मगसम पटल से राष्ट्रीय संयोजक महोदय का आदेश हुआ कि जबलपुर सम्मान समारोह पर एक रिपोर्ट तैयार कर पटल पर रखूं। बहुत पसोपेश में था क्या लिखूं? अच्छा अच्छा लिखूं या बुरा? फिर सोचा, जो सत्य है वो ही लिखा जाए। करीब 4 या 5 अगस्त को मगसम पटल से सूचना मिली कि मेरी रचनाओं को 'रचना प्रतिभा सम्मान' मिला है। आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि मैंने शिक्षा एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़ा साहित्य ही अपनी लेखनी से उतारा है।
गाडरवारा के संयोजक विजय बेशर्म का संदेश भी मुझे प्राप्त हुआ- 'गुरुदेव 15 अगस्त पर आपका सम्मान है'। विजय मेरे प्रिय शिष्य हैं। नगर के वरिष्ठ साहित्यकार नरेन्द्र श्रीवास्तव ने भी फोन कर जबलपुर चलने की बात कही। आखिर प्रोग्राम इंटरसिटी से जाने का बन ही गया।
मेरी इच्छा समारोह में जाने की नहीं थी, क्योंकि मैं जबलपुर के कल्चर में कभी शूट नहीं हुआ। करीब 4 साल बाद मैं जबलपुर जा रहा था। यात्रा की पूरी जवाबदारी विजय की थी, क्योंकि वही सबसे बुजुर्ग थे (सुधीरजी के अनुसार)। हम लोग करीब 10 बजे जबलपुर पहुंच गए। समारोह का समय हम लोगों को करीब 2 बजे का बताया गया था उस हिसाब से हमें 1 से 1.30 बजे एक समारोह स्थल पर पहुंचना था।
हमारे पास काफी समय था। बाजार घूमते हुए हम लोग करीब 1 बजे समारोह स्थल जानकी रमण महाविद्यालय पहुंचे। वहां कोई नहीं था। हालांकि मंच सजा हुआ था। करीब 50 कुर्सियां लगी हुई थीं। बाहर दो महानुभाव बैठे थे। उन्होंने हमें देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और उठकर अंदर चल दिए। बाद में पता चला कि वे उस महाविद्यालय के प्राचार्य महोदय थे। हम लोग चुपचाप पिछली बेंच पर जाकर बैठ गए।
विजय बहुत असहज लग रहे थे, क्योंकि उनको डर था कि कहीं गुरुदेव नाराज न हो जाएं, लेकिन मुझे उनकी मजबूरिया एवं सीमाएं मालूम थीं। करीब 1.30 बजे से अतिथियों एवं स्थानीय साहित्यकारों का आगमन शुरू हुआ। सबसे पहले गीता गीतजी एवं प्रेमिलजी पधारे। हम लोगों ने उनका स्वागत किया। उसके बाद सौमित्रजी, शशिजी और भी सम्माननीय अतिथियों का आगमन हो रहा था जिनसे मैं अपरिचित-सा था। विजय सबसे मेरा परिचय करवा रहे थे।
करीब 2 बजे एक ऑटो प्रांगण में रुका। उसमें से सुधीरजी उतरे, साथ में दिनेशजी भी थे। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सुधीरजी के लिए स्टेशन से एक गाड़ी की ही व्यवस्था नहीं हो सकी। खैर, मन को उस बात से हटाकर सुधीरजी के स्वागत के लिए सभी पहुंचे। सुधीरजी का एक हाथ गले से लटका था, शायद चोट लगी होगी। टी-शर्ट में वे स्मार्ट लग रहे थे। मैंने इस पर कोई कमेंट किया था, जो मुझे याद नहीं है लेकिन सुधीरजी ने उस बात का मुस्कुराकर स्वागत किया और मुझे धन्यवाद दिया था।
