भारत, रूस और चीन देंगे महाशक्ति को टक्कर

India Russia China alliance: इतना तो दुनिया जान ही चुकी है कि जो अमेरिका करीब 80 साल से दुनिया को ठेंगे पर रखे हुए था, उसका सिंहासन डोल रहा है। यह रातोरात नहीं ढहेगा, यह भी सही है। फिर भी बड़ी बात यह है कि उसे सबसे धारदार टक्कर एशिया से मिल रही है, जहां तीन दशक पहले तक गरीबी, भुखमरी, बदहाली पसरी होती थी। जाहिर है कि चीन-भारत ने वर्चस्व के इस दंगल में प्रतिद्वंद्वी को पसीना ला दिया है। इस नए गठजोड़ की ताकत अमेरिका के पारंपरिक प्रतिस्पर्धी रूस के साथ आ जाने से दुगनी हो गई है। यह भले ही पचमेल दाल लगे, लेकिन इसका स्वाद ट्रम्प चाचा का जायका खराब कर रहा है।
 
यदि हम तुलनात्मक आंकड़ों के फेर में न भी पड़ें तो साफ देख सकते हैं कि शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (सीएसओ) की जो बैठक चीन में हुई, उसने न केवल अमेरिका, बल्कि समूची दुनिया को एक संदेश दिया है कि यह सदी एकतरफा दादागीरी, तानाशाही की नहीं है। फिर जैसी कि रीत है- दुश्मन का दुश्मन किसी का दोस्त होता है। रूस की अमेरिका से खटपट तो दशकों पुरानी है ही, चीन के साथ भी अमेरिका की विशेष तौर से एक दशक पूर्व जो तनातनी प्रारंभ हुई है, वह निर्णायक मोड़ पर आ खड़ी हुई है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी का एक गलत कदम उसे खाई में धकेल सकता है। यह आशंका अमेरिका के खाते में अधिक है। हालांकि, उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ऐसा बिल्कुल नहीं मानते। या ये भी कह सकते हैं कि वे जताते तो कतई नहीं।
 
इस पूरे मामले का उजला पहलू यह है कि अमेरिकी नेता की जो सनक भरी क्रियाएं हैं, उसे दुनिया पहली बार अच्छी तरह से समझ रही है और उसे सरासर गलत भी ठहरा रही है। इसमें वे देश तो हैं ही, जिनका अमेरिका दशकों से दोहन-शोषण कर रहा था, साथ ही वे देश तो कड़े प्रतिरोध पर भी उतर आए हैं, जो हालिया टैरिफ वार से नाराज हैं। इसमें उल्लेखनीय पहलू यह है कि अमेरिका अभी तो यह मानने को तैयार ही नहीं है कि 21वीं सदी में उसका वर्चस्व कम हुआ है। वह ऐसे पेश आ रहा हो जैसे दूसरे राष्ट्र उसके यहां गिरवी रखे हों। जबकि, पठानी वसूली या जमींदार के कानून ही सर्वोपरि वाला दौर अतीत में गुम हो चुका है, लेकिन ट्रम्प यह मानते नहीं दिख रहे। संभव है, जब उनके अपने लोग, न्यायपालिका, विपक्षी दल तीव्र विरोध पर उतर आएंगे, शायद तब उन्हें थक-हारकर पासे समेटने पड़ें।
 
अभी विश्व समुदाय को थोड़ा संशय इस पर भी है कि जो चीन हमारी हजारों एकड़ जमीन हड़प चुका है। जो चीन हमारे खुदरा बाजार पर बुरी तरह से छाया हुआ है। जो चीन कुटीर उद्योग के बल पर हमारे देश के अनेक काम-धंधे बंद करवा चुका है, वह हमारा स्थायी और विश्वस्त सहयोगी कैसे हो सकता है? हमारी यह सोच पूरी तरह से सही है। चीन तो क्या यह दौर किसी पर भी अंधा विश्वास करने का तो बचा ही नहीं। लेकिन, कुछ तालमेल समय की नजाकत के मद्देनजर करने पड़ते हैं। चीन से तालमेल समय की मांग ही है। फिर जो रूस बुरी तरह से यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा है और जो अमेरिका के निशाने पर भी है, वह हमारा कितना साथ निभा सकता है? यह भी सही है, लेकिन हम मौजूदा हालात में अमेरिका की तुलना में रूस पर अधिक विश्वास कर सकते हैं। भौगोलिक परिस्थितियां भी हमें रूस से सहयोग की ओर ले जाती हैं। वह अतीत में भी लंबे अरसे तक हमारा मित्र रहा है- भले ही अपनी शर्तों पर और लक्ष्यपूर्ति के लिए। इसलिए हाल-फिलहाल के हालात में हम चीन और रूस दोनों के साथ आगे बढ़ सकते हैं।
 
