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* कलम का सिपाही बनाम सिपाही की कलम
 
-वीरेन्द्र पैन्यूली (स्वतंत्र लेखक) 
 
स्मरण करें गुलाम भारत के भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का, पंडित मदन मोहन जैसे समाज निर्माताओं का या महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे अनेकानेक राजनीतिक नेताओं का। इन सब में आप एक समानता पाएंगे। ये सभी किसी न किसी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में संपादन या लेखन से जुड़े थे। आजादी के ये महान नायक कलम के सिपाही होने की स्मरणीय भूमिका में भी रहे। 
 
ऐसे अनगिनत व अनाम लिखने वाले क्रांतिवीरों व उन जैसों के लिखे लेखों को जो छापते थे, उनको भी साहसी होना पड़ता था। और कभी-कभी जो ऐसे लेखन की पत्र-पत्रिकाएं वितरित करते थे उनको भी जोखिम झेलते हुए वितरण करना होता था। इनके लिखों को पढ़ने वाले व सहेजने वाले भी सरकार बहादुर राजा-महाराजाओं तथा उनके भेदियों की नजर व निगरानी में होते थे। गुलामी के दिनों में खासकर देशी रियासतों में तो बाहर से आने वाली पत्र-पत्रिकाओं को रियासत में लाने व पहुंचाने पर भी पाबंदी थी।
 
शासकों को डर तख्तापलट वाली बगावत का ही नहीं होता था। डर आधुनिक विचारों का रियासतों में पहुंच का भी होता था। सामाजिक बगावत का भी अंदेशा इन्हें सालता था। लेखनियों से निकले विचारों से बंधुआ मजदूरों, कर्जदारों महिलाओं के अधिकारों की स्वतंत्रता के साथ उन्हें अपनी निरंकुशता व संपन्नता पर आने वाली चुनौती का डर लगता था। यह सब एक तरह से कलम के सिपाहियों व सिपाहियों की कलम का डर होता था। तोपों का सामना करने के लिए अखबार ताकत देते थे।
 
 
तत्कालीन टिहरी रियासत में सुमनजी के नेतृत्व में जो राजशाही के विरुद्ध युवा उभार आया और बाद में भारत की आजादी के बाद भी टिहरीवासियों की राजशाही के विरुद्ध स्वशासन की भावना निर्णायक हुई थी उसमें तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल और कुमायुं की पत्रकारिता व समाचार पत्रों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
 
कलम के लिखे से जनता की आवाज कुचलने वाले बहुत डरते हैं। अपने देश में भी जिस रात अचानक आपातकाल लगा था उस रात ही प्रेसों पर पहरा व सेंसर भी लग गया था। अखबारों का छपना व बंटना खौफ के साये में हो रहा था। पहले की छपी पत्रिकाओं के उन अंश पर काली स्याही फिरवाई गई जिनसे आपातकाल के विरुद्ध लोगों के खड़े होने का डर था। मुझे याद है कि एक प्रसिद्ध कहानी पत्रिका का जो अंक तब तक तैयार हो चुका था, जब अगले दिन स्टैंडों पर आया तो कहानियों में पंक्तियों को जगह-जगह काला कर दिया गया था। अब कई वर्षों से ये पत्रिका बंद हो गई है।
 
इन्हीं परिप्रेक्ष्य में आज पत्रकार जगत के बीच भी आत्मावलोकन की जरूरत है, क्योंकि आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने व लिखने वालों, समाचार भेजने वालों की  साख पर भी बुरी नजर है। बिकाऊ और बिके के लांछन भी कुछ के कारण ईमानदारों को भी बिना किसी प्रमाण के सहने पड़ रहे हैं। निःसंदेह स्थितियां कभी-कभी ऐसी भी आ जाती हैं कि समाचार पत्रों में विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढने पड़ते हैं। ऐसे में समाचार भेजने वाले संवाददाताओं को अपने भेजे समाचारों को भी शायद ढूंढना पड़ता है या लगवाना पड़ता है।
 
पन्नाई अखबारों के कारण उल्टे चलते आंदोलनों व सामाजिक बदलाव के अभियानों की सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आक्रोश की धार कभी पैनी ही नहीं हो पाती है। पाठकों को लगता है कि हम स्वयं आंदोलनरत हैं, बाकी जगह सन्नाटा है। आप टूटन और थकान या एकजुटता की कमी महसूस करने लगते हैं। 
 
यही नहीं, चुनावों के समय लगता है बस एक-दो राजनीतिक दल ही हैं, शेष की तो सभा भी नहीं हो रही है। एक बड़े स्तर पर इसे चुनावों में पेड न्यूज के कलंक के रूप में सुना व देखा जाता है। इसी तरह से किसी को बदनाम करने व प्रतिस्पर्धा से हटाने या छबि खराब करने के लिए प्लांटेड न्यूज का सहारा लिए जाता है। समझ लीजिए भ्रामक खबरें रोपित करवा दी जाती है। शायद स्टिंग ऑपरेशन भी करवा दिए जाते हैं। 
 
यहां पत्रकार का सिपाही चरित्र कैसे बरकरार रह सकता है? केवल आदर्शों से बात नहीं चल पाती है। परंतु इस कटु यथार्थ को भी समझना होगा कि अभिन्न रूप से कलम की मौत से जुड़ी होती है पत्रकार की साख की मौत। शायद ऐसी स्थितियों में कलम का सिपाही बहुत वेदना झेलता है।
 
मुझे लगता है कि भारत में पिछले कुछ माहों में जिस तरह सुरक्षा से जुड़े सैनिक व पैरासैनिक सोशल मीडिया में उनकी इकाइयों में बिगड़ती चिंतनीय स्थितियों के बयान करने में मुखर हुए हैं, वैसी ही हड़कंप मानवीय संवेदना से संवेदित कलम का सिपाही भी अपने कार्य परिवेश के संबंध में उजागर कर ला सकता है। राज्यों के स्तर पर भी ये हलचलें हो सकती हैं।
 
हमारे देश में आम धारणा के विपरीत समाचार पत्रों का प्रसारण बिक्री और प्रसारण संख्या लगातार बढ़ रही है। इसका कारण बढ़ती साक्षरता भी माना जा रहा है। समाचार पत्रों के दाम भी बढ़ रहे हैं। परंतु समाचार पत्रों में ऐसा गंभीर अकादमिक रूप से अच्छे स्तर का नहीं छप रहे है जिसे रोजमर्रा में पढ़कर आप प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोग कर सकें। 
 
याद करें, कुछ वर्ष पूर्व की ही बात, जब मां-बाप घरों में पेट काटकर अतिरिक्त अखबार या पहला अखबार इसलिए लगाते थे कि घर के बच्चों को किसी प्रतियोगिता में बैठना था, लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदली हैं। ऐसे में ब्रेकिंग न्यूज के जमाने में सच्चाई तक पहुंचने के लिए कलम के सिपाही और सिपाही की कलम की प्रासंगिकता और ही बढ़ गई है। 
 
(साभार : सर्वोदय प्रेस सर्विस)

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