मंच पर कुछ औपचारिक साज-सज्जा करनी थी, लेकिन वहां पर कार्यकर्ताओं का अभाव था। सुधीरजी विजय की ओर मुड़े और कहा कि विजय यहां तुम्हीं सबसे बुजुर्ग लग रहे हो। तुम ये जिम्मेवारी संभालो। विजय सहर्ष तैयार थे। मैंने सोचा कि मेरा प्यारा शिष्य अकेला परेशान होगा, चलो इसकी सहायता की जाए। करीब आधे घंटे की मेहनत के बाद पेनों के ढक्कनों से हमने पोस्टर ताने, क्योंकि इतने बड़े महाविद्यालय में पिनों का भी अकाल था।
करीब 4 बजे के आसपास कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। मंच पर अतिथियों का आगमन हुआ। संयोजक के रूप में विजय बेशर्म को भी मंच पर जगह मिली, हालांकि विजय को अटपटा लग रहा था कि उनके गुरु एवं वरिष्ठ पीछे बेंच पर बैठे हैं और वे मंच पर कैसे बैठे, लेकिन मैंने और नरेन्द्र भाई ने उन्हें आश्वस्त किया।
मंच का संचालन राजेश पाठक कर रहे थे। मंच पर कार्यक्रमों के क्रम को लेकर सुधीरजी एवं राजेशजी में कुछ तनातनी देखी गई, हालांकि अब तक सुधीरजी मंच पर नियंत्रण स्थापित कर चुके थे। कुल 50 से 60 साहित्यकार वहां मौजूद थे।
सरस्वती पूजन उपरांत सरस्वती वंदना एवं दो प्यारी बच्चियों के स्वागत नृत्य ने सभी का मन मोह लिया। लगा कि कार्यक्रम अच्छा चलेगा। मंच पर जाकर अतिथियों का स्वागत हुआ। सुधीरजी ने विजय की सहायता से प्रमाण पत्रों को क्रम से जमाया एवं उन पर अपने हस्ताक्षर किए। सुधीरजी ने जबलपुर की संयोजक गीता गीतजी से रचना वाचन के लिए साहित्यकारों की सूची मांगी, लेकिन बड़ी मुश्किल से 10 रचना वाचकों की सूची प्राप्त हो सकी।
राजेशजी सबसे पहले मंचासीन अतिथियों का उद्बोधन करवाना चाहते थे जबकि सुधीरजी रचनाओं का पाठ। बस यहीं से दोनों के बीच तनातनी शुरू हो गई, हालांकि सब कुछ मर्यादित था। सुधीरजी के उद्बोधन की सबको प्रतीक्षा थी। मुझे भी उन्होंने मगसम के बारे में पूरी सिलसिलेवार जानकारी अपने उद्बोधन में दी। मुझे ज्यादा रुचिकर नहीं लगा, क्योंकि ये सब बातें में उनके गाडरवारा के उद्बोधन में सुन चुका था।
सुधीरजी के उद्बोधन के पश्चात रचना वाचन का कार्यक्रम हुआ। बाहर के रचनाकारों की करीब 15 रचनाएं स्थानीय साहित्यकारों ने बांचीं। कुछ का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा था जिनमें काली दास ताम्रकार प्रमुख थे। कुछ ने अच्छा किया तथा कुछ स्तर से नीचे थे एवं रचनाओं के साथ न्याय नहीं कर पाए।
अगला कार्यक्रम रचनाकारों के सम्मान का था। यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि जिन रचनाकारों का सम्मान हो रहा था, वहां उनका अपमान ज्यादा हुआ। उनके लिए न तो कोई आगमन के लिए स्वागत में था, न ही उनको वो तवज्जो दी जा रही थी, जो सम्मानित होने वाले व्यक्ति को दी जाती है। शायद इसी कारण लाल बहादुर शास्त्री सम्मान से सम्मानित छिंदवाड़ा से पधारे देवेन्द्र मिश्र बीच में ही उठकर चले गए थे, ये मेरा अनुमान है।
