तथ्यों को गलत तरीके से पेश कर रहे हैं

अवधेश कुमार
जैसे एक समय देश में असहिष्णुता पर बहस चली थी, ठीक उसी तरह नरेन्द्र मोदी सरकार की अर्थनीति और वर्तमान आर्थिक स्थिति को लेकर चल रही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेट्रीज ऑफ इंडिया के स्वर्ण जयंती समारोह में बिना किसी का नाम लिए आर्थिक स्थिति की आलोचनाओं का विस्तार से तथ्यों और आंकड़ों के साथ जवाब दे दिया है। प्रधानमंत्री ने जो आंकड़े दिए उसमें एक भी ऐसा नहीं है जिसे गलत कहा जा सके, लेकिन आलोचकों का मुंह और कम्प्युटर पर उंगलियां अभी भी चल रही हैं। ये बंद भी होने वाली नहीं है। 
 
दरअसल, यहां उद्देश्य आर्थिक स्थिति का वस्तुपरक और ईमानदार आकलन नहीं, सरकार की आलोचना करना है। अगर आप अर्थशास्त्री के रुप में आर्थिक नीतियों या आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करते हैं तो आपको बिल्कुल तथ्यों के साथ जुड़े रहना होता है तथा मान्य आंकड़ों के आधार पर अपनी बात रखनी होती है। किंतु यदि आपको राजनीति करनी है तो आपके लिए यह आवश्यक नहीं है। आप अपने अनुसार तथ्य गढ़ सकते हैं, अपने अनुसार तथ्य चुन सकते हैं, आंकड़े भी अपने अनुसार निकाल सकते हैं और उनको आधार बनाकर आलोचना कर सकते हैं। इस समय यही हो रहा है।
 
चाहे पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का आलेख हो, या उसके बाद आई प्रतिक्रियाओं का उनका जवाब या फिर अरुण शौरी की आलोचना और उसके साथ आई अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठाने के आरोपों की बाढ़... सबमें आप ऐसे ही एकपक्षीय तथ्य व आंकड़ें देख सकते हैं। इससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 5.7 प्रतिशत विकास दर का जो आंकड़ा आया है वह थोड़ा चिंताजनक है। किंतु यह कतई अनपेक्षित नहीं है। जब आप लगातार एक साथ कई बड़े सुधार करते हैं तो उसका तात्कालिक धक्का अर्थव्यवस्था पर लगता है। 10 नवंबर 2016 को विमुद्रीकरण का विस्फोट और उसके बाद 1 जुलाई से जीएसटी की शुरुआत का असर अर्थव्यवस्था पर है। यह ऐसे ही है जब आप दीपावली के समय घर की धुलाई कराते हैं तो पूरा सामान कुछ समय के लिए तितर-बितर हो जाता है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सब कुछ नष्ट हो गया। कुछ ही समय में फिर चीजें व्यवस्थित होती हैं और पहले के समान सब कुछ चलने लगता है।
 
जब प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण किया तो उनके दिमाग में भी ये बातें थीं कि इतने बड़े कदम का तात्कालिक विपरीत असर भी होगा। आलोचक यह भूल रहे हैं कि एक झटके में करीब 16 लाख करोड़ रुपए बैंकिंग प्रणाली में आ गए। जो रुपए घरों में पड़े थे वे सर्कुलेशन में आ गए। उनका उपयोग विकास के कार्यों में किया जा सकता है। अरुण शौरी इसे मनी लौण्ड्रिंग कह सकते हैं। मान लीजिए, कुछ मनी लौंड्रिंग हुआ तब भी प्रणाली में इतना धन तो आया। आज अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत नकदी प्रयोग हो रहा है जो पहले 12 प्रतिशत था। यह एक क्रांतिकारी बदलाव है। जीएसटी की संभावना को देखते हुए उत्पादकों ने नया उत्पादन कुछ समय के लिए रोक दिया एवं पुराने माल को खपाने में लग गए। उसका असर सकल विकास के आंकड़े पर पड़ना था।
 
