चौंकाने वाला नहीं है ‘दिल्‍ली विधानसभा’ का परिणाम

अवधेश कुमार
दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ने शायद ही किसी को चौंकाया होगा। हां, इसके विश्लेषण को लेकर अवश्य कई राय हो सकती हैं। आरंभ से ही पूरा चुनाव आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की ओर एकपक्षीय लग रहा था। सारे मतदान पूर्व सर्वेक्षणों ने इसका संकेत भी दे दिया था। कुछ विश्लेषकों ने तो यहां तक टिप्पणी कर दी थी कि ‘आप’ 2015 के अपने पुराने अंकगणित के आसपास पहुंच सकती है।

भाजपा को भी इसका अहसास निश्चित रुप से रहा होगा। लेकिन भाजपा नेतृत्व केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति और समर्थन की लहर की काट करने में सफल नहीं हो पा रहा था। अमित शाह को स्वयं कूदना पड़ा। उनके आक्रामक अभियान तथा चुनाव प्रबंधन की कुशलता ने असर डालना आरंभ किया। भाजपा के निरुत्साहित पड़े कार्यकर्ता सक्रिय हुए। इसका असर हम उसके मतों में करीब सात प्रतिशत की वृद्धि के रुप में देख रहे हैं। कंतु कुल मिलाकर यह कहने में हर्ज नहीं है कि वह केजरीवाल की काट तलाश नहीं कर पाई। तो क्यों हुआ ऐसा?

अपने-अपने नजरिए से इसका उत्तर दिया जा रहा है। इस परिणाम को किसी तरह नागरिकता संशोधन कानून, धारा 370 हटाने, शाहीन बाग धरने के आक्रामक विरोध से जोड़कर देखना गलत विश्लेषण होगा। सारे सर्वेक्षणों का निष्कर्ष यही था कि इन मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को भारी बहुमत का समर्थन प्राप्त है। जनता कह रही थी कि हम दिल्ली में वोट केजरीवाल को देंगे, लेकिन धारा 370 हटाने और नागरिकता कानून पर केन्द्र सरकार का समर्थन करते हैं।

लोगों ने ज्यादातर सर्वेक्षणों में प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी को पसंद किया तो बतौर मुख्यमंत्री केजरीवाल को। इस सच को नकार कर आप कोई भी निष्कर्ष दे देंगे तो वह सच नहीं होगा। सच तो यह है कि केजरीवाल पिछले 1 वर्ष से चुनाव के मोड में आ गए थे। आप उनके वक्तव्यों, तेवर और कार्यप्रणाली में आए परिवर्तनों को साफ-साफ देख सकते थे। छः महीने पहले से तो वे केवल चुनावी केन्द्रित वक्तव्य एवं फैसले कर रहे थे। सच कहें तो महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, चुनाव के पूर्व महीने में ज्यादातर लोगों के बिजली बिल को माफ कर देना और पानी के बिल में भारी माफी ने इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यह ऐसा लोकप्रियतावादी कदम था, जिसकी काट किसी पार्टी के पास नहीं थी। भारत का आम मानस इस तरह के लोकप्रियतावादी कदमों की ओर तात्कालिक रुप से आकर्षित होता है। हालांकि भाजपा ने भी अपने संकल्प पत्र में स्पष्ट किया कि वे सत्ता में आए तो बिजली, पानी के दर में कटौती जारी रहेगी। उन्होंने भी केजरीवाल की तरह कुछ लोकप्रियतावादी घोषणाएं की। मसलन, दो रुपए किलो आटा, छात्रों को साईकिल एवं इलेक्‍ट्रिक स्कूटर आदि। इसका कुछ असर भी हुआ, लेकिन असर इतना नहीं था कि भाजपा आप की विजय को रोक दे।

भाजपा का प्रदेश नेतृत्व इस मुगालते में था कि केजरीवाल ने 2015 के अपने चुनावी वायदों को पूरा नहीं किया है और अब उनकी छवि पुराने आंदोलनकारी की भी नहीं रही, इसलिए उनको जनता के बीच कठघरे में खड़ा कर पराजित करना कठिन नहीं होगा। वे भूल गए कि केजरीवाल परंपरागत राजनेता नहीं हैं। अपने कार्यकाल के अंतिम समय में उन्होंने घोषणा पत्र के कुछ अंशों को क्रियान्वित करना आरंभ कर दिया और इसका भी असर हुआ। केजरीवाल की रणनीति है कि दिल्ली में जो अच्छा हुआ, विकास हुआ उसका श्रेय लो तथा जो नहीं हुआ उसके लिए यह बताओ कि केन्द्र करने नहीं दे रहा, उप राज्यपाल बाधा बने हुए हैं या फिर भाजपा की बहुमत वाली नगर ईकाइयां काम नहीं कर रहीं हैं।

जिस शैली में वे बोलते हैं उनका जवाब उसी शैली में प्रभावी तरीके से देने वाला भाजपा के पास प्रदेश में कोई नेता नहीं है। प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी को काफी लंबा समय मिला, लेकिन वे केजरीवाल के समानांतर न अपना कद बना सके और न विपक्ष के नाते उनको कभी दबाव में लाने में कामयाब हो सके। हालांकि वे परिश्रम तो करते रहे, लेकिन उसमें केजरीवाल के तौर-तरीकों का सूक्ष्मता से विश्लेषण कर उसके अनुरुप सुनियोजित रणनीति का अभाव हमेशा बना रहा। केजरीवाल ऐसे नेता हैं जिन्हें केन्द्र द्वारा किए गए कामों का भी श्रेय लेने तथा उसके लिए पोस्टर जारी कर दिल्लीवालों को बधाई देने में तनिक भी हिचक नहीं। यह भाजपा को परेशान तो करती थी, वे खंडन भी कर रहे थे, पर उस रुप में नहीं जिससे बहुमत मतदाताओं को विश्वास हो जाए कि वे सच बोले रहे हैं एवं केजरीवाल का दावा झूठ है।

