भय से निर्भयता की ओर कदम कैसे बढ़ें?

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
गुरुवार, 4 जून 2020 (16:40 IST)
दुनिया के लोगों के मन आज भय से व्याकुल हैं। दुनियाभर की राजकाज की व्यवस्थाओं, समाजों और मनुष्यों के मन में जो चिंता और भय अपने जीवन की सुरक्षा और जनजीवन की गतिशीलता के बारे व्याप्त हो गया है, उससे आज की दुनिया कैसे उबरे? यह वह सवाल है जिसे लेकर आप, हम, सब चिंतनरत हैं।
 
ऊपर-ऊपर हम सब यह जरूर कह रहे हैं कि डरने की नहीं, महामारी से लड़ने के लिए सतर्क रहने की जरूरत है। पर हकीक़त यह है कि अंतरमन में सारी दुनिया की सरकारें और लोग भय से उबर नहीं पा रहे हैं। हम भयभीत क्यों होते हैं? सारी दुनिया अपने मन में समाये भय से अपने आपको कैसे मुक्त करे? भयभीत मन निर्भय मन में कैसे बदलें? यह एक मनोवैज्ञानिक सवाल के साथ ही दार्शनिक और आध्यात्मिक सवाल भी हैं।
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एक सवाल यह भी है कि क्या हम वाकई में भयभीत हैं? एक सवाल यह भी कि हम किस बात से भयभीत हो रहे हैं। मृत्यु, बीमारी या महामारी से? पर ये तीनों तो दुनिया के जीवन में सनातन काल से सनातन रूप में मौजूद हैं। उसमें नया क्या है? तो फिर हम सब के मन में इतनी हलचल क्यों है? 
मनुष्य का मन सदैव आशा और भरोसे की छत्रछाया में रहना ज्यादा पसंद करता है। निराशा मन की गति को कमतर कर देती है। बैठे-बैठे या लेटे-लेटे और सुरक्षित जीवन से भरपूर खुद के घर-परिवार के साथ भी निराशा में मन में उत्साह नहीं होता। सब कुछ होते हुए भी कुछ भी अच्छा नहीं लगता। पर आज की दुनिया का भय निरी निराशा या हताशा जैसी मन:स्थिति नहीं है।
 
ज्ञान और अज्ञान इन दोनों की मनुष्य के जीवन-यापन और मन की स्थिति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ज्ञान से प्राय: भय बढ़ता है, मन में कई तरह की उथल-पुथल चलती रहती है। अज्ञान प्राय: निर्भयता को बनाए रखने का एक कारक है। खतरे का ज्ञान न हो तो भय की उत्पति खतरे के मौजूद होते हुए भी नहीं होती। कानून का भय उसे होता हैं, जो कानून का जानकार होता है। जिसे कानून का ज्ञान ही न हो, उसके मन में कानून को लेकर प्राय: कोई भय ही नहीं होता।
 
आध्यात्मिक साधना में रत साधक जब आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तो उनका मन भय से परे हो सकता है। भयप्रद परिस्थितियों में आत्मज्ञानी के मन में भी शंका-आशंका का जन्म तो होता है, पर उनके मन का जाग्रत विवेक मन को भयग्रस्त नहीं होने देता है और मन निर्भय स्थिति में बना रहता है। इस तरह हम मान सकते हैं कि भयभीत होना या निर्भीक रहना यह हमारे मन का मानस है।
 
आजादी के आंदोलन में संत विनोबा भावे धुलिया जेल में बंद थे। विनोबाजी उन दिनों सोमवार को मौन रहते थे। एक सोमवार को शाम के बाद जब अंधेरा हो चुका था और विनोबाजी सोने की तैयारी में थे तो उन्हें जेल की अपनी कोठरी में सांप दिखाई दिया। अंधेरा हो चुका था, ताला बंद हो चुका था और कोठरी के पास कोई सिपाही नहीं था। विनोबाजी का उस दिन मौन था। किसी को आवाज देकर बुलाने पर विनोबाजी के मौन व्रत का भंग होना तय था, जो विनोबाजी जैसे आत्मज्ञानी के लिए व्रत भंग संभव ही नहीं था।
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विनोबाजी ने सोचा कि जैसे मनुष्य के मन में सांप को लेकर भय है, वैसे ही सांप भी मनुष्य से डरता है। मैं मनुष्य हूं और सांप का प्राकृतिक भोजन नहीं हूं, मेंढक सांप का भोजन है। यदि मैं मेंढक होता तो मेरे मन में यह भय उत्पन्न होना स्वाभाविक होता कि सांप मुझे खा सकता है। पर जब तक मैं सांप को हानि न पहुंचाऊं, तब तक सांप मुझ पर हमला नहीं करेगा।
 