आलोचक यह भी कह रहे हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक ने इस वर्ष में विकास दर का आंकड़ा 7.3 प्रतिशत घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया। यकीनन किया है, लेकिन उसने भी आगे गिरावट का आंकड़ा नहीं दिया है। उसने स्पष्ट किया है कि पहली तिमाही के 5.7 प्रतिशत से बढ़कर दूसरी तिमाही में विकास दर 6.4 प्रतिशत, तीसरी में 7.1 प्रतिशत एवं चौथी तिमाही में यह 7.7 प्रतिशत हो जाएगा। यानी हमको वित्त वर्ष के अंतिम तिमाही में 7.7 प्रतिशत का विकास दर मिलेगा। इसका अर्थ हुआ कि आने वाले समय में हमें विकास दर चढ़ता हुआ मिलेगा। आप उसके एक आंकड़े को प्रस्तुत कीजिए और दूसरे को नजरअंदाज कर दीजिए, तो इसे बौद्धिक बेईमानी कहा जाएगा।
 
रिजर्व बैंक ने इसमें खरीफ फसल पैदावार का पहला अग्रिम अनुमान कम आना तथा जीएसटी क्रियान्वयन में समस्याएं बने रहने को प्रमुख कारण माना है। आखिरी दौर में मानसून ठीक न रहने से खरीफ फसल के पैदावार घटने की आशंका है। यह अपने हाथ में नहीं। मानसून नरेन्द्र मोदी ने नहीं रोक दिया है। जिस तरह जीएसटी परिषद की बैठक में उसमें आने वाली समस्याओं को दूर करने के कदम तत्काल उठा लिए गए है, कुछ क्षेत्रों से कर घटाए गए हैं, विवरणी दाखिल करने की अविध 1.5 करोड़ टर्नओवर वालों के लिए प्रतिमाह की जगह त्रैमासिक कर दिया गया है उससे काफी अंतर आएगा। रिजर्व बैंक का आकलन यह था कि अगर जीएसटी के क्रियान्वयन का प्रतिकूल प्रभाव बना रहा तो अल्पकाल में विनिर्माण क्षेत्र के लिए संभावना अनिश्चित बनी रहेगी। यानी इससे औद्योगिक गतिविधियों में अवरोध कायम रहेगा।
 
जाहिर है, इससे निवेश गतिविधियों में और देरी हो सकती है। इसमें विकास दर की तीव्र वृद्धि मुश्किल है। अब इसे संभाल लिया गया है तो स्थितियां तेजी से बदल सकती है और संभव है रिजर्व बैंक के विकास दर आकलन से वास्तविक विकास दर आगे निकल जाए। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति द्वारा की गई समीक्षा का एक पहलू यह है कि कंपनियां भी तीसरी तिमाही में व्यापार माहौल सुधरने की उम्मीद कर रही हैं। हां, रिजर्व बैक ने महंगाई दर को 4 से 4.5 प्रतिशत की जगह 4.2 से 4.6 प्रतिशत कर दिया है। यह थोड़ी चिंता का विषय है लेकिन यह ऐसी स्थिति नहीं है कि हाहाकार मच जाए। हमने यूपीए शासनकाल में 9 से 10 प्रतिशत तक महंगाई के आंकड़े देखे हैं। इतनी महंगाई देने वाले उस समय के वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम यदि आलोचना कर रहे हैं तो उस पर हंसने के सिवा और कुछ किया नहीं जा सकता। पूरी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा देने वाले चिदम्बरम एक विफल वित्त मंत्री के रुप में जाने जाएंगे। उन्होंने राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत तक कर दिया था जो आज 3.5 प्रतिशत से कम है। यह बहुत बढ़ी उपलब्धि है। यशवंत सिन्हा और चिदम्बरम दोनों निर्यात घटने की बात कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का निर्यात अगस्त तक लगातार 12 महीने बढ़ा और 2016-17 में यह पिछले पांच सालों के सर्वाेच्च स्तर पर चला गया। मई से वृद्धि में कुछ गिरावट आई, लेकिन अगस्त से इसने दोहरे अंकों की वृद्धि के साथ फिर गति पकड़ ली। इसी तरह कहा गया है कि कुल 95,000 करोड़ रुपये के जीएसटी वसूली में से जुलाई में 65,000 करोड़ रुपये का इनपुट टैक्स क्रेडिट है। यह शत-प्रतिशत गलत आकलन है। इस आंकड़े में जुलाई से बहुत पहले के टैक्स और स्टेट टैक्सेज के क्रेडिट भी शामिल हैं जिनका भुगतान हो चुका है। 
 
