पता नहीं क्यों नेताओं को प्रचार की भूख खत्म क्यों नहीं होती? स्वाभाविक है, इस प्रचार की भूख की वजह से जनता के पैसे का ही वारा-न्यारा होता है। खासकर सरकार और उससे जुड़े नेताओं द्वारा जिस तरह करोड़ों-अरबों रूपए प्रचार में खर्च किए जाते हैं, यदि उसी धनराशि को जनहित के कार्यों में लगा दिया जाता तो शायद बहुत बड़ा कल्याणकारी काम हो जाता। पर अफसोस कि हमारे नेता ‘काम कम, बातें ज्यादा’ करने के आदी हैं। यही वजह है कि उनके द्वारा भले जनहित में काम किए जाएं अथवा नहीं पर प्रचार पाने के लिए होड़-सी मची रहती है। दुर्भाग्य यह इस कड़ी में कोई भी तारीफ के काबिल नहीं है।
देश की राज्य सरकारें हों अथवा केन्द्र सरकार सब के सब अपने-अपने हिसाब से प्रचार पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं। ताजा मामला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का है, जो इस वक्त जबर्दस्त चर्चा में है। दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने बीते दिनों सरकारी विज्ञापनों के दुरुपयोग के मामले में सरकारी खजाने को हुए 97 करोड़ रुपये के नुकसान की राशि दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) से वसूलने का निर्देश दिया।
बैजल ने दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव एमएम कुट्टी को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की छवि चमकाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च किये गये 97 करोड़ रुपये की भरपाई ‘आप’ से करने को कहा। बताया गया कि सरकारी विज्ञापनों में प्रचार सामग्री पर निगरानी करने वाली समिति की सिफारिश पर उपराज्यपाल का यह निर्देश आया। केजरीवाल सरकार पर दिल्ली सहित विभिन्न राज्यों में ऐसे विज्ञापन जारी करने का आरोप है।
प्रचार पाने के लिए खबरें व विज्ञापन छपवाने के मामले में नेताओं की शानी नहीं है। यही वजह है कि नेताओं की छपास की बीमारी पर कटाक्ष भी खूब होते रहे हैं। मार्च के आखिरी हफ्ते में पटना (बिहार) के भाजपा विधान पार्षद सूरजनंदन कुशवाहा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छपास की बीमारी से ग्रस्त( बताकर विवाद खड़ा कर दिया था। हालांकि कुशवाहा के बयान में संशोधन कर भाजपा नेताओं ने बताया कि वे मुख्यजमंत्री की जगह गलती से प्रधानमंत्री बोल गए।
विधान पार्षद सूरजनंदन कुशवाहा ने कहा था कि पीएम (प्रधानमंत्री) को छपास की बीमारी है। बजाप्ता इस बयान का वीडियो भी वायरल हुआ। दरअसल, विधान पार्षद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को निशाने पर ले रहे थे, लेकिन जुबान फिसली और अर्थ का अनर्थ हो गया। खैर, इसे बहुत गंभीरता से इसलिए नहीं लिया गया कि नेताओं में छपास की बीमारी होती ही है। फिर इस परेशानी की बात क्या है? बिहार में इस मुद्दे पर अभी बहस चल रहा ही रहा था कि दिल्ली सरकार भी छपास की बीमारी से ग्रसित हो गई। सरकारी विज्ञापनों में सत्ताधारी दल के प्रचार पर लंबे समय से सवाल उठते रहने के बावजूद शायद ही कोई ऐसी कवायद सामने आई हो जिससे इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने की सूरत बने।
इस संबंध में दिल्ली के उपराज्यपाल ने पिछले दिनों जो आदेश जारी किया, उसने न केवल आम आदमी पार्टी (आप) को असुविधा में डाल दिया, बल्कि इससे सभी सत्ताधारी दलों की ओर से सरकारी विज्ञापनों के बेजा इस्तेमाल पर रोक का सवाल एक बार फिर बहस में आ गया। उपराज्यपाल ने ‘आप’ से तीस दिनों के अंदर 97 करोड़ रुपए वसूल करने के आदेश दिए हैं, जो पार्टी को लाभ पहुंचाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च हुए।
