होली उमंग, उल्लास, मस्ती, रोमांच और प्रेम-आह्वान का त्योहार है। कलुषित भावनाओं का होलिकादहन कर नेह की ज्योति जलाने और सभी को एक रंग में रंगकर बंधुत्व को बढ़ाने वाला होली का त्योहार आज देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पूरे जोश के साथ जोरों-शोरों से मनाया जाता है। भले विदेशों में मनाई जाने वाली होली का मौसम के हिसाब से समय और मनाने के तरीके अलग-अलग हो, पर संदेश सभी का एक ही है- प्रेम और भाईचारा।
होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सांकेतिक पर्व है। प्रकृति के पांवों में पायल की छम-छम बसंत के बाद इस समय पतझड़ के कारण साख से पत्ते टूटकर दूर हो रहे होते हैं, ऐसे में परस्पर एकता, लगाव और मैत्री को एकसाथ एक सूत्र में बांधने का संदेशवाहक होली का त्योहार वातावरण को महुए की गंध की मादकता, पलाश और आम की मंजरियों की महक से चमत्कृत कर देता है। फाल्गुन मास की निराली बासंती हवाओं में संस्कृति के परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति सुसज्जित होकर चहुंओर मस्ती की भंग आलम बिखेरती है जिससे दु:ख-दर्द भूलकर लोग रंगों में डूब जाते हैं।
जब बात होली की हो, तो ब्रज की होली को भला कैसे बिसराया जा सकता है? ढोलक की थाप और झांझों की झंकार के साथ लोकगीतों की स्वर-लहरियों से वसुधा के कण-कण को प्रेममय क्रीड़ाओं के लिए आकर्षित करने वाली होली ब्रज की गलियों में बड़े ही अद्भूत ढंग से मनाई जाती है। फागुन मास में कृष्ण और राधा के मध्य होने वाली प्रेम-लीलाओं के आनंद का त्योहार होलीप्रकृति के साथ जनमानस में सकारात्मकता और नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला है। यकीनन, होली के इस माहौल में मन बौरा जाता है।
नायक और नायिका के बीच बढ़ रही इसी उत्तेजना, उत्कंठा और चटपटाहट को हिन्दी के कई रचनाधर्मी कवियों ने जो अपनी रचनाओं में ढाला है, वो वाकई अद्भूत है। अनुराग और प्रीति के त्योहार होली का भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य में सृजनधर्मी रचना प्रेमियों ने बखूबी से चित्रण किया है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद सहित सगुन साकार और निर्गुण निराकर भक्तिमय प्रेम और फाल्गुन का फाग भरा रस सभी के अंतस की अतल गहराइयों को स्पर्श करके गुजरा है।
सूफी संत अमीर खुसरो ने प्रेम की कितनी उत्कृष्ट व्याख्या की है-
'खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार।
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा हुआ पार।।'
बेशक, होली का त्योहार मन-प्रणय मिलन और विरह-वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है। राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा, नित नूतन आनंद के अतिरेकी उद्गार की छाया, राग-द्वेष का क्षय कर प्रीति के इन्द्रधनुषी रंग बिखेरने वाला होली का त्योहार कितनी ही लोककथाओं और किंवदंतियों में गुंथा हुआ है।
प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा जनमानस में सर्वाधिक प्रचलित है। बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक ईश्वर-श्रद्धा के अनुपम उदाहरण प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकी। बुराई भले कितनी ही बुरी क्यों न हो, पर अच्छाई के आगे उसका मिटना तय है।
लेकिन इसके विपरीत आज बदलते दौर में होली को मनाने के पारंपरिक तरीकों की जगह आधुनिक अश्लील तरीकों ने ले ली है जिसके फलस्वरूप अब शरीर के अंगों से केसर और चंदन की सुगंध की बजाय गोबर की दुर्गंध आने लग गई है। लोकगीतों में मादकता भरा सुरमय संगीत विलुप्त होने लगा है और अब उसकी जगह अभद्र शब्दों की मुद्राएं भी अंकित दिखलाई पड़ने लगी हैं।
फाल्गुन के प्राचीन उपमा-अलंकार कहां गए? मदन मंजरियों का क्या हुआ? पांवों में महावर लगाई वे सुंदरियां कहां गईं, जो बसंत के स्वागत में फागुनी गीत गाती संध्या के समय अभिसार के लिए निकला करती थीं? चंग-ढफ की थाप और ढोलक की गूंज के साथ फाग गायन को सुनने के लिए अब कान तरस रहे हैं।
आधुनिकता और संचार क्रांति के युग में उपकरणों के बढ़ते उपयोग ने होली को खुले मैदान, गली-मोहल्लों से मोबाइल के स्क्रीन पर लाकर रख दिया है। अब लोग होली वाले दिन भी घर में डूबके बैठे रहते हैं। ये कहें कि आधुनिक होली व्हॉट्सएप और फेसबुक के संदेशों तक सिमटकर रह गई है।
होली को बिंदास, मस्ताने और अल्हड़ तरीके से मनाने की पारंपरिक पद्धति के खंडन ने होली को कइयों के लिए हानिकारक भी बना दिया है। मदिरा पीकर नाली का कीचड़ मुंह पर लगाकर गाली-गलौज के साथ ही कइयों ने तेजाब तक उछालकर होली के जरिए अपनी दुश्मनी निकालने के भरसक प्रयत्न किए हैं। इसी कारण मस्ती और खुशियों की सौगात देने वाला होली का त्योहार घातक सिद्ध होने लगा है।
होली के रंगों का केवल भौतिक ही नहीं, बल्कि आत्मिक महत्व भी है। रंग हमारी उमंग में वृद्धि करते हैं और हर रंग का मानव जीवन से गहरा अंतरसंबंध जुड़ा हुआ है। लेकिन आज प्राकृतिक रंगों की जगह केमिकल रंगों के प्रयोग ने मानव त्वचा को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है तो वहीं बढ़ती महंगाई और मिलावट ने पारंपरिक मिष्ठान्न का स्वाद भी बिगाड़ने का काम किया है।
साल-दर-साल होली के गुणों में न्यूनता आती जा रही है। होली के फीके होते रंगों में रौनक लौटाकर जन-मन में आस्था और विश्वास जगाने की आज बेहद जरूरत है। केवल होलिकादहन के नाम पर घास-फूस को ही नहीं जलाएं, अपितु मानव समाज की उन तमाम बुराइयों का भी दहन करें, जो हमारे भीतर अलगाव और आतंक को फैला रही हैं।
दरअसल, असली होली तो तब मनेगी, जब हमारे देश के राजनेता अपने चेहरों पर लगे बेईमानी, स्वार्थ और रिश्वतखोरी के रंगों को उतारकर भ्रष्टाचार की होली का दहन करेंगे। तब तक तो आम आदमी की होली सूखी ही है।