कायदे से देखा जाए तो चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा एक आंदोलनकारी और नायक के रुप में उभरे केजरीवाल का वैचारिक एवं व्यवहारिक बदलाव या पतन होना चाहिए। 2011 से 2013 के केजरीवाल के कार्यों एवं वक्तव्यों की उनमें अब झलक तक नहीं मिलती। अपने अधिनायकवादी चरित्र के कारण उन्होंने उन सारे साथियों को अलग होने के लिए विवश कर दिया जो अन्ना अभियान से लेकर पार्टी के निर्माण एवं 2015 के चुनाव में विजय तक उनके साथ थे। भाजपा इसे मुद्दा बनाने में सफल नहीं रही। कहा गया है कि आक्रमण सबसे बड़ा बचाव है। किसी तरह के संघर्ष में विजय का यह सबसे बड़ा सूत्र है।

भाजपा इस रणनीति में माहिर मानी जाती है, पर विपक्ष में रहते हुए वह ऐसी स्थिति कायम नहीं सकी, जिसमें केजरीवाल एवं उनके साथियों को बचाव के लिए विवश होना पड़ता। केजरीवाल ने पूरे चुनाव अभियान के बीच अत्यंत ही सधी हुई राजनीति की तथा उनका संयत रुख लगातार बना रहा। एक समय नरेन्द्र मोदी के लिए निंदा के शब्दों का प्रयोग करने वाले तथा हर बात में सीधे उनको निशाना बनाने वाले केजरीवाल ने अचानक अपना रुख बदल दिया। उन्होंने मोदी पर हमला या उनकी सीधी आलोचना बिल्कुल बंद कर दी। 2019 के लोकसभा चुनाव में तीसरे स्थान पर पहुंचने के पीछे एक विश्लेषण यह था कि मोदी पर ज्यादा हमला जनता ने पसंद नहीं किया। दूसरे, हिन्दुत्व, सांपद्रयाकिता एवं सेक्यूलरवाद पर भी उन्होंने कुछ बोलने से परहेज किया।

मोदी से लेकर इन मुद्दों पर वे जैसे ही आक्रामक होते भाजपा को उनको कठघरे में खड़ा करने का मौका मिल जाता। यहां तक कि जब अयोध्या में मंदिर निर्माण पर प्रधानमंत्री ने लोकसभा में ट्रस्ट की घोषणा की तो सारी पार्टियों ने उसकी आलोचना की, चुनाव को लेकर समय पर सवाल उठाया लेकिन केजरीवाल ने समर्थन कर दिया। उन्होंने कहा कि मंदिर बनना चाहिए, ट्रस्ट का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। उन्‍होंने अपने को हार्ड राष्ट्रवादी बताया। इस तरह भाजपा को कोई अवसर उन्होने नहीं दिया।

उल्टे एक चैनल पर उन्होंने हनुमान चालीसा गाया, हनुमान मंदिर जाकर ट्विट किया और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने उनकी आलोचना कर दी तो इसका उन्होंने अपनी शैली में पूरा उपयोग किया कि हनुमान चलीसा पढ़ने और हनुमान मंदिर  जाने पर भाजपा मुझे गालियां दे रही है, वह हनुमान जी की आलोचना कर रही है, कह रही है कि मुझे भगवान की पूजा-पाठ का अधिकार नहीं है। इसका जवाब भाजपा के पास हो ही नहीं सकता था।

केजरीवाल को आभास था कि मुसलमानों का एकमुश्त वोट उनकी पार्टी को मिलेगा, क्योंकि कांग्रेस मुख्य लड़ाई में है नहीं। इस विश्वास के कारण उन्होंने शाहीनबाग पर स्वयं चुप्पी धारण कर ली। मनीष सिसोदिया ने एक बार अवश्य कह दिया कि हम शाहीनबाग के साथ है लेकिन बाद में वे भी शांत हो गए। भाजपा ने अपनी रणनीति से शाहीनबाग के बारे में केजरीवाल को कोई बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया। चुनाव में यह मुद्दा था। जिन लोगों को धरना के कारण आने-आने में परेशानी हो रह थी वे सब उसके खिलाफ थे, स्वयं प्रधानमंत्री ने इसे संयोग नहीं प्रयोग तथा एक डिजायन बताकर अपने मूल समर्थकों को सीधा संदेश दिया। इन सबका असर हुआ लेकिन भाजपा इसे दिल्ली में इतना बड़ा मामला नहीं बना सकी जिससे कि मतों का एकत्रीकरण इसके पक्ष में हो सके। एक महत्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस के प्रदर्शन ने निभाई।

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 22 प्रतिशत से ज्यादा मत काट लिया तो ‘आप’ तीसरे स्थान पर सिमट गई। शीला दीक्षित के देहांत के बाद लोकसभा चुनाव में लड़ाई में आने का संकेत दे चुकी कांग्रेस फिर हाशिए पर चली गई। 67 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई। वैसे कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की रणनीति भी थी कि किसी तरह दिल्ली में भाजपा को रोकना है, इसलिए उन्होंने कुछ प्रमुख नेताओं की सीटों को छोड़कर परिश्रम ही नहीं किया। अगर कांग्रेस पर्याप्त मात्रा में वोट काट लेती और संघर्ष त्रिकोणीय होता तो भाजपा को लाभ मिल जाता। ऐसा नहीं हो सका।

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