30 जनवरी विशेष : मैंने गांधी को नहीं मारा

2005 में एक फिल्म रिलीज हुई थी-‘मैने गांधी को नहीं मारा’ जाहनू बरुआ के निर्देशन में अनुपम खेर की फिल्म थी और अनुपम खेर ही इसके मुख्य किरदार भी थे। एक बच्चे से खेल खेल में एक खिलौने वाली बंदूक से गांधी की तस्वीर पर गोली चल जाती है, उसके साथी चिल्लाने लगते हैं, ‘अरे इसने गांधी को मार डाला’।  इत्तेफाकन उसी वक्त रेडियो से समाचार मिलता है कि गांधी की हत्या हो गई है। इस बात पर वो अपने सत्याग्रही पिता से इस बात के लिए बुरी तरह मार खाता है। उसके पिता गांधी का जाना सहन नहीं कर पा रहे थे, और उसी दुख में वे अपने बेटे को मारते मारते यही चिल्लाते हैं, कि उसने ही गांधी को मारा है। बच्चे के कोमल मन पर उस बात का इतना गहरा प्रभाव हुआ कि जीवन भर उसके दिमाग से ये अपराध बोध निकला ही नहीं । जिसके कारण उसे कम् उम्र में ही डिमेंशिया नामक बीमारी हो जाती है। वो और उसका परिवार इस त्रासदी को ताउम्र  झेलते ही रहे। 
इस फिल्म में गांधी की हत्या का बोझ लिए उस व्यक्ति के जरिए ये महसूस हुआ कि बिना मारे ही मारने का बोझ जब इतना भारी है, तो जिसने सच में मारा होगा, क्या उसने कभी भी इस बात के लिए खुद को माफ कर पाया होगा ? या उसे गांधी को मारने के बाद जीवित रहने में हजारों हजार बरसों का नरक भोगने जैसी पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ होगा? अगर नहीं तो फिर वो अकल्पनीय कठोर हृदय रहा होगा ? 
 
1982 में रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म आई थी ‘गांधी’। उसके कुछ ही समय बाद ये फिल्म  कई बार दूरदर्शन पर प्रसारित की गई। बाल्यावस्था में  तब न तो गांधी नाम की समझ थी न ही उसे जानने में रुचि। जितनी बार ये फिल्म दिखाई जाती, उतनी बार लगता की  टेलीविजन बंद कर दिया जाए। घर में बस माताजी या आस पड़ोस का कोई आके बैठ जाता। पिताजी टीवी नाम से ही नाराज हुआ करते थे। 
 
बोर फिल्म की श्रेणी में आने वाली इस फिल्म के पहले ही दृश्य में गांधी की हत्या होते हुए दिखाई  गई है। एक तांगे वाले का  इशारा होता है और गोडसे भीड़ चीरता हुआ गांधी की तरफ बढ़ता है, दूसरी ओर निर्भीक, प्रसन्न चित्त गांधी, प्रार्थना सभा के लिए जाते हुए सबका अभीवादन स्वीकार रहे हैं। अगले ही पल सब बिखर जाता है, इतिहास ने ऐसा शोक समाचार पहले  कभी न सुना था। पूरे भारत  में ये खबर आग की तरह फैल जाती है- गांधी की हत्या कर दी गई है। 

वो देखकर बाल मन यही सोचता- ऐसा क्या दिखाया जाने लायक है गांधी में? कि  फिल्म ही बना दी। गांधी को कौन नहीं जानता? कोई गर पूछे तो ये तो पता ही है कि जन्म और मृत्यु कब हुई है? एक आदमी था जिसने उन्हें गोली मारी थी। इतना काफी है हमारे लिए। और इससे ज्यादा क्या है गांधी? 
 
