अपंग व अपाहिज से लेकर विकलांग तक फिर दिव्यांग तक का सफर लंबा रहा है
-अमिय शुक्ल
3 दिसंबर को विश्व विकलांग दिवस था। जी हां, विश्व विकलांग दिवस। इस नाम की भी एक चिड़िया है इस दुनिया में। मगर चूंकि यह विकलांगों के लिए है, तो दिवस भी विकलांग ही रह गया। न तो इस दिन कोई नेताजी एवं उनके चमचे नारे लगाते हुए आए, न कोई समाज के ठेकेदार सड़कों पर नजर आते हैं और न ही समाज को अपने हिसाब का आईना दिखने वाला मीडिया शोर मचाता है। बस नजर आते हैं, तो समाज के कुछ धूमिल चेहरे, जो इस वर्ग के लिए कुछ करना चाहते हैं या फिर कुछ मुखौटाधारी, जो सरकार द्वारा दिया गया धन खपाना चाहते हैं।
जिस तरह 'मेरा भारत महान' कहने से कुछ नहीं होता तथा उसके लिए मेहनत करनी पड़ती है, उसी तरह 'हम सब एक हैं' कहने से भी कुछ नहीं होता। हर वर्ग को एक-सा नियम अपनाना भी पड़ता है। मैं गत एक वर्ष से डॉ. रेड्डीज फाउंडेशन में एरिया हेड के तौर पर समाज के इस सहमे हुए वर्ग को मुख्य धारा में लाने की सतत कोशिश कर रहा हूं। हमारा प्रयास इस वर्ग को किसी भी तरह की सहायता देकर उन पर दया दिखाने की बजाए उन्हें कौशल शिक्षा से लैस करके आम युवाओं के बराबर खड़ा करना है, जिससे वे उन्हीं रोजगार में जा सकें जिसमें बाकी युवा हैं। इस एक वर्ष के सफर में मैंने कई आकलन किए हैं कि क्यों यह वर्ग उस ऊंचाई से वंचित रह गया है जिसका वह हकदार है और निष्कर्ष चौंकाने वाला एवं विचारणीय है।
कई बार दिव्यांग खुद कुछ नहीं चाहते कि वे ऊपर उठें (बात जितनी कड़वी है, उतनी ही सच है)। उन्हें समाज दया की ऐसी लत लगा देता है कि वे उस दया को अपना हक समझने लगते हैं। हम कई बार ऐसे दिव्यांगों से मिलते हैं, जो समाज पर इतने आश्रित हो जाते हैं कि उन्हें ऐसा लगता है कि चूंकि वे दिव्यांग हैं, तो समाज का यह दायित्व है कि अब इनका लालन-पोषण करे और सरकार समस्त सुविधाएं इन्हें मुफ्त में एवं प्राथमिकता देते हुए प्रदान करे।
केवल सरकारी नौकरी की तरफ रुझान
सरकारी नौकरी लगभग हर किसी का सपना होती है और आरक्षण से मिल जाए तो फिर बात ही क्या है? मगर केवल उसी के लिए अडिग रहना और किसी भी दूसरे अवसर को तवज्जो न देना भी गलत है। गौर से देखा जाए तो यहां पर पूरी तरह से वे भी गलत नहीं हैं। यहां पर एक छुपा हुआ पात्र अपना जादू दिखाता है। एक ऐसा पात्र जिसका नाम है सरकारी नौकरी की तैयारी कराने वाले शिक्षण संस्थान, जो ऐसा प्रचार-प्रसार करते हैं कि उस गुलाबी चश्मे के आगे कुछ और नजर नहीं आता है।
कंपनियों की भी संकीर्ण मानसिकता है
जब कोई भी दिव्यांग किसी भी प्राइवेट कंपनी में काम करने की सोचता भी है तो कंपनी की एक ऐसी मानसिकता आड़े आ जाती है कि वह दिव्यांग है और वह इतना प्रतियोगी नहीं हो पाएगा और अपनी इस मिथ्या धारणा के चलते वे मौका तक नहीं दे पाते हैं। इन उद्योगों को हमेशा काम करने वाले लोगों की तलाश रहती है और वे भी ऐसे लोग जो न केवल ईमानदार हों बल्कि संस्थान के प्रति समर्पित भी हों। मगर शरीर के एक अंग में कुछ त्रुटि के कारण वे ऐसे लोगों को खो देते हैं। कई कंपनियां थोड़ी संवेदनशील होती हैं, जो इन्हें बराबर का मौका देती हैं, मगर ऐसी कंपनियां बहुत कम तादाद में हैं।
मैंने जब इस वर्ग को गहराई से देखा तो अनुभव किया कि हमने इस कर्मठ वर्ग को अपनी ठहरी हुई सोच से बांध रखा है। अगर हमें विकास करना है तो इस वर्ग को भी वही मौका देना होगा, जो हम अपने लिए अपेक्षा रखते हैं। सम्मान, सहानुभूति, सद्भावना एवं विवेकशीलता ही इस वर्ग के उत्थान की कुंजी है, वरना आप भी कहीं अपनी सोच से विकलांग न रह जाए।
मेरा उद्देश्य किसी वर्ग विशेष को ठेस पहुंचाना नहीं है बल्कि अपने अनुभवों से समाज को यह बताना है कि काबिलियत मोहताज नहीं होती किसी बात की। बस जो उन्हें देख नहीं पाते, वे मोहताज होते हैं और वही समाज को उन्नति से वंचित कर देते हैं। जरा सोचिए...