2020 की शुरुआत हो चुकी है। अच्छे माहौल में 2020 गुजरना चाहिए। गिरती हुई जीडीपी, बिखरती हुई अर्थव्यवस्था, चरम पर पहुंची बेरोजगारी और नागरिकता के नाम पर देश में लगाई गई आग ऐसे काम हैं जो तकलीफ देते हुए 2020 में भी बने रहेंगे लेकिन कोशिश यही रहे कि सौहार्द नहीं बिगड़े।
2020 कैसे सर्वहितैषी बने यह भारत जैसे महान देश को स्वयं सोचना पड़ेगा। क्या अपने ही हाथों तैयार परेशानियां लेकर भारत का लोकतंत्र रोशन होगा? मानव निर्मित परेशानियों के समाधान निकाल कर एक सम्यक भारत का निर्माण कर पाएंगे?
पिछले कुछ साल भारत की आधी आबादी को डराने कोसने और उसके दमन करने की नीतियों को न्यायसंगत ठहराने में निकल गया है। कोई सकारात्मक काम नहीं हुए। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि संघ के एक विचारक ने यहां तक कह दिया कि भारतीय परंपराओं में बलात्कार की सजा देने का कोई नियम नहीं है। इस तरह 2019 एक दकियानूसी साल था। आधी आबादी को कुचल देने वाली सोच को 2020 में नष्ट करना होगा।
कुछ सवाल हैं जो खड़े रहेंगे। जवाब हमे खोजना होगा। क्या अपने ही नागरिकों को अपना ही इतिहास खोजने के लिए विवश किया जाएगा? अपनी नागरिकता सिद्ध करने के अज्ञात अंधेरे की टनल से क्या उन्हें गुजारा जाएगा? क्या यह व्यावहारिक है कि लोग 70 साल पीछे जाकर अपने माता-पिता की जन्मतिथि की खोज करें उसके दस्तावेज उठाएं और राहत की सांस लें या वे अपने स्वयं के दस्तावेज के आधार पर भारत के गौरवमयी नागरिक कहलाएं। यह सवाल 2020 की सुबह के सामने चुनौतियों के रूप में खड़े हैं।
नए एनपीआर में जिन 15 तरह की जानकारियां दी जानी हैं उन्हें आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। माता और पिता की जन्म तिथि स्थान और उसके प्रमाण कहां से लाए जाएंगे जबकि पिता की पीढ़ी तो जन्म दिनों को संवत् और तिथियों के अनुसार याद रखती थी। किसी अन्य बड़े व्यक्ति के जन्मदिन अथवा उसकी शादी की तारीख से जोड़कर आगे-पीछे के दिनों के हिसाब से याद रखती थी।
अब यह पूर्णता अव्यावहारिक है कि कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए 100 साल पुराने इस रिकॉर्ड की खोजबीन करें। कई महीने यह ढूंढने में ही खप जाएंगे कि जिस गांव में पिता का जन्म हुआ था, उस गांव में उनके समय का कोई व्यक्ति जीवित भी हो। कल्पना करें कि हर नागरिक अपने होने का सबूत जुटाने में लगा है। मारा-मारा फिर रहा होगा।
देश की वास्तविक समस्याओं से आज मुंह मोड़ना अनुचित होगा। देश में स्टील की कीमतें लगभग 34 प्रतिशत नीचे चली गईं है। मोटर उद्योग में लगभग 32 प्रतिशत खपत कम हुई है। एफएमसीजी में भी लगभग 30 प्रतिशत खपत में कमी आई है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो बहुत ही विकट स्थिति है लगता है उनकी क्रय शक्ति जवाब दे चुकी है, यही हाल दूसरे उत्पादन क्षेत्रों का है चाहे सीमेंट हो या अन्य जिससे अधोसंरचना क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
आज हम अर्थव्यवस्था के उस बुरे दौर में पहुंच गए हैं जहां पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और प्रति व्यक्ति अनुपात में हम वहीं पहुंच गए हैं जहां चीन 2002-03 में खड़ा था। 5 प्रतिशत की वास्तविक जीडीपी हासिल करना एक चुनौती है और मंदड़ियों का सोच है कि लंबी अवधि तक यही दर बनी रह सकती है। कहीं पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने की उतावली में हम आगे बढ़ने के बजाय पीछे तो नहीं लौट रहे हैं। जो पाकिस्तान पहले ही मरा हुआ है उससे लड़ना हमारा ध्येय तो नहीं हो सकता।
हमारे बैंकों की हालत खराब हो चुकी है। सहकारी बैंक डूब रहे हैं, बैंकों से कर्जा नहीं उठ रहा है स्वाभाविक है। बैंकिंग उद्योग घाटे में जाएगा। आज देश के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है जिससे हमें बाहर निकलना है और 2020 में इस चुनौती से बाहर निकलने के लिए हमें सीएए और एनसीआर जैसी थोपी गई प्राथमिकताओं से देश को बाहर निकलना पड़ेगा।
देश की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि गरीब के पेट में खाना कैसे पहुंचे, उसे काम कैसे मिले, उसे रोजगार से कैसे जोड़ा जाए? हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि भारत सिर्फ हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों ईसाईयों, पारसियों या किसी एक कौम का देश नहीं है। यह गरीबों का देश है। सभी कौमों में गरीब हैं। क्या उनकी भी कोई बात करेगा? क्या महान भारत और विश्वगुरु भारत में गरीब लोगों की भी जगह होगी?
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)