दूसरे, इसमें कुछ कानूनी विवाद के दायरे में आनेवाले कर भी हैं। साफ है कि आने वाले समय में इतना बड़ा आंकड़ा देखने को नहीं मिलेगा। बैंकों की स्थिति यूपीए सरकार ने पहले ही खराब कर दिया था। एनपीए को संकट विरासत में मिली है। लेकिन त्वरित बैक रीकैप योजना से सारी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। रोजगार के मोर्चे पर भी आलोचना हो रही है। जरा इससे संबंधित एक तथ्य देखिए। पिछले तीन सालके बैंकों से स्वरोजगार के लिए 50 हजार रुपए से एक करोड़ तक कर्ज लेने वालों की संख्या बढ़ी है।
 
श्रम मंत्रालय के अनुसार स्वरोजगार के लिए वर्ष 2014-15 में एक लाख करोड़, 2015-16 में एक लाख 25 हजार करोड़ और 2016-17 में लगभग एक लाख 50 हजार करोड़ रपए के कर्ज बैंकों ने प्रदान किया है। अगर स्वरोजगार के लिए इतना कर्ज मिला है तो क्या इसमें किसी को रोजगार मिला ही नहीं? ऐसा ता संभव नहीं है। सरकार का एक आंकड़ा यह भी है कि मुद्रा योजना में आठ करोड़ से ज्यादा लोगों ने कर्ज लिया है। उस आधार पर भी रोजगार बढ़ना चाहिए। वस्तुतः श्रम ब्यूरो के आंकड़ों में बैंकों से स्वरोजगार के लिए कर्ज लेने वाले शामिल नहीं है। एक सामान्य ईकाई में भी एक दो लोगों को तो रोजगार मिलता ही होगा। कई ईकाइयों में तो नौ से 10 लोगों तक को रोजगार मिलता है। मुद्रा योजना के तहत ही इसके आधार पर आकलन करें तो कई करोड़ को रोजगार मिलना चाहिए। प्रधानमंत्री ने जो आंकड़े दिए उसके उसे देखें तो इतनी सड़कें बन रहीं हैं, रेलवे का विस्तार हो रहा है, हवाई अड्डे बन रहे हैं, बंदरगाह विकसित हो रहे हैं, आवास भारी संख्या में बन रहे हैं। इन सब में किसी को रोजगार मिलता ही नहीं होगा यह तर्क ही अपने आपमें हास्यास्पद है। 
 
मोदी की अर्थनीति का विश्लेषण करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गुजरात में भी उनके लिए विकास दर बहुत मायने नहीं रखता था। उसकी जगह उनकी प्राथमिकता यह थी और है कि गरीबों की स्थिति में सुधार हो, निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग की कठिनाइयां दूर हों, जहां बिजली नहीं पहुंची है वहां बिजली पहुंचे, जहां पानी नहीं पहुंचा है वहां पानी पहुंचे, जहां इंटरनेट और फोन नहीं पहुंचा वहां ये पहुंचे, जहां सड़के नहीं हैं वहां तक सड़के जाएं, जहां सिंचाई की व्यवस्था नहीं वहां सिंचाई के स्थायी ढांचे खड़े हों....मोदी सरकार की अर्थनीति इसी दिशा में आगे बढ़ी है। मोदी ने स्वयं अपने भाषण में कई आंकड़े दे दिए हैं कि उनकी सरकार के कार्यकाल में इन मोर्चों पर कितना काम हुआ है। यदि देश की आंतरिक और लोगों से जुड़ी हुई आधारभूत संरचना सुदृढ़ हो तो अर्थव्यवस्था को लंबे समय के लिए स्थायी ठोस आधार प्राप्त हो जाता है। बाजार पूंजीवाद के अर्थढांचे में यही नीति उपयुक्त है।

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