Indore system fail to manage heavy rain : हम इंदौर के लोग 'प्राउड टू बी इंदौरियन' के सिंड्रोम से कुछ ज्यादा ही पीड़ित हैं। हम एक प्लेट पोहा और दो जलेबी में संतुष्ट होकर किसी महाराज की तरह पेट पर हाथ फेरते हैं। दाल-बाटी मानो हमारे लिए मुक्ति का मार्ग है।
इस संतुष्टि का आलम यह है कि अगर इंदौर में चार घंटे का ट्रैफिक जाम लग जाए तो किसी को गुस्सा नहीं आता। बस, हमारी सड़कें साफ-सुथरी हैं तो हम हर मेहमान के सामने इसी सफाई की डींगें हांकने से नहीं कतराते। अगर 4 घंटे की बारिश में शहर के नक्शे पर तालाब और झरने उभर आएं तो यह बात हमें चिंता में कतई नहीं डालती, बल्कि इसके विपरीत यह हमें ठिठोली का एक मौका नजर आने लगती है— जबकि हकीकत यह है कि फटा पोस्टर और स्मार्ट सिटी इंदौर का सच सामने आ गया है।
शायद इसलिए इंदौर के प्रतिष्ठित अखबार सड़कों के जाम और जल जमाव के लिए इंदौर नगर निगम और जिला प्रशासन की बजाए खुद इंदौर को ही कोसते हैं और लिखते कि इंदौर तुम ऐसे तो न थे...
शहर की बदहाली पर ज्यादा से ज्यादा इंदौर की तरफ से किसी अंजान मालिक के नाम एक खत लिख डालेंगे और इंदौर की पीड़ा व्यक्त कर देंगे। शहर के एक प्रमुख अखबार ने हैडिंग दी है- बूंदों ने धोया ट्रैफिक प्लान... क्या शुक्रवार को इंदौर में हुई 6 इंच बारिश महज बूंदें थीं?
इस तरह के दिनों में जब लाखों लोगों की जान आफत में आ जाए उस वक्त खबरों और हैडिंग में कविता करना कितना ठीक है?
कुछेक अखबारों को छोड़ दें तो शुक्रवार की बारिश में उफन कर आई इस लापरवाही के बारे में किसी ने आक्रामक रिपोर्टिंग नहीं की। वैसे ही शहर का जिला प्रशासन और नगर निगम इंदौर की मीडिया से डरता नहीं है— ऐसे में अखबार या तो रिपोर्टिंग कर लें या कविताएं लिख लें। बेहतर होगा कविता कवियों के लिए छोड़ दें महाराज।
इंदौर की दर्जनों कॉलोनियां डूबी हैं। लाखों लोग कई घंटे जगह-जगह जाम में फंसे रहे हैं। निचली और गरीबों की बस्तियों में दो वक्त का आटा भी पानी में घुल गया। अच्छा हुआ किसी को करंट नहीं लगा। अच्छा हुआ कोई मुंबई की तरह सड़क के खुले चेंबर में डूबकर नहीं मरा। माफ करना, इस तरह की कवितायी रिपोर्टिंग से इंदौर के कर्ता-धर्ता और रहनुमाओं की मोटी चमड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ना है।
बारिश के पहले से ही इंदौर के बदहाल ट्रैफिक और जर्जर सड़कों पर हमारी रिपोर्टिंग अब तक कितना असर डाल पाई है वो तो हमारे सामने है ही। अफसर मीडिया वालों को अपने सरकारी वर्जन से कितना मूर्ख बनाते हैं वो हर मीडिया वाला जानता ही है।
कुछ लोगों ने इंदौर को पोहा-जलेबी और दाल-बाटी में समेट दिया है, इससे बाहर आकर इंदौर को एक ऐसे शहर में स्थापित करने वाला मानना होगा, जहां लाखों लोग रहते हैं और हजारों लोग रोजाना अपने सपने लेकर यहां आते हैं, जिनकी जान और माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी इसी शहर के प्रशासन की है। वही प्रशासन जो जर्जर सड़कें, बेहाल ट्रैफिक, बदहाल ड्रेनेज सिस्टम को इगनोर कर पिछले 7 साल से अपने सिर पर सिर्फ सफाई का तमगा लेकर घूम रहा है।
माफ कीजिए, हमें पोहा-जलेबी और दाल बाटी की संतुष्टि और इस सिंड्रोम से बाहर आना होगा और आक्रामक तरीके से इस शहर की तकलीफें उठाना होंगी— नहीं तो यह शहर हमेशा किसी अनजान मुखिया के नाम अपनी तकलीफों को बयां करने के लिए खत ही लिखता रहेगा। इस मालवा कल्चर का मान है और सम्मान है, लेकिन यह भी तो देखिए कि अब वो शबे मालवा भी कहां रही। प्राउड टू बी इंदौरियन के सिंड्रोम से बाहर आइए भिया.... इतना ही यथेष्ठ है।