अहंकार को अगर स्वाभिमान की सीमा से नीचे धकेल दें तो वह मेरी नजर में कायरता है। अब तक कार्यक्रम उबाऊ हो चला था। सुधीरजी एक के बाद एक सम्मानित रचनाकारों के नाम पुकार रहे थे एवं मंचासीन अतिथि उन्हें सम्मान-पत्र गहा रहे थे।
आखिर तक जब मेरा नाम नहीं पुकारा गया तो विजय, जो कि सम्मान समारोह में सुधीरजी की सहायता कर रहे थे, से रहा नहीं गया और उन्होंने सुधीरजी को मेरा नाम याद दिलाया। आनन-फानन में मेरा प्रशस्ति पत्र ढूंढा गया फिर मुझे एक कोई अशोक अंजुम का प्रशस्ति पत्र दिया गया। सुधीरजी ने उनका नाम काटकर मेरा नाम लिखा, हालांकि सुधीरजी ने मंच से मेरी काफी तारीफ की, जो स्वभावत: मुझे अच्छी लगी।
यहां पर प्रशस्ति पत्र की रचना के बारे में कहना चाहूंगा कि सम्मान पत्र के जिस हिस्से में जानकारी भरनी थी, वह बिलकुल काला है। उस पर कोई भी स्याही के अक्षर दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। बेहतर होगा कि अगर ये प्रशस्ति-पत्र कुछ हल्के रंगों में प्रिंट हो एवं इसकी जिम्मेवारी संयोजक या स्वयं सम्मानित रचनाकार को सौंप दी जाए तो ज्यादा उत्तम रहेगा।
कार्यक्रम के अंत में मुश्किल से 20 लोग बचे थे, जब गीता गीतजी एवं प्रेमिलजी का सम्मान हो रहा था, साथ में नरेन्द्र भाई को भी सम्मान की पगड़ी पहनाई गई। गाडरवारा में वे पहले इस सम्मान से सम्मानित हो चुके थे।
यहां पर एक सुझाव जरूर देना चाहूंगा कि लाल बहादुर शास्त्री एक बड़ा सम्मान है। इसमें पगड़ी पहनाकर वापस ले ली जाती है तथा यह उचित नहीं है। पगड़ी सम्मानित सदस्य के पास स्मृति चिह्न के रूप में रहनी चाहिए, भले ही रचनाकार से उसका मूल्य ले लिया जाए। सबसे आखिर में प्रेमिलजी की किताब का कब विमोचन हो गया, पता ही नहीं चला।
कार्यक्रम का समापन सुधीरजी के सम्मान पत्र भेंट करने से हुआ। इसी बीच राजेश पाठक भुनभुनाते हुए सुधीरजी पर अशोभनीय तो नहीं कहूंगा, लेकिन एक तल्ख टिप्पणी करते हुए वहां से निकल गए। टिप्पणी यहां पर नहीं लिखना चाहूंगा, क्योंकि हम सबको दु:ख होगा।
अंत में विजय ने 8 बजे की ट्रेन की टिकट ली एवं हम लोग करीब 11 बजे घर पहुंचे। अपने बिस्तर पर सोने से पहले मैं सोच रहा था कि सम्मानों में ऐसा क्या है, जो लोग मरते-दौड़ते कष्ट सहते जाते हैं एवं अंत में एक फ्रेम किया हुआ कागज का टुकड़ा अपने स्वाभिमान को कुचलकर ले आते हैं। साहित्य क्या सम्मानों का मोहताज है? अगर मुझे सम्मान नहीं मिलेगा तो क्या मैं अच्छा नहीं लिख पाऊंगा? सोचते-सोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला।
हां, एक बात लिखना तो भूल ही गया कि 15 अगस्त पर बहुत अच्छा भाषण तैयार करके गया था लेकिन बोलना तो दूर सम्मान के लिए मंच पर पहुंचने के ही लाले पड़ गए।