यहां आवश्यकता इस बात की है कि क्या हमारे देश का नेतृत्व इस दुविधा को जानता-समझता है या नहीं? क्या वह समय की गंभीरता को देखकर तालमेल बनाकर निपटने की नीति अपना रहा है? तो हमें यह मानना पड़ेगा कि केंद्र सरकार बीते 11 वर्षों में राष्ट्र हितों को सर्वोपरि रखते आई है, इस पर कोई संदेह करे उसकी मर्जी, लेकिन वह स्वतंत्र भारत की सबसे सफल विदेश नीति वाली सरकार तो बार-बार साबित हुई है। फिर इस समय ट्रम्प की टैरिफ सनक से वह जिस बेखौफ तरीके से निपट रही है, उसने शेष विश्व में भी भरोसा जगाया है कि भारत उनके हितों का संरक्षण भी कर सकता है, यदि हम उसके साथ खड़े रहे तो। आगे-पीछे कुछ नये ध्रुवीकरण भी भारत-चीन-रूस गठज़ोड़ में हो सकते हैं।
 
थोड़ा-सा आंकड़ों की पड़ताल भी कर लेते हैं। भारत इसी साल विश्व की चौथी बडी अर्थ व्यवस्था बन चुका है। अमेरिका, चीन, जर्मनी के बाद वह आ चुका है, जापान को पीछे छोड़कर। फिर जो उभरते विकासशील देश हैं, उनमें चीन के बाद भारत ही है। पूरी दुनिया में हमारी खरीदी क्षमता तीसरे क्रम की है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 2025-26 में हमारी विकास दर 6.4 प्रतिशत आंकी है। मोबाइल फोन में हम चीन से बड़े निर्यातक हैं।

ट्रम्प टैरिफ के बावजूद विश्व की मानी हुई रेटिंग एजेंसी एस एंड पी व फिच ने भारत में भरोसा जताया है। देश में जीएसटी कलेक्शन लगातार बढ़ रहा है, जो इस बात का प्रतीक है कि हमारी घरेलू खपत में वृद्धि हो रही है। मंहगाई दर 1.55 प्रतिशत है, जबकि जून में 2.10 थी। जापान की 3.1 है,अमेरिका की 2.9 है। ब्रिटेन की 3.8 है,जर्मनी की 2 तो चीन की सबसे कम 0.9 प्रतिशत है। 2030 तक 7.3 ट्रिलियन डॉलर की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ भारत तीसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था बन सकता है।
 
केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया इस समय संक्रमण काल से गुजर रही है। यह समय धैर्य का है। साथ ही आत्मनिर्भरता बढ़ाने पर भी राष्ट्रों को जोर देना होगा, जो भारत कर रहा है। हमने मेक इन इंडिया अपनाकर दुनिया को दिखा दिया कि अपनी रक्षा जरूरतों का 60 प्रतिशत हम बना सकते हैं। इसी तरह अंतरिक्ष कार्यक्रम, इन्फ्रास्ट्रक्टर, वैकल्पिक ऊर्जा, स्वदेशी पर जोर देकर हम आगे बढ़ रहे हैं। अमेरिका की तकलीफें इसलिए भी बढ़ी हैं कि हम उससे तेल, रक्षा उत्पाद में न्यूनतम निर्भर हैं। जो निर्यात हम उसे कर रहे हैं, उस पर 50 प्रतिशत टैरिफ से वह तात्कालिक झटका तो दे सकता है, लेकिन लंबे समय तक टिकना मुश्किल है।

अभी अमेरिका को 48.2 अरब डॉलर का निर्यात हम करते हैं, जबकि कुल निर्यात 824.9 अरब डॉलर का है। यानी 5 प्रतिशत अमेरिका को जाता है। रकम बड़ी है, लेकिन उसकी भरपाई के लिए जो कदम मोदी सरकार ने उठाए हैं, वे बेहद ठोस और दीर्घकालीन असरदायी साबित हो सकते हैं। इन व्यापारिक हितों के आघात से ट्रम्प पूरी दुनिया से ही बौखलाए हुए हैं। भारत इस दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है तो तकलीफ भी उतनी ही बड़ी होगी ही। समय बलवान है। वह सबका हिसाब बराबरी से लिखेगा। देखते हैं, किसका जमा पक्ष मजबूत साबित होता है।

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