केंद्र सरकार की ओर से गठित सरकारी विज्ञापनों में प्रचार सामग्री पर निगरानी करने वाली समिति की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि दिल्ली सरकार के विज्ञापनों के जरिए आम आदमी पार्टी और इसके नेता अरविंद केजरीवाल को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई थी। इससे पहले ‘आप’ के विज्ञापनों पर कैग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में सवाल खड़े किए थे।
बताते हैं कि उन विज्ञापनों में सुप्रीम कोर्ट के 13 मई 2015 के आदेशों का उल्लंघन कर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तस्वीर का इस्तेमाल किया गया था। हालांकि लगभग साल भर पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की तस्वीरों के प्रयोग की इजाजत दे दी थी। फिर भी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार के मकसद से जारी विज्ञापन अगर सत्ताधारी पार्टी या उसके किसी नेता के प्रचार का जरिया बनते हैं तो यह जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल ही है।
लोग यह जानना चाहते हैं कि जो पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल राजनीति में पसरे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के दावे पर ही जनता के बीच लोकप्रिय हुए, उनकी ओर से भी सरकारी धन के दुरुपयोग के मामले क्यों सामने आते रहे? वे दूसरे राजनीतिकों से अलग क्यों नहीं साबित हुए? अलग-अलग राज्यों से ऐसे तमाम उदाहरण आते रहे हैं जिनमें स्कूली बस्ते या सरकारी कार्यक्रम के तहत जारी किसी अन्य सामान पर सत्ताधारी पार्टी के नेता की तस्वीर लगा दी गई।
चार महीने पहले सूचनाधिकार कानून के तहत यह तथ्य सामने आया था कि केंद्र सरकार की ओर से पिछले ढाई साल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित विज्ञापनों पर ग्यारह सौ करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह खर्च सिर्फ प्रसारण, टीवी, इंटरनेट और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का था और इसमें प्रिंट विज्ञापन, होर्डिंग, पोस्टर, बुकलेट और कैलेंडर आदि का खर्च शामिल नहीं था। केजरीवाल सरकार के विज्ञापनों पर शोर मचाने वाली भाजपा को भी खुद सरकारी खजाने का वैसा ही इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं हुई।
ज्यादातर पार्टियां अपने घोषित दावे और वादे के उलट, सत्ता में आने पर सरकारी पैसे को दलगत प्रचार के लिए खर्च करने में पीछे नहीं रही हैं। इन विज्ञापनों में नेताओं या मंत्रियों की तस्वीरें ऐसे प्रकाशित की जाती हैं कि वे उपलब्धियां सरकार की न होकर उनकी लगती हैं। यह खुद के महिमामंडन का प्रयास ही होता है, जो अच्छा नहीं लगता। स्वाभाविक है यह जनता और करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग ही है।
दिल्ली सरकार के बाबत यह समझा जा रहा है कि समिति ने पिछले साल 16 सितंबर को मुख्य सचिव को भेजी रिपोर्ट में संबन्धित विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि के आधार पर इससे सरकारी खजाने को हुए नुकसान का आकलन करने को कहा था। केन्द्र सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस राशि को संबद्ध राजनीतिक दल से वसूलने की भी बात कही। इस बीच सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सूचना एवं प्रचार निदेशालय ने बाहरी राज्यों में किए गए सरकारी प्रचार पर 97 करोड़ रपये के व्यय का आकलन किया था।
कानून विभाग की अनुशंसा पर बैजल ने मुख्य सचिव से आप को वसूली नोटिस जारी कर पुनर्भुगतान प्रक्रिया पूरी करने को कहा। इसमें हालांकि आप को अभी तक सरकार द्वारा भुगतान नहीं किये गये विज्ञापनों की बकाया राशि संबद्ध एजेंसी को सीधे देने का विकल्प दिया गया है। बहरहाल, दिल्ली सरकार के बारे उपराज्यपाल की टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है। एक तरह से यह टिप्पणी दिल्ली सरकार के बहाने देश के सभी राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार के लिए भी है, जो प्रचार पाने के लिए अनाप-शनाप खर्चे करते रहते हैं।