। आदेश मिलते ही किंकर्तव्यविमूढ़ शिक्षकों ने गली, मोहल्ले में पहुंच जगह तलाशनी शुरू कर दी। किसी को जगह मिली तो कहीं जगह न मिलने से पेड़ों के नीचे ही थाली बजाकर कक्षाएं शुरू कर दीं।

पूरे मप्र से ऐसे नजारे आने शुरू हो गए। इस फरमान की जमकर आलोचना हुई तो उपहास भी कम नहीं हुआ। लेकिन ऑनलाइन-ऑफलाइन को मिलाकर बीच का यह फण्डा मप्र में जारी है। ऐसे सिस्टम को न तो पूरी तरह से कक्षा ही कह सकते हैं और न ही डिजिटल क्लास। रोज तस्वीरें खींचनी हैं। जनशिक्षा केन्द्र के वाट्स एप ग्रुप में पोस्ट करनी है। जाहिर है बच्चों को पढ़ाते हुए शिक्षक को रोजाना ताजी तस्वीर भेजनी है यानी हर दिन कपड़े बदले हुए होंगे तभी साबित होगा कि तस्वीर नई है।

यह तो हुई प्रायमरी से लेकर मिडिल स्कूल के बच्चों की ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ की कहानी। वहीं हाई स्कूल और हायर सेकेण्डरी स्कूल के विद्यार्थियों को वाट्स ऐप पर लिंक भेजी जाती है जिसे देखकर उसे पढ़ना है। इस पूरी अधकचरी व्यवस्था का फीड बैक भी लिया जाता है। लेकिन एक बात यह भी चर्चाओं में है कि चाहे प्रायमरी से मिडिल हो या हाई और हायर सेकेण्डरी, जो लिंक भेजी जाती है वह कहां से ली जाती है, उसका स्त्रोत क्या है और लिंक को रिकमण्ड किसने किया?  जाहिर है सवाल उठने हैं क्योंकि यू-ट्यूब चैनल को ज्यादा देखने पर उसके ओनर को पैसे मिलते हैं। इसके अलावा रेडियो और दूरदर्शन पर सरकारी चैनलों से दृश्य और श्रव्य माध्यम से भी शिक्षा पहले से दी जा रही है।

लेकिन सवाल सौ टके का वही जो सबको पता है, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 90 प्रतिशत बच्चे गरीब परिवारों से होते हैं। ऐसे में कितने घरों में रेडियो की गूंज या टीवी की आवाज सुनाई देती है? जाहिर है पूरे दिन मेहनत, मजदूरी कर परिवार पालने वाले घरों में बमुश्किल अकेले मुखिया के पास ही मोबाइल होता है वह भी साधारण। जिसे लेकर काम पर जाता है। इत्तेफाक से कोई एण्ड्रायड रखता भी तो उसके पास डेटा का इतना पैसा नहीं कि बच्चे को घण्टों यू-ट्यूब दिखा सके। इस तरह भारत में अभी ऑनलाइन कहें या स्मार्ट शिक्षा फिलाहाल दूर का सपना है। फिर भी यदि सरकारें इसे महज खाना पूर्ति का जरिया बना आंकड़ों के रिकॉर्ड दुरुस्त करना चाहे तब तो ठीक है। लेकिन हकीकत में ऐसी शिक्षा से लाभ होता कुछ दिख नहीं रहा है। चूंकि ऑनलाइन-ऑफलाइन शिक्षा कोरोना काल की ही देन है।

इधर संक्रमण के ताजे आंकडों की अनदेखी भी भारी भूल होगी। पूरे देश में जहां संक्रमण के 19 मई तक केवल 1 लाख मामले थे वो इतनी रफ्तार पकड़े की महज तीन दिनों में एक लाख तक पहुंचने लगे। जहां अकेले 7 जुलाई से 10 जुलाई के बीच 3 दिनों 1 लाख संक्रमित बढ़े और अब करीब साढ़े 9 लाख हो गए वहीं 12 जुलाई तड़के एक अकेले दिन में  28637 संक्रमण का रिकॉर्ड भी बना।

अब शहर छोड़िए छोटे-छोटे गांवों में थोक में कोरोना पॉजिटिव मिलना शुरू हो गए। ऐसे में गांव के सरकारी स्कूल का वही शिक्षक हर रोज 5 नए घरों में जाकर संपर्क करेगा और बच्चों को इकट्ठा कर पढ़ाएगा तो कोरोना संक्रमण का खतरा होगा या नहीं? इस सवाल का जवाब शायद किसी के पास हो या न हो लेकिन रविवार रात को फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन और उनके बेटे अभिषेक बच्चन जो कोरोना को लेकर शुरू से बेहद सतर्क थे, अचानक एसिम्पटोमेटिक कोरोना पॉजिटिव निकल आए। अब इस बात की क्या गारण्टी कि हर रोज बिना ऐहतियात बरते यानी बगैर पीपीई किट, हाथों में ग्लब्स और सेनेटाइजर की शीशी लिए केवल मास्क बांधे शिक्षक गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले 5 घरों में रोज घूमें और ईश्वर न करें कि एसिम्पटोमेटिक संक्रमित हो जाएं! दुर्भाग्य से यदि ऐसा हुआ तो उन सरकारी फरमानों का क्या होगा जिसमें साफ लिखा है कि 10 साल से छोटे बच्चे और 65 साल से ऊपर के बुजुर्ग घरों से न निकलें। यहां तो शिक्षक इन्हीं छोटे-छोटे बच्चों के साथ गली, मुहल्ले घूम शिक्षक मोहल्ला स्कूल लगाए! यानी आदेश के मनमाफिक मायने।

कुल मिलाकर कोरोना के इस पीक में ज्यादा सतर्कता की जरूरत है और केन्द्र व तमाम राज्यों की सरकारें भी बेहद चिन्तित हैं। ऐसे में कोई भी सरकार इस तरह का जोखिम नहीं लेना चाहेगी तो अफसरशाही का यह कैसा फैसला?  वह भी तब जब कहीं धीरे-धीरे फिर लॉकडाउन की ओर बढ़ा जा रहा है तो कहीं लॉकडाउन बढ़ा दिया गया। ऐसे में मोहल्ले के किसी घर या पेड़ के नीचे कक्षाएं लगाने का हुक्म मुल्तवी कर देना ही बेहतर होगा वरना बदकिस्मती से घरों में दुबके, सहमें गरीबों और कमजोर तबके के बच्चे संक्रमण का शिकार होना शुरू हुए तो दिन भर काम पर रहने वाले मां-बाप के बिना कौन देखरेख करेगा और बिना काम पर गए कौन उनके घर का चूल्हा जलाएगा?

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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