विनोबाजी ने अपना मौनव्रत जारी रखते हुए किसी को भी आवाज नहीं दी और न ही सांप को भगाने का कोई उपक्रम भी किया। विनोबाजी ने सांप की उपस्थिति में ही सोने का निर्णय किया। विनोबाजी रात को सोते समय जेल की कोठरी का दीया बुझा देते थे, पर उस रात उन्होंने दीया नहीं बुझाया और कोठरी में सांप के रहते हुए ही सो गए।
 
विनोबाजी ने लिखा है कि रोज मुझे लेटते ही नींद आ जाती थी, पर उस दिन 2-3 मिनट बाद आई। प्रात: 2 बजे नींद खुली तो मैंने देखा कि स्वामी भी सो रहे हैं क्या? पर वह वहां नहीं था, वह निकल गया था। उस भय को जीत न लिया होता तो मौन व्रत का भंग होता। मौन व्रत ने मेरी रक्षा की। यह आध्यात्मिक मन की जीवनदृष्टि का प्रत्यक्ष उदाहरण है। संपूर्ण एकाकार स्थित मन में कोई भय और भेद नहीं। जीवनयात्रा में हर पड़ाव पर चुनौतियां और खतरे होते ही हैं, पर शांत और व्यापक जीवन दृष्टि के साथ पूरी एकाग्रचित्तता से मनुष्य को शांत और निरापद जीवन की राह मिलती जाती है।
 
दुनियाभर में ज्ञानी, अज्ञानी और आध्यात्मिक मन इन तीनों ही वृत्तियों के लोग हैं और तीनों की अपनी-अपनी भूमिका है। हमारी इस दुनिया में महासागरों की तरह मनुष्यों के कई लोकसागर भी मौजूद हैं। जैसे महासागर निरंतर हिलौरे लेता रहता है, वैसे ही लोकसागर का मानस भी हमेशा शांत नहीं रहता है और उसमें तरह-तरह की हलचलें चलती ही रहती हैं। इन हलचलों को रोका नहीं जा सकता, पर ऐसी हलचलों के साथ ही दुनिया में मनुष्य की जीवन यात्रा सनातन समय से चलती रही है और सनातन समय तक चलती रहेगी। इसे ही मनुष्यों ने संसार की संज्ञा दी है।
 
ज्ञानी, अज्ञानी और आध्यात्मिक मानस के त्रिवेणी संगम से ही अनेक समस्याएं चुनौती बनकर खड़ी होती हैं, कुछ का समाधान होता है और कुछ जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। इसी से समस्याओं के साथ जीते रहने की मनुष्यों को आदत हो जाती है।
 
निरंतर जीते रहना मनुष्य मन का सहज स्वभाव है। इसी कारण मनुष्य हर काल और परिस्थिति की चुनौतियों को स्वीकार कर जीते रहने का इंतजाम करता रहता है। शायद यही कारण है कि मनुष्य मृत्यु के क्षण तक को भी जीना चाहता है। जीते-जी मरना या समर्पण करना नहीं चाहता। मनुष्य की यह अनंत काल से चली आ रही जीवनी शक्ति मनुष्य मन की अनंत हलचल है। मनुष्य का मन ही वह अनोखी शक्ति है, जो मनुष्य की गतिशीलता का मुख्य कारक है।
 
भय से निर्भयता की ओर कदम मनुष्य के मन में तभी उठता है, जब मनुष्य ज्ञान-अज्ञान की बहस में उलझे बिना ही अपने को भी प्रकृत्ति का हिस्सा समझने लगता है। जगत से एकाकार होने का भाव मन में आते ही सारे भयों का लोप हो जाता है और मनुष्य का मन निर्भयता की धारा में समा जाता है। जीवन का निरंतर प्रवाह मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से ओतप्रोत करता रहता है।
 
यही कारण है कि मनुष्य की जीवन यात्रा में ज्ञान, अज्ञान और विज्ञान तीनों का योगदान है। पर जब मनुष्य भय-निर्भय से ऊपर उठ जाता है, मन में हर स्थिति में आनंद से जीने की आध्यात्मिक धारा प्रवाहित होती रहती है तब आप सांप के साथ गहरी नींद सो रहे हैं या महामारी में सतर्कता से जी रहे हैं और इसमें कोई भय या भेद नहीं रह जाता।
 
जीवन यात्रा का अंत विराट में विलीन होना है तो जीवन के आरंभ से अंत तक विराट से एकाकार होकर जीना ही जीवन का आंतरिक आनंद है।

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