एक खबर पर मेरी नजरें ठहर गईं। मेरे ही इलाके की एक बारहवीं की बच्ची ने आत्महत्या की। नहीं... नहीं पढाई के कारण नहीं। अपनी मां व बहन के व्यवहार से दुखी होने के कारण। ऐसा ही उसने अपने पत्र में लिखा है। उसकी उम्र उन्नीस साल थी। उन्नीस साल की उम्र कोई छोटी या कम नहीं होती। अच्छे खासे समझदार हो चले होते हैं आजकल के बच्चे। पर फिर भी आत्महत्या किसी भी दृष्टि से उचित तो कदापि नहीं है।
बच्चों को समझना चाहिए अपनी जिम्मेदारी भी। जीवन के प्रति, खुद के प्रति। आश्चर्य है कि दुनिया जहान का ज्ञान बघारने वाले बच्चे इतने कमजोर व्यावहारिकता वाले होते हैं। इन्हें संघर्ष और विपरीत परिस्थितियों से निपटने की कला सीखने की सख्त आवश्यकता है। जितनी गलती इस आत्महत्या में परिजनों की है उतना ही दोष उस आत्महंता का भी होता है।
मैं पाकिस्तानी ड्रामे देखने की शौकीन हूं। किसी ड्रामे में भोला भाला मंदबुद्धि बच्चों सी मासूमियत वाला किरदार एक बस में सफर करता है। कंडक्टर जब टिकट देने आता है तो उसके पूछने पर कि-"कितने टिकट" जवाब होता है - "दो" साथ वाले के बोलने पर कि-"पर तुम तो अकेले हो, तुम्हारे साथ तो कोई नहीं,फिर दो टिकट क्यों?" तब वो जवाब देता है-" मैं हूं और मेरे साथ भी मैं ही हूं, इसलिए दो टिकट।"
बात भले ही मजाक लग रही हो पर बहुत गहरी है। जिंदगी के इस सफर में कर्मों की बस में सवार होकर जब हम निकलते हैं तो हमेशा अकेले होते हैं। हमारे साथ केवल हम ही होते हैं। मतलब "मैं और मेरे साथ भी मैं" वाला जो फंडा है वही इस जिंदगी का सबसे अहम रहस्य है। जिसने इसे समझ लिया उसने जीवन जी लिया। अपने जीवन के चौपन बरस इस फलसफे पर ही चले हैं। मेरे साथ मैं की जो परिभाषा है वो कुछ अलग है।
क्योंकि हम लोवर मिडिल क्लास से अपर मिडिल क्लास वाले लोगों को अपने मैं खुद ढूंढने पड़ते हैं। देश का बड़ा हिस्सा इनसे ही आबाद है। हमेशा हमने जो संस्कार के दीपकों में अपने अरमानों के खून का तेल डालकर उसकी रुढ़िवादी बाती को अखंड दीप में बदलने का ठेका जो ले रखा है। बावजूद इसके यदि आप खुश और जिंदादिली से जीना चाहते हैं तो कुछ ऐसा करें कि आपके लिए जिंदगी पुरस्कार हो, परेशानी नहीं।
हमें जो सीखना है वो यह कि खुद से प्यार करो। ईश्वर ने जो हमें दिया है उससे खुश हों, उसकी इज्जत करें। क्या हुआ जो रंग साफ नहीं है। आंखें छोटी हैं।बाल कैसे भी हैं।दांत टेढ़े मेढे हैं। लम्बाई कम है।मोटे हैं।पतले हैं। चौड़े हैं। आवाज कैसी है।कोई अंग में खलल है किसी को क्या फर्क पड़ता है?
एक बात हमेशा याद रखें यदि हम अपनी इज्जत और खुद से प्यार नहीं करते तो दूसरे क्यों करेंगे?
आप जैसे भी हो ईश्वर की बनाई अनुपम कृति हो। इसके लिए आपको बहरा होना पड़ेगा। आपके बारे में दूसरे क्या सोचते हैं, बोलते हैं इस विचार को छोड़ना होगा।
आज के दौर में थोड़े सी बेशर्मी, थोडा सा बदतमीज, थोडा सा कुटिल, थोडा सा रुखा और ऐसे सब अवगुण माने जाने वाले तत्वों को अपने में जिन्दा कर रखना होगा।बात सुनने में थोड़ी कड़वी जरुर है पर,जिंदगी की मिठास के लिए जरुरी है।
कहानी सुनी तो होगी मेंढकों वाली। खम्बे पर जो चढ़कर जीतता है वो मेंढक बहरा होता है। उसे किसी की कोई चिल्ला-चोट, कोई टीका-टिप्पणी, कोई कहासुनी कानो में पड़ी ही नहीं। वो बस अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चला गया। बिना किसी की परवाह किए। ऐसे ही यदि आपको जीना है तो आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा। डरना छोड़ना होगा। सही को सही, गलत को गलत कहने का साहस करना होगा।
अपने साथ हो रहे अन्याय व अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना सीखना होगा। राह कठिन है पर दुर्गम नहीं। जो आपसे प्यार करते हैं उनकी इज्जत करो। ये जो “मेरे साथ भी मैं ही हूं” का मैं है न ये हमारे साथ कई रूपों में होता है। बस हमें पहचानना थोडा मुश्किल होता है।
मां, बहन, भाई, पिता, दोस्त, टीचर,कोई बेहद प्रिय, बच्चे वगैरह कोई भी। जो आपके कष्ट भरे समय में आपके दुःख व परेशानी को वैसा ही समझे जैसा आपको महसूस होती है। वो आपको उससे निकालने की भरपूर कोशिश करे। आपको जब जरूरत हो तब आपके साथ खड़े हों हिम्मत बंधाते, होंसला देते।
यदि यह ‘मैं’ पहचान आ जाएं तो आपको किसी की जरुरत ही नहीं पड़ती। और यदि फिर भी नहीं तो आपके अंदर छुपा आपका अपना चरित्र, आत्मविश्वास, खुद से प्यार और इज्जत करने का गुण, तो आपका अपना मैं है ही। अपने गुणों, खूबियों को निखारिए, कमियों को सुधरने का प्रयास कीजिए, सीखने की कोशिश कीजिए।
धरती पर कोई भी तथाकथित “परफेक्ट” इंसान नहीं है। हम भी नहीं हो सकते। पर ‘इम्पोसिबल’ को आई एम पॉसिबल’ तो बना ही सकते हैं। नकल में जीने की बजाय अपने असल में जीने का जज्बा जगाइए। लोग आपकी नकल करें, आप भीड़ का हिस्सा नहीं भीड़ की वजह बनें। अच्छा स्वभाव, निष्पक्ष विचार, अपने आप में जीने का अंदाज जीवन के माधुर्य को बढ़ा देता है।
अपने अच्छे शौक को पालिए, सपने पूरे कीजिए। जरुरी नहीं की सभी कुछ आसानी से हमारी झोली में आ गिरे, बढती बेवजह आत्म हत्याओं को रोकने के लिए कदम उठाने होंगे। मानसिक रूप से सहारा देना होगा।गलतियों को सुधारना व खूबियों पर शाबाशी देना होगा। जब तक हम अपने बच्चों के दिलोदिमाग में इस बात को भर नहीं देते कि “कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।” हमें चैन से बैठने का कोई अधिकार नहीं...और बैठना भी नहीं चाहिए।