हाथरस की निर्भया : कितनी जुबान काटोगे?

कोरोना काल में जब ये दावे किए गए कि अपराधों में कम आ गई है तब ये राहत थी कि इस विकराल बीमारी के बहाने ही सही वीभत्सता का ग्राफ नीचे तो गिरा... लेकिन फिर परतों के नीचे से झांकने लगी खबर दर खबर कि घर में रहने वाली महिलाओं का जीना दूभर हो गया...बहुत बहुत दबाते छुपाते भी बहुत कुछ बाहर आया और  हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि अपराध न कम हुए हैं, न विकृतियां थमी है, न अनाचार रूके हैं न बेशर्मियों पर विराम लगा है। 
 
एक तमाचे की तरह हाथरस की घटना समाज के गाल पर पड़ती है और हम सन्न रह जाते हैं। हाथरस में सामूहिक दुष्कर्म की शिकार 19 वर्षीय लड़की का वारदात के दौरान गला दबाया गया था जिससे उसकी जुबान बाहर आ गई और कट गई....
 
दरिंदगी के ये शब्द टाइप करते हुए मेरे हाथ कांप रहे हैं। दिमाग और दिल पर ताले जड़ गए हैं और जुबान लड़खड़ा रही है.... आखिर कैसे इस घिनौनी हरकत को अंजाम दिया गया होगा? आखिर कब तक  एक लड़की अपने लड़की के जिस्म होने की 'गलती' भुगतती रहेगी....नया कुछ नहीं है, निर्भया से लेकर फलक तक, गुड़िया से लेकर हरप्रीत तक....असली से लेकर सांकेतिक नामों की बहुत लंबी सूची है... 
 
शहरों के नाम भी गिनने की हिम्मत अब नहीं बची, आखिर कौन सा शहर अछूता रहा इन शर्मनाक अपराधों से...दिल्ली, अमृतसर, जोधपुर....हैदराबाद से लेकर कठुआ, जयपुर से लेकर इंदौर, बरेली से लेकर मेरठ और बैंगलौर से लेकर मुंबई तक...
 
कहीं वह बॉलीवुड के स्टार्स की मैनेजर है जिसे छत से फेंक दिया गया है तो कहीं वह हाथरस के एक गांव की कन्या...जिसे सामूहिक दुष्कर्म के बाद इस कदर खत्म करने की कोशिश की गई कि जुबान ही कट गई....
 
आखिर जिस्म को लूटकर, आत्मा को भी छलनी करने के बाद आरोपियों की इतनी धृष्टता क्यों कि इसे ‍खत्म ही कर दो....हत्या जैसे अपराध से भी डर क्यों नहीं लगता इन्हें....‍? यह हम सब जानते हैं....हम हर दिन देख ही रहे हैं न्याय में मिलने वाली देरी भी, हत्या को आत्महत्या बताकर मामले को भटकाने की जल्दी भी, मामले का राजनीतिकरण भी और पुलिस का शरणागत हो जाना भी...आरोपियों के बचाव की एक लंबी गैंग का निरंतर बढ़ते जाना भी... और बचाव के रास्ते का सरल हो जाना भी...
 
निर्भया को मिले न्याय ने इतनी उम्मीद तो जगाई कि अपराधियों की फांसी तय है लेकिन दैहिक अपराध-शारीरिक शोषण पर रोक लग सके ऐसे कोई उदाहरण अभी इस देश ने स्थापित नहीं किए हैं। 
 
आज भी समाज में लड़की अपनी देह का दंड भोग रही है, आवाज उसकी ही दबाई जा रही है, चाहे वह महानगरों की इमारतों में तेज शोर के बीच हो या फिर गला दबाकर जुबान को निकाल देने की जघन्यता के साथ...

आखिर एक लड़की जिस्म और जुबान के अलावा है क्या? जिस्म उसका नोंचने के लिए है और जुबान उसकी काट देने के लिए है... कितनी-कितनी जुबान काट सकते हो...एक काटोगे, करोड़ों खुलेंगी.... नहीं दबा सकते तुम, न तीखे संगीत के शोर से, न मुंह से खींच कर निकाल देने से...  
 
सारी प्रशासनिक शिथिलताओं और राजनीति के कीचड़ के बाद भी जुबान तो खुलेगी ही... कितनी जुबान काटोगे?

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