अजरबैजान-आर्मेनिया के बीच नागोरनो-काराबख विवाद में तुर्की खुलकर अजरबैजान के साथ खड़ा हुआ
अजरबैजान-आर्मेनिया की जंग में तुर्की की दिलचस्पी से साफ होगी उसके इस्लामिक देशों का खलीफा बनने की राह
चीन, पाकिस्तान और इरान अगर तुर्की के साथ आए तो दुनिया में बनेगा युद्ध का तीसरा ध्रुव
एक इलाके को लेकर अजरबैजान और आर्मेनिया के आमने-सामने आ जाने से दुनिया विश्व युद्ध के मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है। सोवियत संघ से टूटकर अलग हुए इन दोनों एशियाई देशों के बीच भड़की आग की आंच को कम करने के लिए अमेरिका और रूस मध्यस्ता कर रहे हैं, लेकिन तुर्की इस आग में घी डालने का काम कर रहा है।
दरअसल, एक समय में धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र की पहचान रखने वाले तुर्की ने हाल ही में यहां के राष्ट्रपति अर्दोआन के नेतृत्व में इस्लामिक ने कट्टरवाद की तरफ रुख कर लिया है। यहां की लोकप्रिय हागिया सोफिया जैसी सेक्यूलर इमारत के साथ ही अन्य प्रतीकों और इमारतों को मस्जिदों और मुस्लिम धर्म के प्रतीकों में तब्दील करने के फैसलों से अर्दोआन की नीयत साफ हो गई है।
दरअसल, अर्दोआन धार्मिक कट्टरता की अगुवाई कर मुस्लिम देशों का खलीफा बनना चाहता है। ऐसे में अजरबैजान और आर्मेनिया के बीच भड़की आग में उसकी खासी दिलचस्पी है।
क्या है अजरबैजा-आर्मेनिया विवाद?
दरअसल, आर्मेनिया और अजरबैजान कभी पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे, सोवियत संघ के टूटने के बाद दोनों देश स्वतंत्र हो गए। अलग होने के बाद दोनों देशों के बीच नागोरनो-काराबख इलाके को लेकर विवाद हो गया। दोनों ही देश इस पर अपना अधिकार जताते हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक 4,400 वर्ग किलोमीटर वाले इस क्षेत्र को अजरबैजान का घोषित किया जा चुका है, लेकिन यहां आर्मेनियाई मूल के लोगों की जनसंख्या अधिक है। इस वजह से दोनों देशों के बीच 1991 से ही विवाद और संघर्ष चल रहा है।
1994 में रूस की मध्यस्थता से दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम हो चुका था, लेकिन दोनों देशों के बीच छिटपुट लड़ाई जारी है। दोनों के बीच तभी से ‘लाइन ऑफ कॉन्टेक्ट’ है। इस विवादित इलाके को अर्तसख भी कहा जाता है।
मुस्लिम बनाम ईसाई संघर्ष
इस संघर्ष को मुस्लिम बनान ईसाई के तौर पर भी देखा जा रहा है। क्योंकि आर्मेनिया एक ईसाई बहुल देश है, जबकि अजरबैजान मुस्लिम आबादी वाला देश है। इसके साथ ही अजरबैजान में तुर्की मूल के कई मुस्लिम रहते हैं। ऐसे में तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन इसे मुस्लिम आबादी की मदद कर अपना हित साधने के मौके के तौर पर देख रहे हैं।
रविवार को आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच हुए युद्ध में तुर्की खुलकर सामने आ गया है। युद्ध में टैंक, हेलिकॉप्टर, मिसाइल से लेकर दूसरे खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, कहा जा रहा है यह हथियार तुर्की के ही हैं। इस संघर्ष में अब तक 2 दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत के साथ करीब 100 घायल हो गए हैं।
तुर्की को क्या फायदा?
जैसा कि तुर्की के कट्टरपंथ का रास्ता अपनाने के बाद यह साफ हो गया है कि वो मुस्लिम देशों का खलीफा बनना चाहता है। ऐसे में आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच उतरकर वो अपनी इस आवाज को और ज्यादा बुलंद कर सकेगा। इसके साथ ही दुनिया में तीसरे ध्रुव के उभरने की भी आशंका है। इस तीसरे ध्रुव में तुर्की के साथ पाकिस्तान, चीन और इरान का सपोर्ट मिलेगा,क्योंकि जहां तुर्की, पाकिस्तान और चीन पहले से ही भारत के खिलाफ है।
ऐसे में तुर्की के इस्लामिक रैडिकल का हित सधेगा तो वहीं पाकिस्तान और चीन तुर्की का साथ देकर भारत को कमजोर करने का प्रयास करेंगे। हालांकि फिलहाल अमेरिका, रुस के साथ ही दूसरे देशों की कोशिश है कि दोनों देशों के बीच के इस युद्ध को टाला जा सके।