पढ़ाई लिखाई खत्म होते होते , जीवन यापन के साधन जुटाने में गांधी बहुत पीछे छूट गए। समय बीतता गया। न गांधी के हम हुए न गांधी हमारी रुचि में कभी समा पाए। बस अब एक बात अच्छी हो गई थी की गांधी के प्रति अच्छी सोच नहीं थी, तो बुरी भी नहीं बची थी।
 
 फिल्में देखने का थोड़ा सा शौक जिंदा रह गया था सो ढूंढते करते एक बार बैठे बैठे ‘गांधी’ देख डाली। 1982 से 2002 , ‘गांधी’ को 20 साल लग गए, ‘सिर्फ  देखने में’। उस फिल्म की शुरुआत में ही कहा गया है कि किसी के जीवन को फिल्म की अवधि में समेटना नामुमकिन होता है, और फिर ये तो गांधी थे। 20 साल बाद ही सही ‘गांधी’ पर चढ़ी गर्द झड़ गई।  
 
कई सालों में परिवर्तन ये हुआ की गांधी को पढ़ना अच्छा लगने लगा। कई पुस्तकों ने उन्हें समझने में मदद की। उनके प्रति विश्वास जगाया। कई बार विपरीत परिस्थितियों में उनकी सीख काम में ली, अच्छे परिणाम मिले। पर इतना काफी नहीं था। बहुत कुछ था जो उनके बारे में जानने का मन करता था। ‘गांधी’ को ‘गांधी’ की तरह पढ़ना इतना सरल कहाँ? फिर उन्हें जीना तो बहुत ही कठिन है।
गांधी नाम से  नकारात्मकता का वातावरण  फैलाने की साजिश में वे पूरे सफल हुए थे  जिन्होंने युवा होती  पीढ़ीयों  को ‘एंटी गांधी’ वाला जहर, चाशनी में लपेट के परोसा था। जहर तो जहर होता है.. जल्दी बाहर न निकाल जाए तो मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। और ये तो मानसिक मृत्यु होने वाली थी। जिसमें बिना जाने समझे, बिना तथ्यात्मक आधार के, गांधी को गलत सिद्ध करने की कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही थी ।  
 
निश्चित ही ‘गांधी’ दूसरों के लिए भय का कारण रहे होंगे । गांधी मानव मात्र कहाँ थे, वे तो पूरा भारत थे, भारत का हर वो व्यक्ति थे, हर भारतीय का ह्रदय और मस्तिष्क थे गांधी, जिसे देश से प्रेम था, जो भारत को केंद्र में रख कर सोचता हो।  गांधी के कई अर्थ हैं- प्रेम, अहिंसा, त्याग, सहजता, सरलता, समानता, समय प्रबंधन, निर्भीकता, प्रार्थना, सूत, खादी , चरखा, ग्राम स्वराज, मशीनीकरण का विरोध, और सबसे अहम है ‘सत्य’ ऐसे अनेकानेक नाम हैं  जो गांधी हैं।  
 
जब गांधी इंग्लंड से वापस भारत लौटे तो वे एक ही उद्देश्य ले कर लौटे थे की भारत को भयमुक्त बनाना है। वे स्वयं भी जीवन भर भयमुक्त बने रहे। उनकी हत्या के प्रयास पहले भी होते रहे, जिसके बारे में वे जानते भी थे। आंतरिक सुरक्षा बढ़ाने के सुझाव भी उन्हे दिए गए, पर वे तो भयमुक्त थे। बचपन में अंधेरे से डरने वाले गांधी को उनकी माँ कहा करती थी की राम बोलने से डर नहीं लगेगा। 
 
मृत्यु पूर्व  मुंह से निकले  ‘हे राम’ को समीक्षक उसी भयमुक्ति से जोड़ कर देखते हैं। 
 
मुन्ना भाई, मैंने गांधी को मार डाला, गांधी माय फादर, द मेकिंग ऑफ गांधी, मैने गांधी को क्यों मारा, इन फिल्मों के केंद्र भी गांधी ही हैं। उन पर पहले भी फिल्में बनती रही थी और अब भी जारी हैं। उनके सबसे ज्यादा चलचित्र फिल्म डिवीजन के पास हैं। ये बात और है की गांधी ने कभी कोई फिल्म नहीं देखी। 
 
इस 30 जनवरी, गांधी को गए कितने साल हो रहे हैं, फिल्में हों या राजनीतिक और सामाजिक जीवन हर जगह गांधी व्याप्त हैं।  किसी न किसी कारण वे हर बार सामने आकर खड़े हो जाते हैं, बिना नाराजगी के, मुसकुराते हुए, पूरी ताकत से अपनी बात कहते हुए।

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